डोंडिन्हो और सेलेस्ते अरांतेस को पता था कि नाम की क्या अहमियत होती है। ब्राजील के ट्रेस कोराकोस में घोर गरीबी में पलने वाले किसी शख्स के पास उसके नाम के अलावा और हो भी क्या सकता था? ट्रेस कोराकोस में तो बिजली भी डोंडिन्हो और सेलेस्ते अरांतेस का बेटा पैदा होने से कुछ हफ्ते पहले ही पहुंची थी। इसलिए उन्होंने अपने बेटे का नाम बिजली का बल्ब ईजाद करने वाले थॉमस एडिसन के नाम पर रखा। मगर थोड़े फेरबदल के साथ उन्होंने उस नन्हे से बच्चे को एडसन अरांतेस डो नासिमेंटो नाम दिया। यह बात अलग है कि वक्त गुजरने के साथ यह नाम गायब होकर पहेली बन गया, जो डेरेक ओ ब्रायन ने क्विज शो में पूछना शुरू कर दिया।
मगर पेले को पता था कि नाम कितना अहम और जरूरी होता है। इसलिए अपनी आत्मकथा और बाद में कई साक्षात्कारों में उन्होंने कबूल किया कि पेले नाम से उन्हें चिढ़ होती थी। जब भी कोई उन्हें इस नाम से पुकारता था तो उन्हें बहुत गुस्सा आता था। पेले का यह नाम उनके बचपन के दोस्तों ने रखा था और जितना वह चिढ़ते उतना ही उन्हें इस नाम से पुकारा जाता। वह तब तक चिढ़ते रहे, जब तक पूरा स्टेडियम इस नाम से नहीं गूंजने लगा। यह वह मौका था, जब किशोर पेले ने 1950 के दशक में ब्राजील की फुटबॉल को नए मुकाम पर पहुंचा दिया और पूरी दुनिया पेले को पहचानने लगी।
पेले की शोहरत भारत भी पहुंच गई थी। 1970 के दशक की चर्चित फिल्म गोलमाल में नौकरी के लिए भटक रहे अमोल पालेकर से जब उनके होने वाले बॉस उत्पल दत्त ने पेले के बारे में पूछा तो उन्होंने जान-बूझकर प्रोफेसर रेले के बारे में बताना शुरू कर दिया। खेल के दीवाने पालेकर नौकरी पाने के चक्कर में बेवकूफ होने का ढोंग कर रहे थे। मगर चंद सेकंड बाद ही पालेकर ने एक खबर का जिक्र किया, जिसमें कोलकाता आए पेले को देखने 40,000 ‘पागल’ हवाईअड्डे पर जमा हो गए थे।
गोलमाल में गलत नहीं कहा गया था। फिल्म रिलीज होने से 2 साल पहले वाकई पूरा कोलकाता पेले के बुखार से जकड़ गया था। तब पेले न्यूयॉर्क कॉस्मॉस टीम के सदस्य थे, जिसने 1977 में मोहन बागान के साथ दोस्ताना मैच खेना था। कोलकाता वाले अब भी उस मैच को फख्र के साथ याद करते हैं। 2-2 की बराबरी पर छूटे इस मैच को देखने करीब 80,000 लोग स्टेडियम में पहुंचे थे। पेले उस वक्त अपने करियर के आखिरी दौर में थे और उन्होंने केवल आधे घंटे के लिए अपने पैरों का जादू दिखाया। उन्होंने मैच में कोई गोल तो नहीं दागा मगर एक गोल कराने में अहम भूमिका निभाई थी।
फिर 2015 में वह भारत लौटे। उस दफा पेले भारतीय वायु सेना द्वारा हर साल कराए जाने वाले स्कूल स्तरीय टू्र्नामेंट ‘सुब्रत कप’ में मुख्य अतिथि थे। उस वक्त भी पेले की एक झलक देखने को हजारों जमा हो गए और पता ही नहीं चल रहा था कि प्रशंसक कौन है और मीडियाकर्मी कौन है। तब तक पीढ़ियां और खिलाड़ी बदल चुके थे। मगर जब कहा गया कि मेसी के संपूर्ण खेल, मैराडोना के मिथक, क्राइफ के करिश्मे और क्रिस्टियानो रोनाल्डो के गोल के आगे पेले पांच महानतम (GOAT) खिलाड़ियों की फेहरिस्त से बाहर न हो जाएं तो एक वरिष्ठ फुटबॉल पत्रकार ने मार्के की बात कही। उन्होंने कहा, ‘पहले कोई तीन विश्व कप जीतकर दिखाए तब बात करेंगे।’ तीन विश्व कप, जो पेले ने ब्राजील के लिए जीते। इतने विश्व कप तो केवल अर्जेंटीना ही जीत सका है मगर उसका कोई भी खिलाड़ी ऐसा नहीं है, जो तीनों मौकों पर टीम में हो। ब्राजील की टीम भी पेले के बगैर केवल दो विश्व कप जीत पाई है।
