देश की आईटी राजधानी जल संकट जैसी वजहों से अखबारों की सुर्खियों में रही है। आईटी/आईटीईएस से जुड़े क्षेत्र के कर्मचारियों के बीच भी असंतोष पनपने के संकेत मिल रहे हैं। बता रहे हैं के पी कृष्णन
कर्नाटक राज्य आईटी /आईटीईएस कर्मचारी संघ (केआईटीयू) नाम के एक नए श्रमिक संघ ने मांग की है कि राज्य सरकार आईटी/आईटीईएस प्रतिष्ठानों को 1946 के औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम से दी गई लंबे समय से चली आ रही छूट को खत्म कर दे। कर्नाटक में आईटी और इससे जुड़ी सेवाओं के क्षेत्र में लगभग 20 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं और ऐसा लगता है कि केआईटीयू के लगभग 10,000 सदस्य हैं।
इस श्रमिक संगठन ने कहा कि छूट के चलते नियोक्ताओं ने श्रम नियमों का उल्लंघन किया जैसे कि नियोक्ता कई घंटे की लंबी कार्यावधि लागू करते हैं लेकिन वे सुरक्षा से जुड़ी शिकायतें (यौन उत्पीड़न सहित) दर्ज करने के लिए कोई बेहतर तंत्र देने में विफल रहते हैं और अनुचित तरीके से श्रमिकों की कार्यसेवा समाप्त कर देते हैं।
विचाराधीन कानून विशेषतौर पर श्रमिकों को कोई सुरक्षा नहीं देता है और इसका उद्देश्य केवल पारदर्शिता के स्तर को बढ़ाना और अन्य कानूनों में श्रमिकों को दिए गए गारंटीयुक्त अधिकार से जुड़ी समझ को सुधारना है। कर्नाटक में 50 या इससे अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को सरकार द्वारा प्रमाणित ‘स्थायी आदेशों’ में श्रमिकों को सेवाओं की शर्तों को संहिताबद्ध करने के साथ ही इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। यह वांछनीय भी है।
लेकिन यह कानून, कर्मचारियों के प्रतिनिधियों को यह मांग करने में भी सक्षम बनाता है कि नियोक्ता कानूनी आवश्यकताओं से ऊपर उठें और सेवा की इन शर्तों को छोड़ दें। कर्मचारियों से जुड़े नियमों और शर्तों में एकरूपता से जुड़े स्थायी आदेशों को अपनाने से पहले प्रतिष्ठानों को श्रमिक प्रतिनिधियों के साथ परामर्श करने के लिए मजबूर किया जाता है।
असहमति के मामले में, नियोक्ता को श्रमिक प्रतिनिधियों और सरकार के साथ त्रिपक्षीय चर्चा करनी चाहिए। इस तरह की स्थिति में नियोक्ता-कर्मचारी का संबंध फिर दो और पक्षों श्रमिक संगठनों और सरकार के साथ उलझ जाता है।
प्रमाणित स्थायी आदेशों की सामग्री को श्रमिक प्रतिनिधियों की सहमति के बिना छह महीने तक नहीं बदला जा सकता है। नियोक्ताओं को रोजगार की उन शर्तों को अपनाने के लिए कर्मचारियों के प्रतिनिधियों के भारी दबाव का सामना करना पड़ता है जो किसी भी कानून के तहत अनिवार्य नहीं हैं।
उदाहरण के तौर पर केआईटीयू ने हाल ही में कार्यावधि के बाद किसी आधिकारिक संदेश को नजरअंदाज करने के अधिकार की वकालत करने के लिए एक प्रस्ताव अपनाया है। इसके तहत ‘काम के घंटे के बाद’ सहकर्मियों और वरिष्ठों की तरफ से भेजे गए सभी आधिकारिक संदेशों को नजरअंदाज करने का अधिकार होगा और इसको लेकर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
हम उन श्रमिक प्रतिनिधियों के उद्देश्यों की सराहना कर सकते हैं जो अधिक अधिकार चाहते हैं लेकिन इसके नतीजे अर्थव्यवस्था पर देखे जा सकते हैं। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि अधिकांश क्षेत्रों में भारतीय निर्यात पर असर देखा गया है।
भारत से वस्तु निर्यात वर्ष 2012-2022 की अवधि के लिए प्रति वर्ष 1.2 प्रतिशत की चक्रवृद्धि दर से बढ़ा (यानी यह 56 वर्षों में दोगुना हो गया)। इसी अवधि में, सेवाओं का निर्यात 5.7 प्रतिशत की चक्रवृद्धि दर से बढ़ा (यानी यह प्रत्येक 12 वर्षों में दोगुना हो गया)। क्या पारंपरिक भारतीय श्रम कानून वस्तुओं के निर्यात में बाधा बना जबकि दूसरी ओर सेवा निर्यात को बढ़ने का मौका दिया गया?
