क्या रेडियो के लिए कोई उम्मीद बाकी है? पिछले साल रेडियो ऑपरेटरों ने 2,100 करोड़ रुपये का राजस्व कमाया मगर यह समूचे मीडिया और एंटरटेनमेंट उद्योग के वर्ष 2022 में कमाए 2.1 लाख करोड़ रुपये के राजस्व का रत्ती भर भी नहीं है।
सीधी सी बात है, मीडिया प्लानर रेडियो को महत्त्वपूर्ण माध्यम के रुप में नहीं देखते हैं। वर्ष 2018 में अपने चरम काल में रेडियो ने 3,360 करोड़ रुपये का राजस्व कमाया। लेकिन 2020 में कोविड महामारी ने इसे आधे से भी कम करके 1,430 करोड़ रुपये कर दिया। उसी साल भारत के सबसे बड़े ब्रांड ने अपने नाम से रेडियो शब्द हटा दिया।
ईएनआईएल का रेडियो मिर्ची नाम मिर्ची अनलिमिटेड हो गया। सही है कि ज्यादातर ऑपरेटरों ने अपना नाम नहीं बदला है लेकिन उनमें से कई अपने राजस्व का 30 से 40 प्रतिशत डिजिटल सामग्री, इवेंट या रेडियो के सिवा अन्य तरीके से कमाते हैं। इसी एकमात्र तरीके ने उनको बचा रखा है।
यही कारण है कि जब भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने 5 सितंबर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को अपनी सिफारिशें दीं तो उनको उम्मीद की एक किरण नजर आई। इन सिफारिशों में एफएम चैनलों पर समाचारों की इजाजत देना, लाइसेंस व्यवस्था को तर्कसंगत बनाना और मोबाइल फोन में एफएम रिसीवर अनिवार्य करना शामिल है।
अगर इन पर अमल हुआ तो इनसे रेडियो को अपने श्रोताओं की संख्या दोगुनी करने, लागत घटाने और विज्ञापनों की बेहतर दर हासिल करने में मदद मिल सकती है।
अगर हम थोड़ा अतीत में देखे तो हमें यह समझने में मदद मिल जाएगी कि इन सुझावों से इतनी ज्यादा उम्मीद की क्या वजह है। वर्ष 2000 में जब रेडियो को मुक्त किया गया था तो उस समय लगभग अन्य सभी तरह का मीडिया-टीवी, प्रिंटऔर फिल्म उससे कहीं आगे पहुंच चुके थे।
दूसरों के विपरीत रेडियो की मुक्ति तो हुई मगर भारी लाइसेंस फीस के साथ। उदाहरण के लिए 2015 में तीसरे दौर के लाइसेंस के दौरान एफएम रेडियो परिचालकों को 3,100 करोड़ रुपये से अधिक लाइसेंस और माइग्रेशन फीस के रूप में भरने पड़े। यह रकम 2014 में रेडियो के कमाए राजस्व 1,720 करोड़ रुपये की करीब दोगुनी है। इससे भी बुरा यह था कि दिशानिर्देशों में लाइसेंस फीस सकल राजस्व (इसमें जीएसटी भी शामिल) की चार फीसदी या फिर किसी एक शहर के लिए ढाई प्रतिशत का एकबारगी प्रवेश शुल्क या इनमें से जो भी ज्यादा हो, तय की गई।
उदाहरण के लिए दिल्ली में सबसे ऊंची बोली 169 करोड़ रुपये की थी। लिहाजा, लाइसेंस शुल्क करीब 4.02 करोड़ रुपये बनता है, भले ही रेडियो स्टेशन अपने शुरू के कुछ सालों में कुछ भी कमाई न कर रहा हो। यह नियम प्रावधान उन कंपनियों पर भी लागू किया गया जो दूसरे चरण से तीसरे चरण में पहुंची थीं। इस तरह उन परिचालकों को एक तरह से सजा दी गई जिन्होंने उन कीमतों पर बोली नहीं लगाई थी।
ट्राई के विश्लेषण को देखें तो 182 रेडियो केंद्रों ने 4 प्रतिशत से अधिक का लाइसेंस शुल्क चुकाया जबकि 34 केंद्रों ने जो लाइसेंस फीस चुकाई, वह वर्ष 2021-22 के राजस्व का 30 प्रतिशत थी। अगर लाइसेंस शुल्क ने लागत बढ़ाई तो लाइसेंस की शर्तों ने राजस्व जुटाने की उनकी क्षमता को प्रभावित किया।
एक ही शहर में कई रेडियो स्टेशनों का मालिक होने से लेकर टावर की सह-साझेदारी की इजाजत नहीं दी गई और ना ही समाचार प्रस्तुत करने की अनुमति मिली। इस तरह से लगभग सभी शर्तों ने प्रोग्रामिंग के नवाचार को न केवल सीमित कर दिया बल्कि पहुंच और राजस्व को भी प्रभावित किया।
