चीनी विनिर्माताओं की डंपिंग और काफी कम दामों से मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा कुछ प्रमुख फार्मास्युटिकल सामग्री पर न्यूनतम आयात मूल्य (एमआईपी) लगाने के फैसले से स्थानीय स्तर पर उत्पादित फार्मा के कच्चे माल की बिक्री बढ़ने के आसार हैं। उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने यह संभावना जताई है।
विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने पोटेशियम क्लैवुलनेट (जो एक लोकप्रिय एंटीबायोटिक की प्रमुख समग्री है) और इसके उपोत्पादों जैसी सामग्री के आयात पर न्यूनतम कीमत की सीमा तय की है और इसकी आयातित कीमत 180 डॉलर प्रति किलोग्राम बांधी गई है। एटोरवास्टेटिन कैल्शियम (कोलेस्ट्रॉल कम करने वाली दवा) के सिंथेसिस में इस्तेमाल होने वाले एक अन्य महत्त्वपूर्ण इंटरमीडिएट एटीएस-8 की आयातित कीमत 111 डॉलर प्रति किलोग्राम तय की गई है। 18 दिसंबर की डीजीएफटी की अधिसूचना में कहा गया है कि कीमत पर ये न्यूनतम प्रतिबंध 30 नवंबर, 2026 तक लागू रहेंगे। फार्मेक्सिल के चेयरमैन नमित जोशी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि यह कदम उन विनिर्माताओं की रक्षा के लिए अहम है, जो उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के तहत फार्मा क्षेत्र की इन प्रमुख सामग्रियों का निर्माण कर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘एमआईपी के जरिये पीएलआई के तहत आने वाले विनिर्माताओं की रक्षा महत्वपूर्ण है, वरना पूरी पीएलआई योजना विफल हो जाएगी।’
जोशी ने बताया कि क्लैवुलैनिक एसिड की स्थापित क्षमता लगभग 300 से 400 टन थी और जब पीएलआई शुरू हुई, तो तय की गई कीमत लगभग 195 डॉलर प्रति किलोग्राम थी। भारत ने पिछले साल पहली बार इस प्रमुख सामग्री को बनाना शुरू किया, जब मुंबई की किण्वन ने इस सामग्री के छोटे बैचों का उत्पादन करना शुरू किया और धीरे-धीरे इसे बढ़ाने की योजना बनाई। कंपनी ने 300 टन की क्षमता वाला संयंत्र पर 400 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया।
उद्योग के सूत्र ने बताया, ‘जैसे ही किण्वन ने इस उत्पाद का व्यवसायीकरण शुरू किया, तो चीनी कंपनियों ने इस सामग्री की कीमतें घटाकर 135 डॉलर प्रति किलोग्राम कर दीं। इस कारण किण्वन को अपना उत्पाद नुकसान में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। पीएलआई लेने वाली कई कंपनियों के साथ ऐसा हुआ है – जैसे ही व्यवसायीकरण शुरू होता है, चीनी कंपनियों की जरूरत से ज्यादा कम कीमतें उन्हें बुरी तरह प्रभावित करता है।’
इस तरह भारत यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है कि कुछ प्रमुख बल्क दवाओं को एमआईपी से कम कीमत पर आयात न किया जा सके। लेकिन इस कदम से भारतीय कंपनियों की विनिर्माण लागत भी बढ़ सकती है। गुजरात की एक छोटी फार्मा फर्म ने कहा, ‘चूंकि ज्यादातर जरूरी दवाओं की कीमतें तय हैं, इसलिए विनिर्माता कंपनियां कच्चे माल की लागत में बढ़ोतरी का बोझ ग्राहकों पर नहीं डाल पाएंगी। या तो इससे ये उत्पाद घाटे का सौदा बन जाएंगे या फिर सरकार को कुछ उत्पादों की कीमतें बढ़ाने की अनुमति देनी होगी।’ क्या भारत क्लेवुलेनिक एसिड बल्क दवा की पूरी जरूरत पूरी कर सकता है? इस संबंध में उद्योग के सूत्रों का दावा है कि जब तक स्थानीय उत्पादन समूची मांग को पूरा करने लायक तक नहीं बढ़ जाता, तब तक आयात को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता।