संपदा का एक स्थान पर केंद्रीकृत होना तथा असमानता में बढ़ोतरी होना आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकते हैं। यहां तक कि देश के मजबूत आर्थिक वृद्धि के प्रदर्शन के दौर में भी यह जारी रह सकता है।
आंकड़े बताते हैं कि महामारी के बाद की सुधार प्रक्रिया में असमानता बढ़ी है। आय के निचले स्तर पर मांग में कमजोर सुधार, मेहनताने में कमी और रोजगार के कुल हालात को देखते हुए लग रहा है कि आर्थिक सुधार असंतुलित है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, भारतीय रिजर्व बैंक तथा अन्य स्रोतों से आने वाले आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण भारत अभी भी मुश्किल दौर से जूझ रहा है जबकि कॉर्पोरेट और शहरी भारत के एक हिस्से की स्थिति बेहतर है।
उदाहरण के लिए सांख्यिकी कार्यालय का आंकड़ा दिखाता है कि जनवरी 2022 से अक्टूबर 2023 के बीच ग्रामीण खुदरा मुद्रास्फीति दर 22 में से 18 महीनों तक शहरों की तुलना में अधिक रही। निरंतर उच्च मुद्रास्फीति मोटे तौर पर खाद्य कीमतों, मॉनसून और कम उत्पादन से प्रभावित रही और यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाल सकती है तथा समग्र मांग को प्रभावित कर सकती है।
औसतन कमतोर मेहनताना और राज्यों के बीच में असमानता ग्रामीण भारत की चिंताओं में इजाफा कर रहा है। रिजर्व बैंक की हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन इंडियन स्टेट्स 2023 के अनुसार देश के कृषि श्रमिकों की औसत दैनिक आय 2022-23 में 345.7 रुपये थी। यह सालाना आधार पर सात फीसदी अधिक है। यह समग्र मुद्रास्फीति दर से थोड़ा अधिक है। मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में ग्रामीण इलाके में मेहनताना देश में सबसे कम गति से बढ़ा। ऐसा कृषि और गैर कृषि दोनों क्षेत्रों में हुआ।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था रोजगार के पर्याप्त अवसर तैयार करने में नाकाम रही है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने हाल ही में प्रकाशित भी किया था, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत रोजगार की मांग अक्टूबर के अंत तक पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 10 फीसदी बढ़ी।
एक अनुमान के मुताबिक योजना के तहत सक्रिय परिवारों को केवल 50 दिनों का रोजगार मुहैया कराने में 1.5 लाख करोड़ रुपये की राशि लगेगी जबकि बजट आवंटन केवल 60,000 करोड़ रुपये का है। रोजगार की स्थिति को स्वरोजगार में इजाफे में भी महसूस किया जा सकता है।
आय और रोजगार की स्थिति कंपनियों के नतीजों में भी नजर आ रही है। बिज़नेस स्टैंडर्ड का विश्लेषण दिखाता है कि शुद्ध बिक्री में वाहन कलपुर्जों समेत वाहन क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ी और जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान वह 10 तिमाहियों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।
इस बीच दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियों के प्रदर्शन में गिरावट आई। गैर सूचीबद्ध क्षेत्र में भी खबरों के मुताबिक वाहन तथा अन्य क्षेत्रों में महंगे ब्रांड अच्छा कारोबार कर रहे हैं। लक्जरी बाजार का प्रदर्शन भी आने वाले वर्षों में अच्छा रहने की उम्मीद है।
कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि महंगी उपभोक्ता वस्तुओं का कारोबार अच्छा नहीं होना चाहिए। वास्तव में भारत के आकार की बढ़ती अर्थव्यवस्था में तो यह अपेक्षित ही है।
बहरहाल, निराश करने वाली बात यह है कि आय और संपत्ति का वितरण केंद्रीकृत होता जा रहा है। उदाहरण के लिए महंगी कारों और महंगी अचल संपत्ति के साथ-साथ दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री भी बढ़नी चाहिए जो बड़े पैमाने पर बाजार की जरूरतों को पूरा करती हैं।
संपत्ति और आय के केंद्रीकरण की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अगर व्यापक बाजार में मांग कमजोर बनी रही तो उच्च आर्थिक वृद्धि बरकरार रखना मुश्किल बना रहेगा। निश्चित तौर पर तात्कालिक आधार पर सुधार के कई उपाय किए जा सकते हैं।
एकमात्र तरीका अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाना हो सकता है। उसे भी इस तरह इस्तेमाल करना होगा ताकि देश की बढ़ती श्रमशक्ति के लिए रोजगार तैयार किए जा सकें। बढ़ी हुई सब्सिडी और केंद्र और राज्य सरकार के स्तर पर नकदी हस्तांतरण जैसे जो कदम उठाए जा रहे हैं उनसे कोई खास मदद नहीं मिलने वाली।