हालांकि इनमें से कई प्रतिबंधों को 2016 में हटाया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जियो, डेटा की गिरती कीमतें और ऑनलाइन उपभोग ने मीडिया मार्केट में अच्छा-खासा बदलाव कर दिया। रेडियो 2019 में मंदी और उसके बाद कोविड महामारी का बुरी तरह शिकार रहा।
अब ट्राई ने सिफारिश की है कि लाइसेंस फीस को एकबारगी वापस न किए जाने वाले प्रवेश शुल्क से अलग किया जाए और इसकी गणना सकल राजस्व के चार प्रतिशत पर होनी चाहिए जिसमें जीएसटी शामिल नहीं हो। अगर ऐसा होता है तो इससे रेडियो परिचालकों की लागत 10 से 40 प्रतिशत के बीच कम करने में मदद मिलेगी जो किसी परिचालक के पास मौजूद शहरों और रेडियो केंद्रों पर निर्भर करेगी।
इसके बावजूद यह तथ्य तो है ही कि रेडियो टेलीविजन के मुकाबले एक छोटा माध्यम है। रेडियो के श्रोताओं की संख्या जहां 26.20 करोड़ है वहीं टीवी की पहुंच 89.20 करोड़ लोगों तक है। यही नहीं स्ट्रीमिंग से टीवी को किसी एक महीने में 50 करोड़ यूनिक विजिटर मिलते हैं। देश में कुल 867 रेडियो केंद्र हैं। इनमें सरकार नियंत्रित आकाशवाणी के रेडियो केंद्र भी शामिल हैं और इनको कुल विज्ञापन राजस्व का महज 2 फीसदी मिलता है।
करीब दो दशक के निजीकरण और करोड़ों रुपए के पूंजी खर्च के बाद रेडियो राजस्व और पहुंच दोनों के लिहाज से अभी भी कमजोर माध्यम है। इसमें आश्चर्य नहीं जो अगले दौर की नीलामी में उन 200 से अधिक फ्रीक्वेंसी के लिए कोई बोलीदाता नहीं मिला जो तीसरे दौर के बाद बच गई थीं। यह सिर्फ डिजिटल की बात नहीं है।
अमेरिका, जिसकी आबादी 33 करोड़ है और जो सभी तरह से डिजिटल संपन्न है, में 15,000 से अधिक रेडियो केंद्र हैं और वे 22 अरब डॉलर से अधिक का राजस्व कमाते हैं। वहां यह माध्यम इसलिए फल-फूल रहा है क्योंकि उसकी बड़ी राष्ट्रीय और स्थानीय मौजूदगी है।
भारत में रेडियो की पहुंच लगभग एक ही जगह टिके होने की एक वजह यह भी है कि कई निर्माता अपनी संगीत प्रसारण सेवा या ऐप को बढ़ावा देने के लिए हैंडसेट में रेडियो रिसीवर को डिसएबल कर देते हैं।
यही कारण है कि ट्राई ने सिफारिश में कहा है कि एफएम रेडियो से जुड़े फीचर और फंक्शन सभी तरह के मोबाइल हैंडसेट में इनेबल और एक्टिवेट रहने चाहिए और स्थाई समिति इसकी निगरानी करे कि फोन निर्माताओं और आयातकों ने ऐसा किया या नहीं। इस नियमाकीय उपाय के और भी कई व्यावहारिक कारण हैं।
रेडियो की पहुंच बैंडविड्थ और बिजली पर निर्भर नहीं करती बल्कि यह रेडियो वेव से चलता है जिससे आपदाओं के दौरान यही एकमात्र माध्यम होता है जो काम करता है। इस साल अप्रैल में इलेक्ट्रॉनिक और सूचना टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने मोबाइल निर्माताओं के संगठन को इस पर जोर देते हुए एक परामर्श जारी किया है।
अगर निर्माता इस पर अमल करते हैं तो एफएम रेडियो एक अरब से अधिक मोबाइल धारकों तक पहुंच सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि श्रोताओं की संख्या बढ़कर आराम से 52 करोड़ से अधिक हो जाना।
तीसरी महत्त्वपूर्ण सिफारिश हर घंटे 10 मिनट के समाचारों के प्रसारण से जुड़ी है। इससे प्रोग्रामिंग में नई विविधता आएगी और विज्ञापनदाताओं का पूरी तरह एक नया वर्ग मिलेगा। दैनिक भास्कर और अन्य कई समाचार पत्रों का प्रकाशक डीबी ग्रुप माई एफएम के तहत 30 रेडियो केंद्रों का परिचालन करता है। सन नेटवर्क के साथ भी ऐसी ही बात है। वह भी रेड एफएम और मैजिक एफएम चलाता है। उनको अपने समाचार संकलन की क्षमताओं का फायदा मिल सकता है।
ज्यादा श्रोता होने का मतलब है अधिक राजस्व और बेहतर प्रोग्रामिंग और बड़े स्तर की आर्थिकी। रेडियो परिचालकों को इससे अधिक चाहिए भी नहीं। अब देखना है कि मंत्रालय उनको कितना उपकृत करता है और इन सिफारिशों को नीति में बदलता है या नहीं।