भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र (BJP Manifesto) में आर्थिक नीति से जुड़े कई मुद्दे उठाए गए हैं। कई आर्थिक विषय ऐसे हैं जिनके लिए ज्यादा समग्र दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। बता रहे हैं ए के भट्टाचार्य
आम चुनाव के पहले घोषित किए जाने वाले चुनाव घोषणापत्र राजनीतिक दलों की आकांक्षाओं, वादों और दृष्टि के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। यही कारण है कि जब सत्ताधारी दल अपना घोषणापत्र जारी करता है तो उस पर बहुत ध्यान दिया जाता है। तब तो और भी ज्यादा जब यह उम्मीद हो कि चुनाव के बाद उसकी सत्ता में वापसी होगी।
भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने सात चरणों में हो रहे 2024 के आम चुनाव के पहले अपना घोषणापत्र जारी किया और जाहिर है उसने भी बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इस आलेख में हम भाजपा के घोषणापत्र में उल्लिखित तीन अहम आर्थिक नीति संबंधी वादों का विश्लेषण करेंगे। इसका लक्ष्य है यह समझना कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो इन वादों का आने वाले पांच वर्षों में क्या असर हो सकता है।
घोषणापत्र में अर्थव्यवस्था से संबंधित बातों में निवेश बढ़ाने पर जोर दिया गया है। इसके अलावा करीब एक दर्जन से अधिक क्षेत्रों मसलन अधोसंरचना, वाहन, इलेक्ट्रिक वाहन, सेमीकंडक्टर, विमानन सेवा और कपड़ा आदि क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया गया है।
पिछले पांच वर्षों में केंद्र और राज्य के स्तर पर सरकारों के नेतृत्व में होने वाला निवेश भाजपा के शासन की पहचान रहा है। इस रणनीति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कोविड के झटके से उबरने में मदद की और निवेश पर ध्यान दिए रहने की उम्मीद की जा सकती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि घोषणापत्र में निवेश में निजी क्षेत्र की मजबूत हिस्सेदारी की अनुपस्थिति की अनदेखी की दी गई है। यह चिंता का विषय है। चूंकि खपत में इजाफा नहीं हो रहा है इसलिए जरूरत इस बात की है कि निजी क्षेत्र को निवेश बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के क्रम में जरूरी कदम उठाए जाएं। यह काम अपेक्षाकृत कम कठिनाई से हो सकता है अगर जून 2024 में सत्ता में आने वाली केंद्र सरकार लंबे समय से लंबित कारक बाजार सुधारों को प्राथमिकता दे।
इस संदर्भ में देखें तो भाजपा का घोषणापत्र क्षेत्र आधारित बाजार सुधारों की जरूरत को रेखांकित करने में नाकाम रहा है। उदाहरण के लिए औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण संबंधी कानूनों में बदलाव संबंधी सुधार और श्रम नीतियों को लचीला बनाने में कमी।
विगत चार वर्षों में सरकार द्वारा पूंजी निवेश में लगातार इजाफा देखने को मिला है जो स्वागतयोग्य है लेकिन अभी भी निजी क्षेत्र की ओर से निवेश में तेजी आना शेष है। निजी निवेश बढ़ाने का एक तरीका भूमि और श्रम कानूनों को सहज बनाना और अन्य नीतिगत बदलाव लाना भी है ताकि निवेश और कारोबारी सुगमता को सहज बनाया जा सके। भाजपा का आर्थिक घोषणापत्र नीतिगत बदलाव की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता।
इसमें दो राय नहीं कि ई-कोर्ट को मिशन की तरह बढ़ावा देने, पुराने तथा लंबित मामलों के निस्तारण की गति को तेज करने और वैकल्पिक विवाद निस्तारण के लिए सही माहौल बनाकर न्यायिक सुधारों को गति देने से निजी निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलेगी।
इसी प्रकार अधिक किफायती स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था और शिक्षा बुनियादी ढांचा भी लंबी अवधि में मददगार साबित होगा। परंतु नई सरकार को भूमि और श्रम सुधारों को लेकर क्या करना चाहिए इसे लेकर स्पष्ट संकेत दिया जाता तो बेहतर होता।
