जिन कंपनियों ने विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉन्ड (एफसीसीबी) जारी किए हैं, उन के सितारे लड़खड़ाते शेयर बाजार के चलते गर्दिश में आने के आसार नजर आ रहे हैं।
वह ऐसे कि इन बॉन्ड्स को तब तक इक्विटी में नहीं बदला जा सकेगा, जब तक कि शेयर बाजार फिर एक बार मजबूती से अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।
अगर सीदे शब्दों में कहा जाए तो शे.र बाजार की पतली हालत की नतीजा यह होगा कि बॉन्ड्स के जरिए उधार ली गई रकम को इन कंपनियों को सूद समेत चुकाना मजबूरी बन जाएगा। उस पर करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली हालत यह है कि इनमें से ज्यादातर कंपनियों में इतनी कुव्वत ही नहीं है।
क्योंकि उन्होंने इस कर्ज के निपटान के लिए साल दर साल वाली व्यवस्था नहीं अपना रखी है। एक अग्रणी ब्रोकरेज संस्था के अध्ययन के मुताबिक, कर्ज और उसका ब्याज, दोनों मिलाकर इन कंपनियों के लिए 2009 के अनुमानित मुनाफे का कम से कम 12 फीसदी और 2010 के मुनाफे का कम से कम 10 फीसदी बैठेगा। जाहिर है, विदेशी मुद्रा में अगर परिवर्तन नहीं हो सका तो कंपनियों को अपनी मौजूदा नकदी क्षमता या फिर नए कर्जों से इन बॉन्ड्स का भुगतान करना पड़ेगा।
ये बॉन्ड् आमतौर पर पांच साल के लिए जारी होते हैं और मैच्योरिटी में औसतन 5.5 प्रतिशत का रिटर्न देते हैं। 92 कंपनियों से जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि इन कंपनियों के शेयरों के दाम परंपरागत दामों की तुलना में 40 प्रतिशत से ज्यादा तक की गिरावट झेल रहे हैं। ज्यादातर बॉन्ड 2006 और 2007 की बाजार की जबरदस्त तेजी के दौरान ही जारी किए गए हैं। उस समय ये कंपनियां इन पर आकर्षक प्रीमियम जुटाने में आसानी से कामयाब हो रही थीं।
लेकिन चिंता की बात यह है कि ज्यादातर बॉन्ड 2011 में मैच्योर होंगे और औंधें मुंह गिरता बाजार इन पर पानी फेर सकता है।