वैश्विक स्तर पर शोध के लिए जीडीपी (GDP) के हिस्से के रूप में भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का बजट उच्चतम स्तर पर है लेकिन इस लिहाज से निजी क्षेत्र बहुत पीछे है। बता रहे हैं अजय छिब्बर
भारत ने अपेक्षाकृत कम बजट में चंद्रमा पर पहुंचने के अभियान में सफलता पाई और यह ऐसा करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है।
भारत की चांद पर उतरने की महत्त्वाकांक्षी योजना की सफलता की उपलब्धि महत्त्वपूर्ण है, खासतौर पर इस लिहाज से भी कि इसकी अधिकांश अंतरिक्ष योजनाएं स्वदेश में ही विकसित की गई हैं।
इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भारत में अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) पर किए जाने वाले सीमित खर्च में भी अंतरिक्ष से जुड़ी पहलों को प्राथमिकता दी गई है। हम अगर अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों की सराहना करते हैं तो यह लाजिमी है कि हम आरऐंडडी के क्षेत्र में व्यापक तौर पर कम खर्च की समस्या पर भी गौर करें।
भारत का आरऐंडडी खर्च वर्ष 2008 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग 0.8 प्रतिशत पर पहुंच गया था लेकिन यह उस वक्त के बाद से घटकर जीडीपी के 0.65 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया है। इसकी तुलना में चीन अपने जीडीपी का लगभग 2.1 प्रतिशत आरऐंडडी पर खर्च करता है और अमेरिका लगभग 2.8 प्रतिशत खर्च करता है।
दूसरी ओर जर्मनी और जापान आरऐंडडी पर जीपीडी का 3 प्रतिशत से अधिक खर्च करते हैं जबकि इजरायल शोध पर सबसे ज्यादा अपने जीडीपी का 5 प्रतिशत तक खर्च करता है। आरऐंडडी में खर्च किए जाने वाले वैश्विक औसत को देखा जाए तो यह जीडीपी का लगभग 2.2 प्रतिशत है।
हालांकि यह सच है कि एक विकासशील देश, अनुसंधान एवं विकास पर कम खर्च करता है क्योंकि इसके पास यह गुंजाइश होती है कि यह अमीर देशों से नई प्रौद्योगिकी ले सके।
हालांकि ऐसा करने के लिए भी कुछ स्तर तक आरऐंडडी की आवश्यकता होती है। जब भारत में हरित क्रांति हुई तब दूसरी जगह तैयार हुए अधिक उपज वाले बीज की किस्में लाने में देश सक्षम हुआ क्योंकि भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल इन्हें ढालने का अपना आरऐंडडी बुनियादी ढांचा था।
भारत फार्मा के क्षेत्र में भी सफल रहा क्योंकि इसके पास रिवर्स इंजीनियर फार्मास्यूटिकल्स और जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करने के लिए पर्याप्त शोध क्षमताएं थीं।
भारत के आरऐंडडी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य (18 प्रतिशत), कृषि (13 प्रतिशत), अंतरिक्ष (9 प्रतिशत) और रक्षा क्षेत्र (17 प्रतिशत) में खर्च होता है जबकि 10 प्रतिशत से भी कम औद्योगिक उत्पादन, प्रौद्योगिकी से लेकर परिवहन एवं दूरसंचार क्षेत्र में खर्च होता है।
निश्चित तौर पर यह हैरान करने वाली बात नहीं लगती है जब आप इस बात पर विचार करते हैं कि आरऐंडडी का बड़ा हिस्सा (लगभग 60 प्रतिशत) सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च होता है जबकि दूसरी ओर अधिकांश विकसित अर्थव्यवस्थाओं में अनुसंधान एवं विकास पर किए जाने वाले खर्च में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम है।
भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का आरऐंडडी खर्च जीडीपी का 0.36 प्रतिशत है जो इसी तुलना में रूस के 0.34 प्रतिशत, अमेरिका के 0.28 प्रतिशत, फ्रांस के 0.27 प्रतिशत, जापान के 0.25 प्रतिशत और इजरायल के 0.07 प्रतिशत से अधिक है।
भारत में आरऐंडडी क्षेत्र के खर्च में कमी सार्वजनिक क्षेत्र नहीं बल्कि निजी क्षेत्र के कम योगदान के चलते बनी हुई है जबकि इस क्षेत्र में आरऐंडडी का बजट बहुत अधिक होना चाहिए।
अब सवाल यह भी है कि भारत के निजी क्षेत्र से शोध एवं विकास पर इतना कम खर्च क्यों होता है? हम जानते हैं कि निजी क्षेत्र का आरऐंडडी के जरिये मिलने वाला प्रतिफल किसी सामाजिक प्रतिफल से कम है क्योंकि ज्ञान की सुरक्षा करना इतना आसान नहीं है। इसकी चोरी आसानी से हो सकती है या यह पूरी तरह से गायब भी हो सकता है खासतौर पर अगर यह ज्ञान शोध करने वाले व्यक्ति के पास है।
चीन कथित तौर पर प्रौद्योगिकी की चोरी करने में माहिर रहा है लेकिन अमेरिका सहित कई अन्य देशों के पास 150 साल पहले ही ऐसी पाइरेटेड तकनीक थी।
स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के निकोलस ब्लूम ने उन कारकों पर गौर किया है जिससे यह पता चलता है कि निजी कंपनियां आरऐंडडी में कम निवेश क्यों करती हैं और इसकी वजह यह है कि वे इसके सभी फायदे नहीं हासिल कर सकती हैं।
