संसद का मौजूदा शीतकालीन सत्र इतिहास में एक असाधारण बैठक के रूप में याद किया जाएगा। इस सत्र में रिकॉर्ड संख्या में सदस्यों को निलंबित किया गया। बीते कुछ दिनों में दोनों सदनों से कुल 143 सदस्यों को निलंबित किया गया। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
बीते वर्षों में संसदीय बहस का स्तर लगातार गिरा है और सत्ताधारी तथा विपक्षी दलों के बीच गतिरोध का ताजा मुद्दा है संसद की सुरक्षा में सेंध, जो संयोग से उसी दिन लगी जिस दिन 2001 में संसद की पुरानी इमारत पर हुए हमलों की 22वीं बरसी थी। इस घटना में शामिल लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और संबंधित सुरक्षा एजेंसियां इस मामले की जांच कर रही हैं। विपक्ष इस विषय पर केंद्रीय गृहमंत्री के वक्तव्य और चर्चा की मांग कर रहा है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि संसद की सुरक्षा में सेंध गंभीर मसला है और यह कई प्रश्न उत्पन्न करता है। ऐसे में विपक्ष का इस मामले को उठाना सही है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में एक समाचार चैनल के साथ बातचीत में इस विषय पर बात की। इस मामले की जांच के लिए समिति का गठन किया गया है जो जांच के बाद जल्दी ही अपनी रिपोर्ट लोक सभा अध्यक्ष को सौंपेगी।
इस बारे में विपक्ष की दलील में दम है कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो उक्त वक्तव्य को सदन में पेश किया जाना चाहिए। यह परंपरा रही है। अगर केवल इतना कर दिया जाता तो गतिरोध समाप्त हो जाता और संसद अपना काम सहज रूप से कर सकती थी। रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद लोकसभा अध्यक्ष इस पर कदम उठाएंगे लेकिन इस घटना ने कुछ ऐसे व्यापक प्रश्नों को जन्म दिया है जिनका जवाब केवल सरकार ही दे सकती है।
गहन स्तर पर देखें तो यह बात ध्यान देने लायक है कि रिकॉर्ड संख्या में हो रहा निलंबन जहां सुर्खियां बटोर रहा है, वहीं वर्तमान उथल-पुथल अपनी तरह की कोई अलहदा घटना नहीं है और ऐसे अवसर भी आए हैं जब समूचे सत्र में कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। इसके अलावा मौजूदा विपक्ष इसका इकलौता दोषी नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी जो अब सत्ताधारी दल है, 2014 के पहले जब विपक्ष में थी तब उसने भी ऐसा ही किया था। उदाहरण के लिए 2012 में भारतीय जनता पार्टी के नेता दिवंगत अरुण जेटली को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि ऐसे अवसर भी आते हैं जब बाधाएं देश को अधिक लाभ पहुंचाती हैं। ऐसे में बुनियादी मुद्दा यह है कि विपक्ष को अक्सर सार्वजनिक महत्त्व के मुद्दों को संसद में उठाने के लिए उचित अवसर नहीं मिल पाता है। इसका खमियाजा पूरी संसदीय प्रक्रिया को भुगतना पड़ता है।
उदाहरण के लिए चालू वर्ष की बात करें तो पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़ों के मुताबिक लोकसभा में बजट सत्र में केवल 33 फीसदी काम हुआ। मॉनसून सत्र में यह बढ़कर 43 फीसदी हुआ।
सदन के इस प्रकार बार-बार बाधित होने का एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह है कि महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर भी पर्याप्त चर्चा नहीं हो पा रही है और उन्हें हड़बड़ी में पारित कर दिया जा रहा है। यह बात दीर्घावधि में देश को प्रभावित करेगी।
उदाहरण के लिए अगर लंबे समय से लंबित कृषि सुधार विधेयकों पर पर्याप्त चर्चा की गई होती तो एक वर्ष तक चला किसान आंदोलन टाला जा सकता था, सरकार को कानून वापस नहीं लेने पड़ते और दीर्घावधि में कृषि क्षेत्र को इसका लाभ मिलता।
लब्बोलुआब यह है कि मौजूदा भारतीय संसदीय व्यवस्था विपक्ष को समुचित अवसर नहीं देती। मौजूदा सरकार संसदीय एजेंडे को संचालित करती है। इन स्थितियों में बदलाव लाना आवश्यक है। आज सुरक्षा में सेंध की घटना घटी है, कल को कुछ और भी हो सकता है और यह उथल-पुथल लगातार जारी रहेगी।