भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों राज्य में हिंदी फिल्म द केरला स्टोरी को कर मुक्त करने की घोषणा की। उससे एक दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रदेश में तनाव का हवाला देते हुए फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया था। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने पहले ही फिल्म को कर मुक्त कर दिया था।
विपुल अमृतलाल शाह द्वारा निर्मित और सुदीप्त सेन के निर्देशन वाली फिल्म में केरल की उन महिलाओं की कहानी बयां की गई हैं, जो इस्लाम में धर्मांतरण कर इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक ऐंड सीरिया (ISIS) में शामिल हो जाती हैं।
इससे पहले, फिल्म का जब ट्रेलर रिलीज हुआ था उस वक्त मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने फिल्म की जमकर आलोचना की थी। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने इसे प्रोपेगैंडा फिल्म कहा था। साथ ही उन्होंने कहा था कि इसमें दिखाए गए मुसलमानों के अलगाव को केरल में राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए संघ परिवार के प्रयासों के रूप में देखना चाहिए।
द केरला स्टोरी राजनीतिक तूफान लाने वाली उन भारतीय फिल्मों में से एक बन गई, जिसे प्रतिबंध और सेंसरशिप का सामना करना पड़ा।
फिल्म के आसपास बढ़ता राजनीतिक तूफान कुछ दिन पहले ही रिलीज हुई अन्य फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ की याद दिलाता है। उस वक्त भी कई राज्यों ने इसी तरह या तो फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था या फिर इसे कर मुक्त कर दिया था। यह इस पर निर्भर था कि किस सरकार का क्या सिद्धांत है।
राजनीतिक संवेदनशीलता का आदर नहीं करने का आरोप लगाकर भारत सरकार ने पहली बार 1958 में मृणाल सेन के ड्रामा नील आकाशेर नीचे (नीले आकाश के नीचे) पर प्रतिबंध लगाया था। फिल्म की कहानी रेशम के कपड़े बेचने वाले चीनी वांग लू और कोलकाता में अपने ग्राहकों के साथ उनकी बातचीत के इर्द-गिर्द घूमती है। मुख्य महिला चरित्र बसंती के साथ लू एक मजबूत आध्यात्मिक बंधन से जुड़ जाते हैं और भारत की आजादी की लड़ाई की पृष्ठभूमि में श्रम अधिकारों को लेकर शुरू हुए आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। चीन के राजनीतिक इतिहास और यौन उत्पीड़न को मजबूती के साथ दिखाने वाली इस फिल्म पर दो महीने का प्रतिबंध लगा दिया गया था।
लगभग 15 साल बाद, ऐसा ही एक प्रतिबंध एमएस सत्यू की फिल्म गर्म हवा पर लगाया गया था, जो बाद में भारत की ओर से 1974 के ऑस्कर में शामिल हुई थी। इस फिल्म में विभाजन के बाद भारत में हो रहे नुकसान से नायक के मुस्लिम परिवार की दुर्दशा (बलराज साहनी द्वारा अभिनीत) को दर्शाया गया था। सांप्रदायिक अशांति के डर से इसे सेंसर बोर्ड ने आठ महीने तक रोके रखा था। सरकारी अधिकारियों, कांग्रेस नेताओं और पत्रकारों के लिए बार-बार स्क्रीनिंग आयोजित करने वाले सत्यू के लगातार प्रयासों की बदौलत फिल्म को आखिरकार रिलीज किया गया।
अगला बड़ा प्रतिबंध साल 1977 में अमृत नाहटा द्वारा निर्देशित फिल्म किस्सा कुर्सी पर लगा। इसमें इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की राजनीति की आलोचना की गई थी। शबाना आजमी, उत्पल दत्त और सुरेखा सीकरी अभिनीत इस फिल्म पर आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
राजनीतिक असंतोष और भ्रष्टाचार के विषयों पर सेंसर बोर्ड के रवैये के लिए 1970 और 1980 का दशक विशेष रूप से याद किया जाता है। अर्ध सत्य, निशांत और मंडी जैसी फिल्मों को राज्य सरकारों द्वारा प्रतिबंध का सामना करना पड़ा और देश भर में भी रिलीज होने में देरी हुई। हालिया माला, साल 2017 का है जब संजय लीला भंसाली की पद्मावत को श्रीराजपूत करणी सेना की आलोचना का सामना करना पड़ा। फिर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस फिल्म को अपना समर्थन दिया। इसके बाद, उन्होंने विरोध प्रदर्शनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के रूप में बताया। यह बहस एक राजनीतिक घमासान में बदल गई जिसने दिल्ली, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को भी शामिल कर दिया।
केवल भारतीय फिल्में बल्कि हॉलीवुड की इंडियाना जोन्स और द टेंपल ऑफ डूम को भी केंद्र सरकार के विरोध के कारण अपनी शूटिंग श्रीलंका में स्थानांतरित करनी पड़ी। इसने स्टीवन स्पिलबर्ग से भारतीय संस्कृति को एक नकारात्मक तरीके से दर्शाने वाले दृश्यों को फिर से लिखने का आग्रह किया था और आदिम प्रकाश की इस फिल्म को बाद में देश में प्रतिबंधित कर दिया गया था।
द विंची कोड को भारत में रोमन कैथलिक ईसाई समुदाय के लिए अपराध का हवाला देते हुए तमिलनाडु, नगालैंड और आंध्र प्रदेश सहित सात भारतीय राज्यों में प्रतिबंधित कर दिया गया था। पुजारियों और वितरकों के साथ काफी बातचीत के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अंत में एक खंडन के साथ फिल्म को रिलीज करने का फैसला किया।