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तेल की लपटों से घिरीं विमानन कंपनियां

Last Updated- December 07, 2022 | 8:04 AM IST

भारत में यात्री विमानन कंपनियों का फिलहाल प्रतिकूल समय चल रहा है। पहले से ही कराह रहे इस उद्योग की हालत एविएशन टरबाइन फ्युएल (एटीएफ) की कीमतों में हुई वृध्दि से और दयनीय हो गई है।


पिछले चार सालों में एटीएफ की कीमत में तीन गुना वृध्दि हुई है।  पिछले पांच महीनों में  ही इसमें 65 प्रतिशत से ज्यादा का उछाल देखा गया। दिलचस्प बात है कि एटीएफ की कीमत सिंगापुर और दुबई केस्थानीय बाजारों में 41 रुपये लीटर एवं वैश्विक बाजारों में यह 37 रुपये प्रति लीटर  है, लेकि भारत के बाजार में कीमत 65 प्रतिशत ज्यादा क्यों हैं?

मार्जिन, कर और उनसे जुड़ी चीजें

भारत में विमानन कंपनियों को ईंधन खरीदने के लिए अपेक्षाकृ त अधिक खर्च करना पड़ रहा है। उसके पीछे का कारण यह है कि यहां पर कर ,मार्जिन और स्थानीय शुल्क ऑयल मार्केटिंग कंपनियों, राज्य और केन्द्र सरकार के बीच टुकड़ों में बटा हुआ है। एटीएफ को 20 प्रतिशत के आयात शुल्क पर बाहर से मंगाया जा सकता है, लेकिन ऑयल मार्केटिंग कंपनियां इसे 10 प्रतिशत के आयात शुल्क पर मंगाती है। इसके बाद इसमें परिष्कृत करने का 20 प्रतिशत और मार्केटिंग मार्जिन का  21 प्रतिशत खर्च भी जुड़ जाता है।

इन सब बातों के अलावा 8 प्रतिशत उत्पाद शुल्क और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दर से राज्य बिक्री कर भी इस पर लगाए जाते हैं। आंध्र प्रदेश में तो यह 4 फीसदी है, लेकिन गुजरात में यह 30 फीसदी है। यह कर भी आग में घी डालने जैसा काम करती है। सभी करों को जोड़ कर देखा जाए तो यह लगभग 35 प्रतिशत तक के आसपास हो जाता है और अंत में ईंधन  की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार की तुलना में 60 प्रतिशत से ज्यादा हो जाती है।

फ्रॉस्ट एंड सुलिवान के निदेशक रतन श्रीवास्तव का कहना है कि एटीएफ पर लगनेवाले शुल्क से लगभग 5,000 करोड़ रुपया सरकारी खजाने में जाता है और इसकी वजह से आधा से ज्यादा परिचालन खर्च इसी मद में चला जाता है जोकि यूरोपीय विमानन कंपनियों के 33 प्रतिशत की तुलना में ज्यादा है। एटीएफ की कीमतों में आए उबाल के बावजूद जहां राज्य सरकारों ने बिक्री कर में कोई रियायत देने से साफ इंकार किया है, वहीं ऑयल मार्केटिंग कंपनियों के द्वारा भी मार्जिन में कटौती की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है क्योंकि वे पहले से ही सब्सिडी के घाटे से कराह रही हैं।

विमानन कंपनियां चाहती हैं कि सरकार एटीएफ को आवश्यक सामानों की श्रेणी में रख दे जिससे  सभी राज्यों में 4 प्रतिशत का एकसमान बिक्री कर लागू करने में मदद मिलेगी। इसकेअलावा एक ओपन एक्सेस सिस्टम की वकालत की जा रही है जो आपूर्तिकर्ताओं को साझा प्रतिष्ठान से उत्पाद बेचने की इजाजत देगी। इस कदम से ऑयल मार्केटिंग कंपनियों का प्रभुत्च समाप्त हो जाएगा और रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार ऑयल जैसी कंपनियों के लिए दरवाजे खुल जाएंगे जो प्रति वर्ष अपने उत्पादन में से 35 लाख टन एटीएफ का निर्यात करती हैं।

गौरतलब है कि विमानन कंपनियों ने अभी तक इस समस्या से जूझने के लिए कोई आवश्यक कदम नहीं उठाया है। हालांकि नीति निर्धारण में इन कंपनियों की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती है लेकिन तब  प्रश्न खड़ा होता है कि विमानन कंपनियां खर्च में कटौती और घाटे को कम करने के लिए क्या कर रही है?

आसमान छूती कीमत

विशेषज्ञों का मानना है कि वित्त वर्ष 2009 की पहली तिमाही में एटीएफ में 47 प्रतिशत की तेजी से विमानन कंपनियों केपास किराया बढ़ाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। ध्यान देने लायक बात यह है कि जब उपभोक्ताओं केउत्साह में कमी आई है तो कीमतों में बढ़ोतरी खतरनाक हो सकती है। तो फिर इसके अलावा और कौन से विकल्प हैं?

