अमेरिका ने भारत जैसे विकासशील देशों पर खाद्य संकट का सारा दोष मढ़ दिया हो, लेकिन उसकी इस दलील का खंडन क रते हुए भारत ने कहा है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियां इस संकट के लिए जिम्मेदार है।
भारत ने यह भी कहा कि विकसित राष्ट्रों में अनाज की ज्यादा और बेतरतीब खपत की वजह से भी यह संकट पैदा हुआ है। वैश्विक मंच पर पहली बार भारत ने अपने ऊपर लगे उन आरोपों को खारिज किया जिनमें कहा गया था कि भारत जैसे विकासशील देशों में लोगों की खुराक बेहतर होने से वैश्विक खाद्य संकट गहराया है।
उन्होंने न सिर्फ देश का बचाव किया बल्कि अमेरिका समेत विकसित देशों को भी आड़े हाथ लेते हुए कहा कि खाद्य पदार्थों की किल्लत और कीमतों में वृद्धि में उनका सर्वाधिक योगदान है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत निरुपम सेन ने कहा कि विकसित देशों में खपत की यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक से इसी तरह की रही है। उन्होंने कहा कि पिछले दो साल से अधिक समय से तेल की मांग में 1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन डॉलर के संदर्भ में अगर बात की जाए तो यह वृद्धि 90 प्रतिशत हुई है।
संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद की बढ़ते खाद्य पदार्थों की कीमतों पर विशेष बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि इस संकट का कारण डॉलर का कमजोर होना और अनाज के बदले बायो ईंधन उपजाना है। सेन ने ब्रेट्टन वुड्स इंस्टीटयूशन (बीडब्ल्यूआई) पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि इसी ने अनाज के बदले नकदी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया था ताकि इसका ज्यादा से ज्यादा निर्यात किया जा सके।
गौरतलब है कि अभी हाल ही में यह रिपोर्ट आई थी कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद अमेरिका में एथनॉल उत्पादन में बढ़ोतरी र्हुई है। देश में यह उद्योग तेजी से फल फूल रहा है। सेन ने कहा कि अगर खाद्य पदार्थों की खपत की ही बात की जाए तो विकासशील देशों में इसकी प्रति व्यक्ति खपत मुख्य समस्या नहीं है बल्कि विकसित देशों में इसकी बेतहाशा और अनियंत्रित खपत इस संकट के लिए जिम्मेदार है।
सेन ने कहा कि बहुत सारे विकसित देशों को अनाज के बदले बायो ईंधन उपजाने की नीति बदलनी चाहिए और अनाज के उत्पादन पर जोर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह पहली बार हो रहा है कि तेल और खाद्य पदार्थों की कीमतें सीधे तौर पर जुड़ गई है और इसलिए तेल और खाद्य पदार्थों का बाजार भी इसी वजहों से सीधे तौर पर जुड़ गया है।
उन्होंने कहा कि हरित क्रांति के दौरान बीजों की गुणवत्ता काफी अच्छी थी और बौद्धिक संपदा अधिकार सार्वजनिक हाथों में थी, लेकिन अब यह निजी हाथों में चली गई है और कृषि लागत पर मनमाने तरीके से दाम लगाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि इस संकट को टालने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय बहुत कुछ कर सकता है। इस संदर्भ में भूमि विकास, जल प्रबंधन और बीज तकनीक में सुधार करना होगा।