रंगीन टीवी, कार्टून नेटवर्क और मीम्स की दुनिया में पली आज की पीढ़ी के लिए पेले को खारिज करना आसान है। पेले सास्कृतिक संघर्ष से जूझते रहे, जहां एक तबका उन्हें पूजता रहा और दूसरा उनका मखौल उड़ाता रहा। क्रिस्टियानो और मेसी के प्रशंसकों ने पेले के करिश्मे पर यह कहकर सवाल खड़ा कर दिया कि उन्होंने यूरोप में ज्यादा फुटबॉल नहीं खेला। मैराडोना के चाहने वालों को विवादों से बचने की पेले की आदत हमेशा खराब लगी। मैराडोना ने भी आत्मकथा ‘अल डिएगो’ में यही कहा।
लेकिन पेले ऐसे क्यों थे? जरा उस गरीब अश्वेत बच्चे की कल्पना करें, जो ट्रेस कोराकोस में टपकती छत वाले घर में रहता था; जिसके पिता फुटबॉल से बेइंतहा मुहब्बत करते थे मगर जिसकी मां को लगता था कि इस खेल से उन्हें कभी पैसे नहीं मिल पाएंगे। पेले पहली बार जिस टीम में खेले, उसे ‘शूलेस वन्स’ कहा जाता था क्योंकि खिलाड़ियों के पास खेलने के लिए जूते तक नहीं थे। इस टीम के खिलाड़ियों ने मूंगफली बेचकर किट्स खरीदे थे और मूंगफली भी उन्होंने एक मालगाड़ी से चुराई थीं। खचाखच भरे स्टेडियम में पहली बार जब पेले ने अपना जलवा दिखाया तो सम्मोहित दर्शकों ने उन पर सिक्के उछालने शुरू कर दिए। मैच के बाद सिक्के बटोरकर पेले अपने घर ले गए और मां को दे दिए। ऐसे लड़के का पैसे के प्रति वह नजरिया कैसे हो सकता है, जो खाए-अघाए लोगों या खिलाड़ियों का होता है?
केवल विश्व कप में फुटबॉल देखने वाला दर्शक हो, प्रीमियर लीग के लिए रात को जगने वाला प्रशंसक हो या आई-लीग का दीवाना हो, सभी जानते हैं कि पेले ने कैसे इस खेल की सूरत बदल डाली। कच्ची उम्र के जिस किशोर पेले ने 1958 के विश्व कप फाइनल में गोल दागे (जिसकी बराबरी पूरे छह दशक बाद काइलियन एमबापे ही कर पाए), जिसने अपने कौशल, रफ्तार और समझ-बूझ से डिफेंडरों को हलाकान कर दिया, उस पेले को देखकर ही फुटबॉल के कर्ता-धर्ता यह समझ गए कि पूरी दुनिया में इस खेल का बाजार तैयार किया जा सकता है। आप मानें या न मानें, खेलों के मामले में पेले दुनिया के पहले अश्वेत ग्लोबल सुपरस्टार थे। आज पूरी दुनिया में फुटबॉल के इर्द-गिर्द विज्ञापनों का जो मायाजाल दिख रहा है, वह शायद केवल और केवल पेले की वजह से है।
यह भी पढ़ें: जब दिल्ली में स्कूली बच्चों के साथ फुटबॉल का मजा लिया था पेले ने
इसमें कोई शक नहीं कि मेसी, क्रिस्टियानो, एमबापे जादुई खिलाड़ी हैं। लेकिन फुटबॉल का सुपरस्टार बनने के इतने मौके भी पहले कब मिल रहे थे? आज तो मामूली प्रतिभा रखने वाले खिलाड़ी को भी विज्ञापन एजेंसियां घेर लेती हैं। प्रतिभा के पारखी, कोच, न्यूट्रीशनिस्ट, टैक्टिकल एनालिस्ट हर समय साथ रहते हैं। इसलिए ये खिलाड़ी तो आने ही थे।
मगर पेले को यह सब मयस्सर नहीं था। उनके लिए तो जिंदा रहना भी संघर्ष था। जब वह पैदा हुए तो ब्राजील के खेल रंगभेद से जूझ रहे थे। और उस दौर में भी वह खेलों के ग्लोबल सुपरस्टार बन गए। उनकी महानता की बानगी ब्राजील की एक अनोखी आदत से लगाई जा सकती है। वहां फुटबॉल खिलाड़ियों के नाम नए खिलाड़ियों को दे दिए जाते हैं। मगर समूचे ब्राजीलियन फुटबॉल में पेले नाम का कोई दूसरा खिलाड़ी नहीं हुआ। पेले एक ही थे और एक ही रहेंगे।