उनका तर्क है कि अनुसंधान एवं विकास की लागत में 10 प्रतिशत तक की कमी लाने से इसका खर्च 10 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। ऐसा विभिन्न प्रकार के कर लगाकर और अन्य प्रोत्साहनों के माध्यम किया जा सकता है लेकिन इसकी संरचना कैसे तैयार हो, इस बात से फर्क पड़ता है। उनका यह भी तर्क है कि मुक्त व्यापार, प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर नवाचार को बढ़ावा देता है।
हालांकि भारत इसके विपरीत दिशा की ओर जा रहा है। भारत में कई वर्षों से आरऐंडडी के लिए कॉरपोरेट कर प्रोत्साहन दिया जाता था लेकिन वर्ष 2018 में कॉरपोरेट कर घटाने के साथ ही इन्हें खत्म कर दिया गया।
इसके लिए एक तर्क यह दिया गया कि पिछले कर प्रोत्साहनों से आरऐंडडी में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई। हालांकि यह भी संभव है कि इनकी संरचना ठीक नहीं होगी जिसकी वजह से ऐसा नहीं हो पाया होगा।
हमारी व्यापार नीति जो मुक्त व्यापार की ओर बढ़ रही थी, उसमें वर्ष 2018 में बदलाव आया और अब यह भारत को कम प्रतिस्पर्धी बना रही है जो नवाचार को बढ़ाने के बजाय कम करेगी। पेटेंट संरक्षण, अनुबंधों को लागू करना और कानूनी नियमों जैसे मुख्य कारक ही आरऐंडडी में निजी निवेश का उच्च स्तर सुनिश्चित कर पाएंगे।
डॉ ब्लूम ने यह भी बताया कि कुशल और प्रतिभाशाली लोगों के पलायन को रोकना भी इस दिशा में एक अहम कदम है। भारत के मामले में इसका मतलब कुशल लोगों के पलायन को रोकना होगा क्योंकि हम देश में बेहतर वेतन एवं सुविधाओं वाली नौकरियों के अभाव में विज्ञान और इंजीनियरिंग क्षेत्र के अधिकांश प्रतिभाशाली छात्रों के पलायन को रोक नहीं पाते हैं।
उनका तर्क है कि एसटीईएम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) पर अधिक खर्च करने से फर्क पड़ेगा और चुनिंदा सरकारी संस्थानों पर खर्च करने के बजाय विश्वविद्यालयों को आरऐंडडी अनुदान देना सार्थक कदम साबित होगा।
भारत में चुनिंदा संस्थानों को ही सरकारी खर्च के बजट का बड़ा हिस्सा मिलता है और इसमें से बेहद कम राशि विश्वविद्यालयों को मिलती है। इनमें रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (32 प्रतिशत), अंतरिक्ष विभाग (19 प्रतिशत), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (11 प्रतिशत), परमाणु ऊर्जा विभाग (11 प्रतिशत), वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (10 प्रतिशत) और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा जैव प्रौद्योगिकी विभाग (10 प्रतिशत) शामिल हैं।
सवाल यह भी उठता है कि यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि ये संस्थान शोध के लिए आईआईटी और इंजीनियरिंग स्कूलों जैसे विश्वविद्यालय स्तर की अधिक क्षमता का उपयोग करें और यही वह रास्ता होना चाहिए जिसका अनुसरण दूसरे देशों ने भी किया है और भारत को इस दिशा में प्रयास करने के साथ ही इसका अनुकरण करना चाहिए।
समय के साथ भारत के पीयर रिव्यू शोध पत्र और पेटेंट की तादाद बढ़ी है लेकिन हमें उनकी गुणवत्ता की कोई जानकारी नहीं है और हम इस लिहाज से भी अमेरिका तथा चीन से काफी पीछे हैं।
जाहिर तौर पर आगे का रास्ता यही है कि निजी क्षेत्र के आरऐंडडी निवेश के लिए बेहतर प्रोत्साहन योजनाएं तैयार की जाएं। इसके साथ ही हमारे बड़े विश्वविद्यालयों और संस्थानों को शोध एवं विकास की प्रणाली की ओर अच्छी तरह आकर्षित करना होगा न कि इस बात पर जोर दिया जाए कि आरऐंडडी कुछ जगहों तक ही सीमित हो और हम इसके सीमित निष्कर्षों पर ही संतुष्ट हो जाएं।
इसके अलावा, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के लिए (डिफॉल्ट तरीके से अब पीएम केयर्स फंड बन गया है जिसमें पारदर्शिता नहीं है) निजी कंपनियों के शुद्ध मुनाफे पर 2 प्रतिशत कर लगाने के बजाय निजी क्षेत्र की ऊर्जा अगर आरऐंडडी पर अधिक लगाने पर केंद्रित की जाए तो यह अधिक मददगार साबित होगा।
एक सकारात्मक खबर यह है कि भारत वैश्विक नवाचार सूचकांक में सुधार कर रहा है और यह वर्ष 2015-16 में 81वें स्थान पर था लेकिन 2021 में इसमें सुधार दिखा और यह 46वें स्थान पर पहुंच गया है। अगर हमारे आरऐंडडी का स्तर और बेहतर होता है तो इसमें और अधिक सुधार हो सकता है।
आखिरकार डॉ. ब्लूम का तर्क यह है कि महत्त्वाकांक्षी और नवाचार वाली योजना के अपने फायदे हैं क्योंकि अधिकांश बुनियादी शोध अंततः मार्केटिंग करने योग्य कई नई तकनीक तैयार करते हैं। ऐसे में हमारे यह अहम होगा कि हम अपनी अंतरिक्ष योजनाओं के लिए पूंजी रखें लेकिन अधिक विश्वविद्यालयों के साथ-साथ निजी कंपनियों को भी इसके दायरे में लाने की कोशिश करें।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)