कांग्रेस की पूर्व नेता और भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की किताब ‘प्रणव, माई फादर’ आई है। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने अर्चिस मोहन से अपने पिता के कई संस्मरणों, राहुल गांधी पर उनके विचारों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके निजी ताल्लुकात और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के बारे में बात की। बातचीत के संपादित अंश:
यह सवाल कभी किसी समय का नहीं था। मेरे पिता मुझसे किताब लिखने की उम्मीद करते थे और उन्होंने मुझे अपनी डायरियों का संरक्षक बनाया था। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि इस काम को मरणोपरांत किया जाना है। उन्होंने मुझे अपने जीवनकाल के दौरान अपनी डायरी पढ़ने से मना भी किया जब मैंने उन्हें सुझाव दिया कि हम इस पर काम करना शुरू कर सकते हैं।
अगस्त 2020 में उनके निधन के बाद मैंने उनकी डायरियों पर काम करना शुरू किया। इस किताब पर काम करने में मुझे दो साल से अधिक का समय लगा। 11 दिसंबर को उनकी जयंती थी इसीलिए हमने इस दिन पुस्तक का विमोचन करने का फैसला किया। मैंने बंगाल के एक ग्रामीण क्षेत्र में उनके जन्म से लेकर रायसीना हिल तक उनके पहुंचने तक की उनकी यात्रा को लिखने की कोशिश की है।
एक प्रशासक के तौर पर किए गए उनके काम, नीति निर्माण में उनका योगदान, सरकार में उनके लंबे कार्यकाल और उनके द्वारा पेश किए गए विधेयकों या उन्हें पारित करने में मददगार साबित होने जैसे पहलुओं पर बड़े शोध की जरूरत है और निश्चित तौर पर इन पर और किताबें लिखी जा सकती हैं। उन्होंने जिन प्रधानमंत्रियों के साथ काम किए, उनके साथ उनका रिश्ता कैसा था, इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
मैंने इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंधों के बारे में विस्तार से बताया है। वह कहते थे कि इंदिरा के साथ काम करना उनके जीवन का सुनहरा दौर था और वह उनकी गुरु थीं। वह जिन ऊंचाइयों तक पहुंचे उसके लिए वह उन्हें धन्यवाद दिया करते थे। किताब का एक अध्याय इस अफवाह पर भी केंद्रित है कि पहले उन्होंने अंतरिम प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश किया था। उन्होंने कहा था कि यह बात सच नहीं है।
उनके अनुसार इसका मूल कारण अविश्वास था। इस किताब में, पी वी नरसिंह राव के साथ उनकी दोस्ती और राव के निधन के बाद उनके शव को कांग्रेस मुख्यालय के अंदर ले जाने की अनुमति नहीं देने पर उनकी निराशा का भी जिक्र है।
इस 370 पन्नों की किताब में राहुल गांधी के बारे में मुश्किल से आधा दर्जन संदर्भ दिए गए हैं, लेकिन आप जानते हैं कि मीडिया कैसे काम करता है। दोनों के बीच शायद ही कोई बातचीत होती थी।
बाबा की डायरियों में राहुल से जुड़े सबसे पहले संदर्भ का जिक्र संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की पहली पारी की सरकार (2009) के आखिरी दिनों का है जब आगामी लोकसभा चुनावों के लिए चुनावी रणनीति पर आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने किसी भी गठबंधन का जोरदार विरोध किया।
इस बैठक में बाबा ने उन्हें अपने विचारों को अधिक तार्किक रूप से रखने के लिए कहा तब इस पर राहुल ने कहा कि वह उनसे इस पर बात करने के लिए मिलने आएंगे। बाबा के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान राहुल उनसे कम ही मिले थे।
बाबा को लगता था कि राहुल के पास बहुत सारे प्रश्न थे लेकिन वह एक विषय से दूसरे विषय पर जल्द ही स्थानांतरित हो जाते हैं और पता नहीं उनमें से कितनी बातें वह मन में रख पाते हैं। वर्ष 2013 में, राहुल ने जब सार्वजनिक रूप से अध्यादेश को फाड़ा था तब इससे बाबा बहुत नाराज हो गए। उस रात, उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि राहुल को अपने खानदान का अभिमान है, लेकिन उनमें उनकी तरह राजनीतिक कुशलता नहीं है।
इस प्रकरण ने राहुल पर उनके भरोसे को डिगा दिया। उनका मानना था कि राहुल विनम्र हैं लेकिन उन्हें राजनीतिक रूप से परिपक्व होने की जरूरत है। वर्ष 2014 के चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद बाबा ने अपनी डायरी में लिखा था कि राहुल मन से जुड़े हुए नहीं लग रहे थे इसकी वजह से भी कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित नहीं थे। उन्होंने यह भी लिखा कि शायद उनमें जीतने की इतनी ललक नहीं थी।
मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे पता चला कि राष्ट्रपति बनने के शुरुआती वर्षों में ही उन्होंने मोदी का जिक्र किया था। उन्होंने लिखा कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने उन्हें वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था।
उन्होंने लिखा कि मोदी, कांग्रेस सरकार के कटु आलोचक हैं, राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में मोदी और उनके बीच तीखी बहस हुई लेकिन उनके मन में मेरे लिए नरम भाव हैं और वह ,मेरे पैर छूते हैं और उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ऐसा करने में खुशी मिलती है।