घोषणापत्र दो और सवाल उठाता है। किसानों को आय अंतरित करने की योजना पीएम किसान सम्मान निधि योजना को और मजबूत करने की बात कही गई है। यह योजना 2019 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले की गई थी। ध्यान रहे कि भाजपा का 2024 का घोषणापत्र इस योजना को मजबूत करने की बात करता है लेकिन किसान परिवारों को मिलने वाली छह हजार रुपये सालाना राशि में किसी इजाफे की बात नहीं की गई है।
फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में किसी इजाफे का वादा भी नहीं किया गया है। हालांकि घोषणापत्र इनमें समय-समय पर बढ़ोतरी करने की बात कही गई है। इसके अलावा फसल बीमा योजना को मजबूत बनाने का वादा किया गया है और साथ ही फसलों में विविधता लाने की बात कही गई है। दालों और तिलहन का रकबा बढ़ाने की बात कही गई है क्योंकि इस क्षेत्र में देश निरंतर आयात पर निर्भर है।
ये सभी वादे राजकोषीय जवाबदेही और कृषि के नजरियों से आश्वस्त करने वाले हैं लेकिन इस बात को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि इन योजनाओं को कैसे मजबूत किया जाएगा, फसलों में विविधता कैसे आएगी और दलहन-तिलहन का रकबा कैसे बढ़ाया जाएगा। इन वादों को पूरा करना आसान नहीं है। इनके क्रियान्वयन के लिए अधिक योजना बनाने की जरूरत होगी।
चिंताजनक बात है कि संसद द्वारा 2020 में पारित तीनों कृषि कानूनों से दूरी बनाई गई है। इन्हें दिल्ली के आसपास किसानों के विरोध प्रदर्शन के बाद वापस लेना पड़ा था। इन कानूनों का इरादा नेक था और इनकी मदद से ऐसी व्यवस्था बनाई जानी थी जिसें किसान अपनी उपज को कृषि उपज विपणन समितियों के दायरे के बाहर बेच सकते थे, अनुबंधित कृषि की जा सकती थी और वे अपनी उपज को अनिवार्य जिंस अधिनियम के तहत स्टॉक लिमिट से बाहर कर सकते थे।
भाजपा का घोषणापत्र इस बारे में कुछ नहीं कहता कि इन कानूनों की अनुपस्थिति में ये लक्ष्य कैसे हासिल होगा। आखिर में सत्ताधारी दल का घोषणापत्र पंचायती राज संस्थानों के लिए राजकोषीय स्वायत्तता की बात करता है ताकि उन्हें स्थायित्व मिल सके। इस वादे को पूरा करने से देश के संचालन ढांचे में सकारात्मक बदलाव आएगा।
परंतु एक बार फिर घोषणापत्र यह समझाने में विफल रहा कि पंचायती राज संस्थानों के लिए किस तरह की राजकोषीय स्वायत्तता का प्रस्ताव है।
सन 1993 से ही यानी जब तीसरे स्तर की सरकार को सांविधिक अधिकार प्रदान किए गए, सभी पांच वित्त आयोगों ने ऐसी कई अनुशंसाएं कीं ताकि शहरों और स्थानीय निकायों को संसाधनों का वितरण बढ़ाया जाए। यहां तक कि दसवें वित्त आयोग ने जिसकी स्थापना तीसरे स्तर की सरकार संबंधी कानून बनने के एक साल पहले की गई थी, उसने अनुशंसा की थी कि कुल संसाधनों का एक हिस्सा इन स्थानीय निकाय सरकारों के लिए निकाल दिया जाए।
बहरहाल, तीन अहम मुद्दे उभरते हैं। शहरी और स्थानीय निकायों को संसाधनों का आवंटन अनुशंसा से कम रहा। यह कमी 5 से 18 फीसदी तक रही। तीसरे स्तर की सरकार में अंकेक्षण और लेखा सुविधाओं की कमी चिंता का विषय रही है। इन निकायों को संस्थागत समर्थन नहीं मिल रहा है।
सबसे बुरी बात यह है कि अधिकांश राज्य राज्य वित्त आयोग गठित करने के अनिच्छुक रहे। इसके गठन का उद्देश्य है संसाधनों का सहज प्रवाह सुनिश्चित करना और ग्रामीण तथा शहरी स्थानीय निकायों को मदद मुहैया कराना। अब तक केवल पांच या छह राज्यों ने वित्त आयोग गठित किए हैं।
जाहिर है तमाम संस्थागत कमियां हैं जिन्हें हल करने की जरूरत है। तभी पंचायती राज संस्थानों को वित्तीय स्वायत्तता प्रदान की जा सकती है। अगर वादों को हकीकत में बदलने के लिए सही माहौल नहीं बनाया गया तो वे अप्रासंगिक हो जाते हैं। यह बात चुनावी वादों पर भी लागू होती है।