Insolvency and Bankruptcy Code: सरकार चूक करने वाली या डिफॉल्टर कंपनियों से जुड़े पर्यावरण संबंधी दावों से निपटने के लिए ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) में अहम बदलाव करने के बारे में सोच रही है। सूत्रों ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि इससे भविष्य में डिफॉल्ट करने वाली कंपनियों के खिलाफ पर्यावरण से संबंधित दावों और देनदारियों से निपटने में तथा जलवायु से जुड़े लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी।
फिलहाल आईबीसी में दावों और कर्ज देने वालों की कई श्रेणियां हैं, जिनमें पर्यावरण से जुड़ी देनदारियां भी शामिल हैं। मगर विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी देनदारियों के लिए कानून में खास इंतजाम नहीं है और उन्हें आम व्यापारिक देनदारी की तरह ही बरता जाता है।
सूत्र ने कहा, ‘पर्यावरण के लक्ष्यों को आईबीसी के साथ जोड़ने के लिए नए दिशानिर्देशों की जरूरत हो सकती है। इस पर और चर्चा करनी होगी कि पर्यावरण से जुड़े दावों पर फैसले कौन करेगा, इसके लिए क्या हर्जाना होना चाहिए, प्रदूषण फैलाने वाली कंपनी को बंद करना है या उसका समाधान करना है।’
जलवायु से जुड़ी कार्रवाई को दिवालिया प्रक्रिया के साथ जोड़ना क्यों जरूरी है, इस बारे में दुनिया भर में चर्चा शुरू हो गई है। यह चर्चा 12 सदस्यों का कार्यसमूह कर रहा है, जिसका गठन विश्व बैंक ने इसी साल इन्सॉल इंटरनैशनल और इंटरनैशनल इन्सॉल्वेंसी इंस्टीट्यूट के साथ मिलकर किया है।
इन्सॉल्वेंसी लॉ अकैडमी के प्रेसिडेंट और विश्व बैंक कार्यसमूह के सदस्य सुमंत बत्रा ने कहा, ‘यह चुनौती आज की है, भविष्य की नहीं। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो पर्यारवण पर प्रभाव से जुड़े दावे कर रहे हैं। हमें यह भी देखना होगा कि ये दावे ऋणदाताओं की किस श्रेणी में आएंगे और इन्हें कितनी प्राथमिकता दी जाएगी। हमने समस्याओं की फेहरिस्त तैयार की है और अब हम उन्हें सुलझाने पर काम कर रहे हैं।’
जैसे-जैसे देश कॉप28 लक्ष्यों की ओर बढ़ रहे हैं, कारोबारों के सामने बदलाव करने का और उसकी वजह से दिवालिया होने का खतरा भी होगा। सुनामी और जंगल में आग जैसे हादसों के कारण कंपनियां दिवालिया होने की अर्जी दाखिल कर सकती हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक इस बात पर भी बहस है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली कंपनियों को दिवालिया कानून के तहत बचाया जाए या खत्म ही कर दिया जाए।
उदाहरण के लिए अगर कोई कोयला कंपनी ऋणशोधन अक्षमता के लिए अर्जी डालती है तो संहिता को देखना होगा कि उसे बचाया जाए और पहले की तरह काम करने दिया जाए या समाधान प्रक्रिया के तहत उस पर तकनीक बदलने के लिए जोर डाला जाए।
ईवाई इंडिया में पार्टनर दिनकर वेंकटसुब्रमण्यन ने कहा, ‘वित्तीय परेशानी का मतलब है कि कंपनी पर्यावरण से जुड़ी अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने में चूक जाएगी। पर्यावरण से जुड़े दावों को भी कानून में शामिल किया जाना चाहिए।’
बत्रा ने सुझाव दिया कि समाधान योजना को मंजूरी देते समय ही पर्यावरण से जुड़ी संस्था को शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऋणदाताओं की समिति के पास व्यावसायिक समझ हो सकती है मगर जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने का ज्ञान उसके पास शायद नहीं होगा।
बाजार नियामक सेबी ने जुलाई 2023 में शीर्ष 1,000 सूचीबद्ध कंपनियों के लिए बिजनेस रिस्पॉन्सिबिलिटी ऐंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग शुरू की थी।
विशेषज्ञों ने कहा कि सेबी की इस पहल से सीख लेकर दूसरे नियामक भी इसी तरह की जिम्मेदारियां तय कर सकते हैं। मगर पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं तथा आर्थिक अनिवार्यताओं के बीच संतुलन बिठाना बड़ी चुनौती होगी।
पीडब्ल्यूसी इंडिया में पार्टनर और डील्स लीडर दिनेश अरोड़ा ने कहा कि पर्यावरण के अनुकूल तौर-तरीकों को बढ़ावा देने और आर्थिक रूप से पटरी पर लौटने में मदद करने के बीच सही संतुलन बिठाना है तो बारीकी के साथ नीति बनानी होगी और उद्योग की चाल की गहरी समझ रखनी होगी।
भारत में केपीएमजी के जॉइंट हेड (डील एडवाइजरी) मनीष अग्रवाल ने कहा, ‘सरकार पर्यावरण से जुड़ी देनदारियों को विशेष दर्जा देने की सोच सकती है ताकि ऐसी देनदारियों से पल्ला छुड़ाने के ले आईबीसी का इस्तेमाल न किया जा सके। इस पर अलग से काम शुरू करने के लिए हमें कुछ समय चाहिए क्योंकि उससे पहले आईबीसी में दूसरे पेच सुलझाने हैं।’