सूत्रों का कहना है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इस संबंध में इसे लेकर अपने मानकों को आसान बनाया है कि बैंक मौद्रिक बाजार में अपने अतिरिक्त डॉलर का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं। आरबीआई बैंकों को विदेशी मुद्रा बॉडों में अपने अतिरिक्त डॉलर निवेश की अनुमति पहले ही दे चुका है, लेकिन जुलाई 2016 के नियम में कहा गया था कि गैर-सूचीबद्घ प्रतिभूतियों में बैंक का निवेश गैर-सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) बॉन्डों, या कॉरपोरेट बॉन्डों में उनके निवेश के 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
अब विदेशी मुद्रा बॉन्ड (भले ही उन्हें सॉवरिन द्वारा जारी किया गया हो) भारत में इस मकसद के लिए सूचीबद्घ होते हैं, और इनमें बैंकों का निवेश इस 10 वर्ष की सीमा के अंदर बना हुआ था। सूत्रों का कहना है कि करीब दो सप्ताह पहले, कुछ बैंकों ने इस 10 प्रतिशत सीमा को पार किया, जिससे आरबीआई का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। इस प्रतिक्रिया में, इन बैंकों ने आरबीआई से उन्हें इस सीमा को पार करने की अनुमति देने का अनुरोध किया, क्योंकि अमेरिकी बॉन्ड जैसी सॉवरिन प्रतिभूतियां जोखिम-मुक्त हैं। बैंकिंग सूत्रों ने बिजनेस स्टैंडड को दी गई जानकारी में इसकी पुष्टि की है कि आरबीआई ने अब बैंकों को सॉवरिन बॉन्डों को 10 प्रतिशत की इस सीमा से अलग रखने की अनुमति दे दी है।
अपने ट्रेडिंग दिन के अंत में बैंक अपने अतिरिक्त डॉलर ओवरनाइट या पुरानी अमेरिकी बॉन्ड प्रतिभूतियों में निवेश के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस साल 1 अप्रैल से शुरू हुए आरबीआई के लार्ज एक्सपोजर फ्रेमवर्क (एलईएफ) ने इस व्यवस्था को प्रभावित किया, बैंकों के लिए अपनी विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों के इस्तेमाल के संदर्भ में कठिन सीमाएं लगाईं। विदेशी सॉवरिन परिसंपत्तियों में कोष लगाने पर सीमा नहीं थी, हालांकि यह निर्धारित दायरे के अंदर था। आरबीआई ने बैंकों को अपनी रुपये की तरलता को डॉलर में बदलने से भी प्रतिबंधित किया था। बैंकों सूत्रों का कहना है कि इस अदला-बदली की व्यवस्था को फिर से शुरू किए जाने की अनुमति दी जा सकती है।
विदेशी एक्सचेंज ऑर बॉन्ड विश्लेषक परेश नायर ने कहा कि रुपये की तरलता पर्याप्त है, और यदि बैंक अदला-बदली करते हैं, तो रियायती निवेश सीमा के साथ, वे अपनी पूंजी ट्रेजरी बिल्स में लगा सकते हैं।