राज्य सभा ने बुधवार को दंड प्रक्रिया (शिनाख्त) विधेयक, 2020 को पारित कर दिया। दो दिन पहले लोकसभा ने इस विधेयक को मंजूरी दी थी। इस विधेयक की वजह से जांच अधिकारियों को दोषियों और अपराध के मामले में गिरफ्तार लोगों और बंदी बनाए गए लोगों की पहचान के लिए बायोमेट्रिक और उनके विभिन्न शारीरिक विवरणों के नमूने लेने का प्रावधान किया गया है जिसकी विपक्ष ने जनविरोधी कहते हुए आलोचना की है। हालांकि सरकार का कहना है कि इस विधेयक को दोषसिद्धि की दर बढ़ाने और कानून का पालन करने वाले नागरिकों की अधिकारों की रक्षा करने के इरादे से लाया गया है। संसद से पारित इस विधेयक में आखिर ऐसा क्या है?
नया विधेयक लाने का जरूरत क्यों पड़ी और इसके अहम पहलू क्या हैं?
सरकार के मुताबिक कानून को लागू करने की प्रणाली को आधुनिक बनाने और सजा की दर को बढ़ाने में मदद करने के लिए इस विधेयक को पेश किया गया है। यह विधेयक औपनिवेशिक कानून (कैदियों की पहचान अधिनियम, 1920) की जगह लेगा जो अपराध और कानून को लागू कराने में तकनीकी प्रगति के लिहाज से अपर्याप्त है। यह विधेयक कानून प्रवर्तन एजेंसियों को आपराधिक मामले में दोषियों और अन्य व्यक्ति की पहचान और जांच के लिए डेटा एकत्र करने और रिकॉर्ड को सुरक्षित रखने के लिए अधिकृत किया जाता है। इसके प्रावधान के मुताबिक डेटा में, हिरासत में रखे गए, गिरफ्तार किए गए या फिर दोषी ठहराए गएलोगों के बायोमेट्रिक के साथ-साथ शारीरिक और जैविक नमूने भी शामिल होंगे। इसके तहत उंगलियों के निशान, हथेली के निशान, पैरों के निशान, फोटो, आंखों की पुतली, रेटिना के माप लेने के साथ ही लिखावट के नमूने का विश्लेषण करने की कानूनी मंजूरी भी मिलेगी। दिल्ली की गैर-लाभकारी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक यह विधेयक, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों से डेटा एकत्र करने का अधिकार देता है। विधेयक के मुताबिक डेटा को डिजिटल स्वरूप में 75 सालों तक रखने की आवश्यकता होगी जबकि ऐसे मामलों में विवरणों को खत्म करने का प्रावधान भी है जहां व्यक्तियों को पहले दोषी नहीं ठहराया गया है और बिना मुकदमे के रिहा कर दिया गया है या अदालत द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया है।
यह मौजूदा कानून से किस तरह अलग है?
नए विधेयक में संग्रह किए जाने वाले डेटा के प्रकार में विस्तार किया गया है और साथ ही किन-किन व्यक्तियों से विवरण मांगा जा सकता है, उनके दायरे में भी विस्तार किया गया है। साथ ही यह बात भी तय की गई है कि डेटा कौन-कौन संग्रहित कर सकता है। 1920 के कानून के तहत जो डेटा एकत्र किया जा सकता था वह उंगलियों के निशान, पैरों के निशान और तस्वीरों तक ही सीमित था। पहले बताए गए विवरणों के अलावा, नए विधेयक में व्यवहार संबंधी विशेषताओं (हस्ताक्षर, लिखावट) और आपराधिक दंड संहिता की धारा 53 और 53 ए के तहत की जाने वाली जांच (रक्त, बाल के नमूने, वीर्य, स्वैब, डीएनए प्रोफाइलिंग जैसे विश्लेषण) में भी विस्तार किया गया है। एक और महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि पहले के कानून में पुलिस को उन लोगों से डेटा एकत्र करने की अनुमति थी जो एक वर्ष या उससे अधिक समय के लिए कठोर कारावास की सजा वाले दंडनीय अपराधों के लिए दोषी हों या गिरफ्तार किए गए हों। नया विधेयक किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए या गिरफ्तार किए गए लोगों पर लागू होता है। साथ ही यह महिलाओं तथा बच्चों के खिलाफ अपराध करने पर गिरफ्तार किए गए किसी व्यक्ति से जबरन जैविक नमूने जुटाने की अनुमति देता है। इसके अलावा अगर किसी अपराध में न्यूनतम सात साल कैद की सजा है तो उसमें भी यह विधेयक लागू होगा।
विपक्ष और वकीलों ने विधेयक की आलोचना क्यों की है?
विपक्ष और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इस बात की आशंका जताई है कि इस विधेयक से सरकार की निगरानी का दायरा बढऩे के साथ ही इससे नागरिकों की निजता और उनके मौलिक अधिकारों का हनन होगा और असहमति को दबाने की कोशिश हो सकती है। नई दिल्ली में सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर में कानूनी निदेशक और वकील प्रशांत सुगथन का कहना है कि भारत में डेटा सुरक्षा कानून के अभाव के चलते नए विधेयक में सुरक्षा उपायों का प्रावधान होना चाहिए था।
क्या विधेयक में बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के लिए कोई संदेश है?
नहीं, दरअसल विधेयक सरकारी एजेंसियों को किसी व्यक्ति से सीधे जानकारी एकत्र करने की अनुमति देता है। हालांकि विधेयक का असर किसी भी कंपनी पर नहीं पड़ेगा लेकिन डिजिटल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एक्सेस नाऊ में एशिया पैसिफिक पॉलिसी के निदेशक रमनजीत सिंह चीमा का कहना है कि सरकार के इस कदम में संदेश निहित है कि सुरक्षा उपाय करने के बजाय सरकार इस विधेयक के जरिये डेटा संग्रह करने, साझा करने और उसे रखने की प्रक्रिया को वैध बना रही है।