प्रधानमंत्री ने मुझे इस पद पर नियुक्त होने के बाद बाबा के साथ उनकी पहली मुलाकात के बारे में बताया था जब वह थोड़ा घबराए हुए थे।
उन्होंने मुझे बताया था, ‘दादा ने मुझे बहुत स्पष्ट रूप से बताया कि हम अलग-अलग विचारधाराओं से संबंध रखते हैं, लेकिन शासन करने का अधिकार आपको दिया गया है और मैं इसमें दखल नहीं दूंगा। लेकिन संवैधानिक मामलों पर, अगर आपको जरूरत पड़ेगी तब मैं आपकी मदद करूंगा। दादा के लिए यह कहना बहुत बड़ी बात थी।’
वह राष्ट्रपति के रूप में अपनी संवैधानिक भूमिका और अपनी संवैधानिक सीमाओं के प्रति बेहद सचेत थे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान पूरा प्रयास किया कि प्रधानमंत्री और वह एक टीम के रूप में काम करें।
मैं सचमुच अपने पिता से बहुत नाराज थी। मैंने इसके खिलाफ ट्वीट भी किया था। मैं दिन-रात उनसे लड़ती रही और उन्हें वहां न जाने के लिए कहती रही। लेकिन वह अपनी बात पर अड़ गए थे। वह कांग्रेस और वामदलों के इस बयान से भी चिढ़ गए थे कि वह संघ मुख्यालय का दौरा करके संघ को वैधता दे रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘मैं उन्हें वैधता देने वाला कौन होता हूं जब भारत के लोगों ने एक प्रचारक को बहुमत के साथ प्रधानमंत्री चुना है।’
लेकिन जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे लगता है कि मैं बेवकूफ थी। कांग्रेस ने इसकी आलोचना में देरी नहीं की लेकिन बाद में लोगों ने देखा कि मेरे पिता ने संघ को आईना दिखाया था। उनके आलोचकों को संघ मुख्यालय में उनके भाषण देने तक इंतजार करना चाहिए था। उनका मानना था कि लोकतंत्र में संवाद सर्वोपरि है।
उन्होंने कांग्रेस की विचारधारा का प्रचार करने के लिए संघ के मंच का इस्तेमाल किया। उन्होंने उनके मंच पर पंडित नेहरू का हवाला दिया। उस दौरान मुझे पता चला कि मेरे पिता ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक सत्र में संघ पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया था। इसका श्रेय संघ को जाता है कि इस संस्था ने एक ऐसे व्यक्ति तक अपनी पहुंच बनाई, जिसने कभी संघ पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी।
मैंने दो साल पहले वर्ष 2021 में राजनीति छोड़ दी थी। मैं पार्टी को दोष नहीं देती। मैं राजनीति के लिए नहीं बनी थी। मैं वर्ष 2014 में राजनीति से जुड़ी थी। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मेरा किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने का कोई इरादा नहीं है।
उन्होंने संस्कृत के एक वाक्यांश ‘स्वधर्मे निधानम् श्रेया’ का हवाला दिया जिसका अर्थ है अपने धर्म के साथ नष्ट हो जाना बेहतर होता है और उन्होंने कहा कि हमेशा याद रखना कि कांग्रेस हमारा स्वधर्म है। कांग्रेस अब भी मेरा स्वधर्म है और मैं वैचारिक रूप से कांग्रेस से जुड़ी रहूंगी।
लेकिन वह कांग्रेस, शायद अब केवल इतिहास के पन्नों में मौजूद है। लोगों को लगता है कि मैं भारतीय जनता पार्टी में जाना चाहती हूं। राज्यसभा की सीट सभी के लिए निर्वाण नहीं होता है। बाबा के निधन के बाद तो राजनीति में रहने की मेरी इच्छा खत्म हो गई।
वह मुझसे कहते रहते थे कि कांग्रेस को बने रहना होगा। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि वह कांग्रेस मुक्त भारत पर यकीन नहीं कर सकते हैं। लेकिन उनका राहुल पर से भरोसा उठ गया था। 2014 की हार के तुरंत बाद, उन्होंने अपनी डायरी में इस बात को नोट किया कि कांग्रेस के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करना था।
उन्होंने महसूस किया कि सत्ता का केंद्रीकरण और नेहरू-गांधी परिवार की खुशामदी कारगर नहीं हो सकती है। दिसंबर 1975 में चंडीगढ़ में एआईसीसी के सत्र में उन्हें कोई असंतोष नहीं दिखा था। फिर भी, उन्हें खुद इस बात को स्वीकार करने में 40 साल से अधिक समय लग गए कि उनकी संरक्षक इंदिरा के साथ सब कुछ ठीक नहीं था।
18 दिसंबर, 1998 को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में एआईसीसी के एक विशेष सत्र के संदर्भ में उन्होंने व्यंग्यात्मक रूप से कहा, ‘पूरा सत्र सोनिया वंदना था’।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद अगर एक ही परिवार के पांच सदस्य 37 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बने रहे हों तो यह आधिपत्य के सबसे बुरे स्वरूप को दर्शाता है। वह इस बात पर भी आश्चर्य करते थे कि वर्ष 1970 और 1980 के दशक में इंदिरा और बाद में सोनिया के प्रति उनके जैसे लोगों की पूर्ण वफादारी ही परिवार के हाथों में कांग्रेस को गिरवी रखने के लिए बहुत जिम्मेदार थी।
उनका यह भी कहना था, ‘क्या संघ के समर्थन के बिना भाजपा खुद को कांग्रेस के वैचारिक सांचे में बदल सकती है और अपना विस्तार कर सकती है? भारत का भविष्य दांव पर है और यह दांव बहुत बड़ा है।’