रिस्क एडवाइजरी सर्विस के कपिल अरोड़ा का कहना है कि जहां तक विमान के परिचालन की बात है तो कंपनी टिकटिंग खर्च में कमी करने के अलावा उड़ान को कम कर सकती हैं और साथ ही रख-रखाव के समय में सुधार ला सकती है।जहां तक राजस्व की बात है, उनका आगे कहना है कि विमानन कंपनियां छुट्टियों वाले पैकेज पर मूल्य वर्द्धित कर (वैट) में बढ़ोतरी, खाने पीने के समान की विमान में अलग से बिक्री और बैगेज क्लियरेंस पर शुल्क अधिक करने जैसा कदम उठाकर अपने घाटे को कम कर सकती है।

कपिल अरोड़ा के अनुसार विमानन कंपनियों को तकनीक, रखरखाव पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए जिससे कि संगठन को और मजबूत बनाया जा सके। ईधन केदामों में बढ़ोतरी और उससे होने वाले घाटे से निपटने के लिए विमानन कंपनियों ने कई कदम उठाए हैं जैसे उन्होंने नौकरियों में कटौती की है, ट्रैवल एजेंटों को मिलने वाले कमीशनों में कटौती की है और अपने किराए में बढ़ोतरी कर दी है।

एअर इंडिया, जेट एयरवेज और स्पाइस जेट ने जहां ईंधन अधिभार में 300 रुपये तक की बढ़ोतरी की है वहीं किंगफिशर और एयर डेक्कन ने अपने किरायों में 500 से 3,000 रुपये तक की बढ़ोतरी करने का फैसला किया है। इसके अलावा विमानन कंपनियों ने टियर 2 और टियर 3 शहरों के बीच की उड़ानों में भी कटौती की है। तो फिर एटीएफ की बढ़ती कीमत विमानन कं पनियों केविकास और कारोबार के विस्तार पर कितना असर छोड़ पाएगी?

तस्वीर अभी साफ नहीं

किरायों में बढ़ोतरी किए जाने के बाद विमानन कंपनियों को दोहरी परेशानियों से गुजरना पड़ रहा है। पहली यह कि कंपनियों की विकास दर फिसलकर एक अंक में आ गई है, क्योंकि लोग सस्ते परिवहन के साधनों की तरफ अपना रुख कर रहे हैं जबकि बढ़ता खर्च नियंत्रण से बाहर हो गया है। इस वर्ष जनवरी से मार्च के बीच यात्री परिवहन 10.5 प्रतिशत की गति से बढ़ा जोकि पिछले कुछ वर्षों के 25-30 प्रतिशत की तुलना में आधा रहा। अगर किरायों में इसी तरह की तेजी रही तो विकास दर एक अंक में ही रहेगी, बल्कि वह नकारात्मक भी हो सकती है।

इस संकट से पहले विमानन कंपनियों ने 480 विमानों केऑर्डर दिए थे, जिन्हें अभी से लेकर 2012 तक धीरे-धीरे बेड़ों में शामिल किया जाना था। विमानन कंपनियों ने ये ऑर्डर बढ़ती मांग, नए सेक्टर में विस्तार और एटीएफ की लागत को पहचानकर ही दिए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि सस्ती विमान सेवा प्रदान करनेवाली कंपनी जैस स्पाइस जेट, इंडिगो, और गो एअर पर मौजूदा संकट का सबसे अधिक असर पड़ेगा।

सस्ती विमान सेवा प्रदान करने वाली विमानन कंपनियों का देश के बाजार में हिस्सेदारी 45 प्रतिशत है और अगले तीन सालों में उनकी हिस्सेदारी बढ़कर 60 प्रतिशत तक होने की उम्मीद थी, लेकिन विलय होने के बाद यह संभव होता नहीं दिखाई दे रहा है। अर्न्स्ट एंड यंग का मानना है कि संकट के कारण पैदा हुई स्थिति से बचने के लिए एटीएफ की कीमतों में स्थिरता, हवाई अड्डों के ढांचों में सुधार की जरूरत है। इसके अतिरिक्त अरोड़ा का मानना है कि जिन कंपनियों के पास अच्छी प्रबंधन क्षमता, संकट से निजात पाने का साहस और वित्तीय शक्ति ज्यादा होगी वही इस संकट को पार कर सकती है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर कच्चे तेल की कीमत मौजूदा स्तर पर स्थिर हो जाती है तब किसी भी विमानन कंपनी का फायदा नहीं होगा। हालांकि कच्चे तेल की कीमत अगर 100 डॉलर के स्तर से नीचे जाती है तब इसका सबसे अधिक लाभ जेट एयरवेज और स्पाइसजेट को होगा। जेट एयरवेज का कारोबार काफी अच्छा रहा है और इसके पास घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह की उड़ानों की सुविधा है जबकि इस समय स्पाइसजेट देश की सबसे सस्ती उड़ान सेवा प्रदान करने वाली विमानन कंपनी है।

ऐसी कंपनियां जिनकी उड़ानों की संख्या काफी ज्यादा है, वे कहां से घाटे की भरपाई करेंगी, यह कहना मुश्किल है क्योंकि पिछले वित्तीय वर्ष में इस सेक्टर को 1 अरब डॉलर का घाटा हुआ था और इस साल बैंकों ने भी अपनी ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर दी है, जिससे समस्या और गंभीर हो गई है। आईडीएफसी-एसएसकेआई के प्रबंध निदेशक निखिल वोहरा का कहना है कि बिना किसी अतिरिक्त सहायता केइस क्षेत्र की स्थिति नाजुक होती दिखाई  दे रही है। वोहरा के अनुसार इससे दुखद बात क्या हो सकती है कि  जिस सेक्टर की बाजार पूंजी 3 अरब डॉलर है, वह मौजूदा समय में 1.5 अरब डॉलर का घाटा झेल रहा है।

First Published - June 29, 2008 | 11:27 PM IST

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