भारतीय परिधान निर्माताओं को अगर भारतीय सॉफ्टवेयर निर्माताओं के समान विशेषाधिकार दिया जाए तो उनकी उपलब्धियां क्या होंगी? उदाहरण के तौर पर, काम की अवधि के बाद संपर्क में न रहने (डिस्कनेक्ट) के अधिकार पर विचार करें। भारत का आईटी/आईटीईएस क्षेत्र वैश्विक स्तर पर सभी क्षेत्रों के ग्राहकों को सेवाएं देता है जिनकी समयावधि में काफी अंतर है।
ऐसे में भारतीय आईटी/आईटीईएस कंपनियों के लिए वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मकता बनाए रखना मुश्किल होगा जब कर्मचारी अपनी काम की समय-सीमा पूरी हो जाने के बाद विदेश में अपने टीम के लोगों या ग्राहकों की कॉल लेने से इनकार करते हैं।
मौजूदा लचीले तंत्र में प्रबंधक और कामगार बीच का रास्ता खोजते हैं जो उपयुक्त हो और जहां कुछ लोग देश में रात के काम की बाधाओं को दूर करने के लिए तैयार होते हैं। इस तरह की व्यावहारिक समस्या का समाधान ‘त्रिपक्षीय प्रणाली’ से निश्चित रूप से बाधित होगा जिसमें उदाहरण के तौर पर श्रमिक संगठन और सरकार के साथ-साथ कंपनी और कर्मचारी भी जुड़े होंगे।
क्या श्रमिक संगठनों और सरकार को असहाय कामगारों को सुरक्षा देने की जरूरत है? अब कई क्षेत्रों में भारत में शिक्षित कामगारों का एक ऐसा वर्ग है जो अपने निजी हितों का खयाल रखने में सक्षम है। जब कोई कंपनी किसी कर्मचारी के साथ सही बरताव नहीं करती है तब ऐसे कर्मचारी नौकरी छोड़ने का चयन कर सकते हैं और करते हैं।
शिक्षित कर्मचारियों के पास श्रम बाजार का विकल्प है।
वेतन में कमी और बढ़ोतरी होती है जो आपूर्ति और मांग को दर्शाता है। कोई कामगार जो दफ्तर की कार्यावधि के बाद संपर्क में नहीं रहना चाहता है तो उसे ऐसी कंपनी भी मिल सकती है जो कम वेतन पर इस तरह की सहूलियत की पेशकश कर सकती है। इन निजी मोल-तोल वाली बातचीत में राज्य के दबाव और किसी श्रमिक संगठन द्वारा मध्यस्थता किए जाने की जरूरत नहीं है।
जब आईटी कंपनियों के लिए स्थायी आदेशों को समाप्त कर दिया गया था तब कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न निवारण (पीओएसएच) कानून और औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों को विशेष शर्तों के रूप में दोहराया गया। आईटी /आईटीईएस कंपनियों को यौन उत्पीड़न के मामलों और अन्य शिकायतों से निपटने के लिए समितियों का गठन करने और श्रम विभाग को बर्खास्तगी के मामलों की रिपोर्ट देने की आवश्यकता थी। नया श्रमिक संगठन केआईटीयू यह आरोप लगाता है कि कई आईटी /आईटीईएस कंपनियां इन शर्तों का पालन नहीं करती हैं।
इन शर्तों के साथ राज्य सरकार द्वारा अनुपालन की निगरानी में हुए सुधार का अपना ही फायदा है। खासतौर पर ज्यादा सार्वजनिक खुलासा होने से कामगारों को किसी कंपनी के लिए काम करने या न करने का निर्णय लेने में मदद मिल
सकती है।
इन सवालों में कर्नाटक में आईटी/आईटीईएस क्षेत्र दांव पर लगा है जो राज्य की अर्थव्यवस्था का केंद्र है। लेकिन भारत से सेवा निर्यात के लिए नीतिगत परिस्थितियां भारत के भविष्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वर्ष 2022-23 में सेवा निर्यात 325 अरब डॉलर था और यह हर दशक में दोगुना हो सकता है।
अगर राज्य सही फैसला लेता है तब आने वाले दशक में भारतीयों के पास निर्यात से 325 अरब डॉलर का राजस्व मिल सकता है। अगर भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना में देखा जाए तो ये आंकड़े काफी बड़े हैं। अगर इन क्षेत्रों पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया गया तब भारत का आर्थिक भविष्य जोखिम में होगा।
इसके अलावा हमें आखिरकार आईटी और आईटीईएस से इतर भी सोचना चाहिए। आईटी और आईटीईस में ऐसा विशेष क्या है जिसके लिए श्रम कानूनों से जुड़ी समस्या को हल किया गया लेकिन दूसरे क्षेत्रों के लिए ऐसे कदम नहीं उठाए गए।
क्या भारत में आईटी और आईटीईएस से इतर भी अन्य क्षेत्र हो सकते हैं या कोई अन्य कारोबारी सेवाएं हो सकती हैं जहां आईटी और आईटीईएस क्षेत्र जैसी ही उपलब्धियों को दोहराया जा सकता है? इस क्षेत्र को दी गई छूट एक संकेतक के तौर पर ली जानी चाहिए ताकि विनिर्माण सहित अन्य सेवाओं के लिए भी समान तरह का लचीलापन बरता जाए क्योंकि अपरिकल्पित श्रम नियमन, कंपनियों की वृद्धि और रोजगार के मौके के लिए बाधा बताए जाते हैं।
श्रम कानूनों की संरचना को तय करते वक्त कर्नाटक जैसी सरकारों को उद्योग के बजाय कर्मचारियों की एजेंसी पर ध्यान देने की जरूरत है। श्रम कानूनों की संरचना में किसी ऐसी कंपनी के लिए समान रूप से छूट दी जा सकती है जहां 85 फीसदी से अधिक कर्मचारी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई तुरंत करके आए हैं।
(लेखक पूर्व लोक सेवक और आइजैक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो हैं)