हाल ही में रेखा गुप्ता के दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने के बाद राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर छिड़ी बहस फिर आगे बढ़ी है। इस पद को संभालने वाली वह राष्ट्रीय राजधानी की चौथी और देशभर में 18वीं महिला हैं। उनका यहां तक पहुंचना एक अहम पड़ाव है लेकिन यह राजनीति में लिंग आधारित प्रतिनिधित्व में असमानता के मुद्दे को भी उजागर कर देता है।
लोक सभा में महिला सांसदों की संख्या बहुत धीमी गति बढ़ रही है। वर्ष 1991 में जहां कुल लोक सभा सांसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.1 प्रतिशत था, वहीं 1999 में यह मामूली रूप से बढ़कर 9 प्रतिशत तक पहुंचा। इसके बाद 2004 में इसमें पुन: गिरावट देखने को मिली और यह आंकड़ा गिरकर 8.3 प्रतिशत पर आ गया। वर्ष 2009 में लोक सभा में महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व 10.7 प्रतिशत दर्ज किया गया था।
पिछले दशक में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी थोड़ी बढ़ी और यह 2014 में 11.4 प्रतिशत हो गई तथा 2019 में इसमें और वृद्धि देखी गई जब यह बढ़ कर 14.4 प्रतिशत तक पहुंच गई। खास बात यह कि लगातार हिस्सेदारी बढ़ने और उस समय तक की यह सबसे अधिक संख्या होने के बावजूद लोक सभा पहुंचे कुल सांसदों के हिसाब से यह संख्या बहुत कम थी।
पिछले दो दशक में जन प्रतिनिधित्व में महिलाओं की हिस्सेदारी कभी बढ़ी तो कभी घटी। सन 2000 के दशक में इसमें काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिला तो पिछले दशक में इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन मौजूदा दशक में इसमें फिर कमी आई है। साल 2024 के चुनाव के बाद निचले सदन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व घटकर 13.6 प्रतिशत रह गया जिससे बदलाव की बयार धीमी पड़ गई।
हाल ही में हुए विधान सभा चुनावों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी में असमानता स्पष्ट दिखाई दी है। वर्ष 2024 में हुए चुनाव में हरियाणा की 90 सदस्यों वाली विधान सभा में केवल 13 महिलाएं ही चुनकर पहुंचीं। कांग्रेस के महिला विधायकों की संख्या जहां 7 रही वहीं भाजपा की ओर से 5 ही महिलाएं जीत पाईं। इस तरह हरियाणा की विधान सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15 प्रतिशत से भी नीचे रह गया। जम्मू-कश्मीर में तो तस्वीर और खराब रही जहां हाल ही में हुए चुनावों में केवल तीन महिला उम्मीदवार जीत कर विधान सभा गईंं और उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ 3.3 प्रतिशत ही रहा।
राष्ट्रीय राजधानी होने के बावजूद दिल्ली में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.1 प्रतिशत ही है, जो एक दशक में सबसे कम है। वैश्विक परिदृश्य के हिसाब से देखें तो यह स्थिति बहुत खराब नजर आती है। जनवरी 2025 में आई राष्ट्रीय संसद में महिला प्रतिनिधित्व पर मासिक रैंकिंग में भारत 152वें नंबर पर था। अंतर-संसदीय संघ द्वारा प्रकाशित इस सूची में भारत का स्थान पाकिस्तान (137) और चीन (83) जैसे अपने पड़ोसियों से भी पीछे है।
व्यापक रूप से वैश्विक स्तर पर 2024 एक चुनावी साल रहा और इसमें राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी की स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आई। ब्रिटेन के चुनाव में रिकॉर्ड 263 (40 प्रतिशत) महिलाएं चुनकर हाउस ऑफ कॉमंस पहुंचीं। भारत की अपेक्षा यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। दक्षिण अफ्रीका की राष्ट्रीय असेंबली में महिलाओं की संख्या 45 प्रतिशत है जबकि अमेरिका में उनका प्रतिनिधित्व 29 प्रतिशत है।
भारत में महिला जनप्रतिनिधित्व में समाई असमानता को दूर करने के प्रयासों के तहत संसद में 2023 में महिला आरक्षण विधेयक पास किया गया। इसमें राज्य विधान सभाओं और लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33 प्रतिशत सुनिश्चित करने का प्रावधान है। लेकिन यह कानून नई जनगणना होने के बाद विधान सभा और लोक सभा सीटों के परिसीमन के साथ ही लागू हो पाएगा। इस तरह कानून बनाने में महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी 2029 से पहले तो संभव होती नहीं दिखती।