नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन खरीदों में काफी जल्दबाजी की गई थी और रक्षक को बिना ट्रायल के खरीदा गया था और वे ठीक ढंग से काम नहीं कर पाते थे। इस वजह से सैनिकों की जान खतरे में पड़ गई। रिपोर्ट में यह पाया गया कि ये सारी खरीद प्रतिस्पद्र्धात्मक नहीं थी और इस लिहाज से इन वाहनों की खरीद को लेकर गुणवत्ता से समझौता किया गया था।
सेना और महिन्द्रा डिफेंस सिस्टम
(एमडीएस)ने भी इन वाहनों में खामियों की बात स्वीकार की। इस लिहाज से यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठ रहा है कि इस खरीद प्रक्रिया में कहां खामियां रही?
दो साल के परीक्षण के बाद ये सारी बातें सामने उभर कर आई। इस संदर्भ में सिर्फ रक्षक ही नहीं बल्कि रक्षा मंत्रालय के आग्रह प्रस्ताव यानी आरएफपी पर भी दाग लगा है। इन वाहनों की अक्षमता को परखने में हुई उदासीनता ने मंत्रालय पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया।
एमडीएस के सीईओ ब्रिगेडियर खुताब हई ने इस बात पर जोर दिया कि सेना को वही मिला ,जो उसने मांगा था। उन्होंने आगे बताया कि दो सालों तक रक्षक हर मानकों पर खरा उतरा है। इस बात का जिक्र रक्षा मंत्रालय की आरएफपी में स्पष्ट रुप से वर्णित है। अगर सेना को इससे बेहतर वाहन की जरुरत थी तो हम उसे भी उपलब्ध करा सकते थे। लेकिन आरएफपी के निर्देशों के कारण इसमें हम और ज्यादा कुछ कर भी नही सकते थे।
सेना की किसी खरीद में आरएफपी पहला चरण होता है
,जिसमें खरीद संबंधी सारे तथ्यों का ब्यौरा होता है, जिसे बेचनेवाले को किसी हालत में पूरा करना होता है। इसके बाद जो इस अनुबंध को प्राप्त करता है,यह कोई जरुरी नहीं कि वह सबसे अच्छा उत्पाद प्रदान करेगा।
एल–1 निविदा तंत्र, जो अभी प्रचलित है, के तहत सबसे सस्ते उत्पाद ही जीएसक्यूआर को पाता है और फिर सेना के लिए उसकी खरीद की जाती है। उदाहरण के तौर पर अगर प्रतिस्पद्र्धा में मारुति 2 लाख रुपये की कीमत रखती है और मर्सिडीज 2.5 लाख रुपये की कीमत रखती है और अगर मारुति ट्रायल में आरएफपी के मानकों को पा लेती है, तो सेना के लिए मारुति की डील पक्की मानी जाएगी।
हद तो तब हो गई जब सेना भी रक्षक के दाग को मौन होकर देखती रही। अगले चरण क ी बुलेटप्रुफ गाड़ियों की खरीद के लिए अस्त्र और उपकरण निदेशालय ने विक्रेताओं से उन्नत गाड़ियां देने की बात कही गई है। जब सेना से पूछा गया कि 200 रक्षक की खरीद के बाद इस तरह की शिकायतें क्याें की गई तो सेना ने कहा कि ये मात्र क्षमता को बढ़ाने के लिए दिया गया एक सुझाव था।
कैग ने पिछले साल की रिपोर्ट में कहा था कि आरएफपी कभी कभी ऐसे उपकरण की मांग का जिक्र करता है,जो कहीं मिल ही नहीं पाता। कभी कभी इन खरीदों को सस्ता बनाना भी खराब सौदे का कारण बन जाता है। उदाहरण के तौर पर 8000 लाइट व्हीकल की खरीद होनी है,जबकि मात्र 228 के लिए ही आरएफपी दिया गया है।
निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के घरेलू और अंतरराष्ट्रीय विक्रेता रक्षा मंत्रालय से इस बात की शिकायत रखती है कि वे इन खरीदों के मसलों पर गौण हो जाती है। इसकी एक वजह यह है कि यहां नौसीखिए अधिकारी तैनात होते हैं जो इन चीजों के बारे में ज्यादा जानकार नहीं होते हैं।
मंत्रियों के समूह ने अप्रैल
2000 में यह सिफारिश की थी कि रक्षा खरीद के लिए एक अलग इकाई गठित होनी चाहिए। कैग ने भी इस बात पर जोर दिया कि एक विशेषज्ञ खरीद समिति होनी चाहिए, जो इन खरीदों को आसानी और न्यायसंगत बना सके।