मेटा के वैश्विक मामलों से संबंधित विभाग के प्रमुख जोल कैपलन का कहना है कि डेटा लोकलाइजेशन उन देशों के लिए उपयुक्त नहीं है जो चाहते हैं कि उनकी कंपनियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें। उन्होंने कहा कि अगर भारत सरकार डेटा को सीमा पार ले जाने की इजाजत नहीं देती तो इससे देश में वृद्धि और नवाचार प्रभावित हो सकता है। विभिन्न मुद्दों पर कैपलन ने आशिष आर्यन से की बात। बातचीत के संपादित अंश:
डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम के मसौदा नियमों के बारे में आपकी क्या राय है?
हमें यही लगा है कि सरकार ने बहुत खुलापन, पारदर्शिता और मशविरा अपनाया है। नियम सरकार के संतुलनकारी रुख को दर्शाते हैं जहां वह उपयोगकर्ता की सुरक्षा और निजता के संरक्षण के साथ-साथ नवाचार को बढ़ावा देना जारी रखना चाहती है। कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां हमें लगता है कि अतिरिक्त स्पष्टता नियमों को फायदा पहुंचा सकती है।
वे कौन से क्षेत्र हैं?
नियमों में 18 वर्ष से कम आयु के उपयोगकर्ताओं की निगरानी और ट्रैकिंग में स्पष्टता से कुछ लाभ हो सकता है। लक्षित विज्ञापनों के मामले में भी स्पष्टता से हमें उम्र के मुताबिक सुरक्षित सामग्री देने में सुविधा होगी। सहमति को लेकर भी स्पष्टता होनी चाहिए ताकि सेवाएं निशुल्क मिलती रहें और हमें उपभोक्ताओं से शुल्क न लेना पड़े।
दुनिया भर के देशों में किशोरों तथा 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल को लेकर रुढ़िवादिता बढ़ी है। कुछ देशों ने इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। आपके अनुसार ऐसा क्यों हो रहा है?
यह रुख केवल एक सरकार ने अपनाया है। मुझे लगता है कि यह उस देश के किशोरों के हित में नहीं है। सही तरीका है माता-पिता का अपने बच्चों के ऑनलाइन अनुभवों पर नियंत्रण। वे बच्चों के बारे में सबसे बेहतर सोच सकते हैं।
सरकार ने यह जिम्मा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर छोड़ दिया है कि वे सही टूल और सेवाओं के जरिये माता-पिता की सहमति लें। क्या मेटा के पास इसे प्रभावी ढंग से अपनाने का ढांचा है?
हमें लगता है कि माता-पिता की सहमति तय करने की सही जगह ऐप स्टोर के स्तर पर है क्योंकि यही सर्वाधिक प्रभावी और निजता बचाने वाला होगा। मुझे यकीन है कि हम कानून का पालन कर पाएंगे। साझा उपकरणों और तकनीक की कम जानकारी वाले माता-पिता के मामलों में यह चुनौतीपूर्ण अवश्य है मगर कानून के भीतर सहमति हासिल करने को लेकर जो लचीलापन है उसके चलते हम ऐसा कर लेंगे।
उद्योग जगत ने डेटा के सीमा पार प्रवाह को लेकर चिंता जताई है और कहा है कि इससे कारोबारी दिक्कतें आ सकती हैं। जबकि दूरसंचार कंपनियां डेटा के स्थानीयकरण की हिमायती हैं। आप क्या सोचते हैं?
जिस देश की कंपनियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी होना चाहती हैं वहां डेटा स्थानीयकरण को अनिवार्य करना सही नहीं है। पूरी इंटरनेट प्रणाली डेटा के मुक्त प्रवाह पर आधारित है और अगर डेटा का विदेश जाना रोका गया तो भारत के कारोबारों को काफी नुकसान होगा। यह आर्थिक वृद्धि और नवाचार पर असर डालेगा। हमें उम्मीद है कि सरकार इस दिशा में नहीं जाएगी।
कंपनियां और देश एआई टूल और मॉडल के विकास में अपना दबदबा कायम करने के लिए जूझ रहे हैं। क्या श्रेष्ठता की होड़ शुरू होने वाली है?
एआई में दबदबे की जबरदस्त प्रतिस्पर्धा होने वाली है। हमें लगता है कि खुलेपन और पारदर्शिता के साझा मूल्य वाली नियामक व्यवस्थाओं में ओपन सोर्स मॉडल का स्वागत होना चाहिए। एआई के उभार के साथ ओपन सोर्स को लेकर एक वैश्विक मानक तय होगा। ओपन सोर्स एआई भारत के लिए अहम अवसर है। हम 2025 में एआई में 60-65 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहे हैं ताकि इन उन्नत एआई मॉडल्स को तैयार कर सकें और उन्हें दुनिया भर के डेवलपर्स को निशुल्क दे सकें। भारत जैसे देश में जहां एक मजबूत डेवलपर व्यवस्था है वहां यह एक असाधारण अवसर है।
एआई के नियमन को लेकर भारत का रुख क्या होना चाहिए?
अमेरिका नवाचार करता है, यूरोपीय संघ नियमन करता है और भारत बड़े पैमाने के लिए नवाचार करता है। भारत के डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी नवाचारों ने हमें यह दिखाया है। भारत सरकार कारुख उपभोक्ता अधिकारों और नवाचार के बीच संतुलन कायम करने का है। इससे एआई को बड़े पैमाने पर काम करने का अवसर मिलेगा। दूसरी ओर नवाचार में यूरोपीय संघ का प्रदर्शन पिछले एक दशक से अधिक समय में नकारात्मक रहा है। पिछले दशक के उनके नियामकीय प्रयासों का परिणाम वैसी वृद्धि नहीं दे सका जैसी अमेरिका, चीन और भारत के साथ तालमेल के लिए जरूरी है।
राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप की वापसी के बाद आप भारत-अमेरिका रिश्ते को कैसे देखते हैं?
मुझे लगता है दोनों देशों के साझा लोकतांत्रिक मूल्य हैं और हमें उम्मीद करनी चाहिए कि अगले चार साल के दौरान बहुत सकरात्मक और रचनात्मक रिश्ते रहेंगे।