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भारतीय दवा उद्योग का है ‘अधूरा एजेंडा’

Last Updated- December 15, 2022 | 4:11 AM IST

पहली पीढ़ी के भारतीय दवा दिग्गजों में डॉ. अंजी रेड्डी (स्व. संस्थापक-चेयरमैन, डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज) एक नए मोलीक्यूल की तलाश को लेकर शायद ज्यादा उत्साहित थे। 1990 के दशक के अंत में, उन्होंने ग्लिटाजोन्स नाम कुछ मधुमेह दवाओं पर अपना संसाधन लगाया और डेनमार्क की कंपनी नोवो नॉर्डिस्क के साथ भागीदारी की। रेड्डी ने इन मोलीक्यूल को बैलाग्लिटाजोन (भगवान बालाजी के नाम पर) और रागाग्लिटाजोन नाम दिया। शुरुआती शोध के दौरान रागाग्लिटाजोन को सफलता मिली और नोवो ने इस पर ज्यादा दिया। हालांकि दूसरे चरण के परीक्षण में, टॉक्सिकोलॉजी अध्ययनों में पाया गया कि इससे लैब चूहों में मूत्राशय का कैंसर हो सकता है। इससे नोवो को इस परियोजना को रद्द करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
नई दवा परियोजना की विफलता वैश्विक रूप से सामान्य बात है, लेकिन उद्योग के जानकारों का मानना था कि यह स्थानीय दवा उद्योग के लिए एक बड़ा झटका है। यदि रेड्डी को इसमें सफलता मिलती तो भारतीय दवा उद्योग की राह बदल सकती थी। जरा इस पर विचार कीजिए कि अनुमानित तौर पर हरेक 10,000 मोलीक्यूल परीक्षण में से सिर्फ लगभग 250 ही पूर्व-चिकित्सकीय परीक्षण (एनीमल टेस्ट) में शामिल होते हैं, और मुश्किल से 10 ही चिकित्सकीय परीक्षण में पहुंचते हैं। सिर्फ एक को ही नियामक से मंजूरी मिलती है। लागत: टफ सेंटर फॉर स्टडी ऑफ ड्रग डेवलपमेंट (जर्नल ऑफ हेल्थ इकोनोमिक्स में प्रकाशित) के अनुसार विपणन मंजूरी से जुड़ी नई दवा विकसित करने पर 2.6 अरब डॉलर की अनुमानित लागत आती है। यह लागत बढ़ी है क्योंकि सफलता दर में कमी आई है। 2003 में यह 80.2 करोड़ डॉलर थी।
भारत दुनिया की फार्मेसी है- किसी मरीज द्वारा इस्तेमाल की जाने वाले प्रत्येक 6 जेनेरिक टैबलेट में से एक का निर्माण भारतीय कंपनी द्वारा किया जाता है। हम 20 अरब डॉलर की दवाओं का निर्यात करते हैं और हमारा स्थानीय बाजार भी लगभग समान आकार का है। इसके अलावा सीमित संसाधनों के साथ भी भारत ने लागत-केंद्रित नवाचार पर जोर दिया है। सिप्ला के यूसुफ हमीद ने 90 के दशक के शुरू में एचआईवी-निरोधक दवा अंतरराष्ट्रीय कीमत के महज 10 प्रतिशत खर्च पर पेश की थी।
भारतीय दवा संघ (आईपीए) के महासचिव सुदर्शन जैन ने कहा, ‘वैश्विक तोर पर अपनी किफायती और गुणवत्तायुक्त दवाओं के लिए चर्चित भारतीय दवा उद्योग को हैच-वैक्समैन ऐक्ट से मदद मिली है, जिसे 1980 के दशक के शुरू में अमेरिका में लागू किया गया था और इससे अमेरिका में जेनेरिक के लिए रास्ता साफ हुआ था। इससे जेनेरिक दवा उद्योग का विकास हुआ और यह भारत के ब्रांडेड जेनेरिक दवा निर्माताओं के लिए सकारात्मक बदलाव था।’ 25 आईपीए सदस्यों का भारत के निर्यात में 58 प्रतिशत और घरेलू बाजार में 60 प्रतिशत का योगदान है।
लेकिन उद्योग के विश्लेषकों का मानना है कि भारत में ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र का अभाव है जो नवाचार को सक्षम बना सके।
एक प्रमुख दवा कंपनी के चेयरमैन ने कहा कि नई दवा के नवाचार की लागत काफी अधिक (चिकित्सकीय तौर पर विकास आदि के लिए) है। उन्होंने कहा कि सरकार वित्त पोषित शोध संस्थानों में सरकारी पूंजी की मदद से किए जाने वाले शोध के प्रति जवाबदेही बढ़ाए जाने की भी जरूरत है। हालांकि भारतीय कंपनियों ने इस दिशा में सक्रियता बढ़ानी शुरू की है और सामान्य कम मार्जिन वाले जेनेरिक्स के बजाय जटिल जेनेरिक्स पर भी ध्यान दे रही हैं। यह मुख्य तौर पर अमेरिका तथा जापान जैसे अन्य बाजारों में कड़ी कीमत प्रतिस्पर्धा की वजह से है।
आगे की राह
उद्योग के जानकारों का कहना है कि सरकार समझती है कि ऐसी खामियां हैं जो हेल्थकेयर में नए शोध की राह में बाधक हैं। नवाचार पर दवा विभाग द्वारा एक समिति गठित की गई है जिसमें उद्योग के दिग्गज और उन शैक्षिक संस्थानों के प्रमुख वैज्ञानिक शामिल हैं जो इस दिशा में एक मजबूत ढांचे के विकास में मिलकर काम कर रहे हैं।
इस समिति के एक सदस्य ने कहा, ‘कुछ सप्ताहों में समिति की सिफारिशें आने की संभावना है। नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए आपको सही परिवेश बनाने की जरूरत होगी। ये प्रोत्साहन कर राहत, टैक्स क्रेडिट, अनुदान और नए मोलीक्यूल की कीमत को लेकर स्वायत्तता हो सकते हैं।’
अन्य सदस्य ने बताया कि नियामकीय स्पष्टता, नियामकीय सुधारों, फंडिंग में वृद्घि की दिशा में काम चल रहा है।  उन्होंने कहा, ‘अमेरिका और अन्य विकसित बाजारों में, ज्यादातर नवाचार विश्वविद्यालयों से सामने आते हैं। भारत में उद्योग-अकादमिक संपर्क की संस्कृति नहीं है। हमें प्रमुख संस्थान बनाने और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को आसान बनाने की जरूरत है।’

First Published - July 28, 2020 | 12:18 AM IST

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