नई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में अंतिम वर्ष की छात्रा अनन्या विग कहती हैं, ‘रातें सबसे खराब होती हैं। कई बार, मैंने 10 मिनट में 50 अस्पतालों को फोन किया, लेकिन मुझे एक भी बेड नहीं मिल सका।’ अनन्या युवाओं के एक ऑनलाइन समुदाय में शामिल हैं, जो लोगों को अस्पताल में बेड से लेकर ऑक्सीजन सिलिंडर तक की कोविड संबंधित मदद दिलाने का प्रयास कर रहा है। वह कहती हैं कि उनके पास पीछे हटने का वक्त नहीं है और वह तकरीबन हर रोज होने वाली मौतों को झेलती हैं। अनन्या का कहना है कि जिनकी आप मदद नहीं कर पाते हैं, ये हमेशा वे ही लोग होते हैं, जो आपके साथ रहते हैं।
रोनित सधुखान भी इस बात से इत्तफाक रखते हैं। पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में रहने वाले सधुखान कहते हैं कि वह इस बात से संतुष्ट हैं कि वह इस साल जनवरी से ही चिकित्सक खोज रहे हैं। उनका कहना है ‘जब मैंने लोगों को बेड खोजने में मदद करने के लिए अस्पतालों को फोन करना शुरू किया, तो मैं पहले सप्ताह सो नहीं पाया। मुझे आवाजें सुनाई दिया करती थीं। मुझे अब भी (वे) सपने आते हैं।’ अगर वैश्विक महामारी नहीं होती, तो यह 25 वर्षीय विजुअल इफेक्ट आर्टिस्ट यथासंभव वास्तविक कंप्यूटर सिमुलेशन तैयार करने के लिए इस बात का अवलोकन करने की खातिर बाहर होता कि बादल कैसे चलते हैं और लहरें कैसे उठती हैं। हर रोज नौ घंटे अपनी नौकरी पर काम करने के बजाय, उन्हें लगता है कि क्या वह लोगों की मदद करने के लिए कुछ और कर सकते थे।
टीका लगवाने के लिए कतार में आखिर में तथा स्कूल और कॉलेज बंद होने से देश के युवाओं (15 से 25 वर्ष की आयु वाले) को अपने आसपास के लोगों की रक्षा के लिए कई कुर्बानियां देने के लिए मजबूर किया जाता है। कोविड -19 ने उनके सामने अपराधबोध, डर और चिंता का कॉकटेल परोसा है तथा यह बात वास्तव में खराब होती जा रही है। कुछ युवा हर रोज 16 घंटे से अधिक का वक्त समय अजनबियों को अस्पताल के बेड खोजने में मदद करने में बिता रहे हैं, जबकि अन्य युवाओं को एक और साल केवल ऑनलाइन लर्निंग के रूप में ही निकल जाने का डर सता रहा है। कुछ युवाओं को किसी प्रियजन या रिश्ता खाने की वजह से समझौता करना पड़ा।
उनकी जिंदगी रुक गई, कई और युवा अब किसी चिकित्सक से मिल रहे हैं। निमहांस (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु विज्ञान संस्थान) में बाल और किशोर मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर एवं प्रमुख के जॉन विजय सागर कहते हैं, ‘इस वैश्विक महामारी के बाद से मैंने आधे से अधिक युवा-वयस्कों को पहली बार मदद मांगते हुए देखा है।’ पिछले साल जब कोविड के मामले बढ़े, तो निमहांस के मनोरोग चिकित्सा विभाग को आंशिक रूप से कोविड देखभाल केंद्र में तब्दील कर दिया गया था। गंभीर अवसाद और चिंता के लक्षण वाले पहले से अधिक नवयुवकों ने इसकेआपातकालीन सेवा विभाग का दौरा करना शुरू कर दिया। अप्रैल 2020 के बाद से एक साल में सागर के विभाग ने फोन पर 3,094 परामर्श दिए और जिन्हें दवा की जरूरत थी, उन्हें व्हाट्सऐप पर ई-नुस्खे उपलब्ध किए हैं। ज्ञानेंद्र झा के मध्यम आयु वर्ग वाले कई रोगियों ने इस दूसरी लहर में वायरस के कारण दम तोड़ दिया। अब उनके पास किशोर बच्चों का इलाज चल रहा है। मध्य प्रदेश में जबलपुर के मनोचिकित्सक कहते हैं कि जब आप अपने परिवार में इस तरह का नाश देखते हैं और चारों तरफ यही नजर आता है, तो खाने के विकार और मादक द्रव्यों के सेवन जैसे प्रतिकूल चीजें पैदा हो सकती हैं और इससे चिंता हो सकती है। इन दिनों हम यही देख रहे हैं।
मुंबई स्थित क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सोनाली गुप्ता कहती हैं कि बहुत सारे युवा भी अपने घरों में अकेलापन महसूस कर रहे हैं और निजता, दोस्तों के साथ वक्त बिताने तथा रिश्ते बनाए रखने को लेकर चिंतित हैं। उनमें से एक ने बताया कि वे किस तरह अपनी कई खास चीजों को याद करते हैं, जैसे कॉलेज का पहला दिन, कॉलेज फेस्टिवल, कैंटीन का खाना और यहां तक कि किसी अच्छी लाइब्रेरी में जाना भी।
यहां तक कि सोशल मीडिया भी असलियत की भयानकता के प्रतिबिंब में तब्दील हो गया, जो कई लोगों के लिए एक परीलोक था। हर किसी की टाइमलाइन सहायता के अनुरोधों और निधन की सूचना से भरी हुई थी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली की मुख्य सलाहकार शची माथुर कहती हैं कि वह छात्रों को यह सलाह देती हैं कि जब जरूरत हो, तो कुछ समय के लिए इसे विराम दे दो … आश्वस्त रहें कि संपर्क नहीं करना अनदेखी करने के समान नहीं होता है।
भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद भी वेब या टेलीफोन पर परामर्श सत्र आयोजित करता है और छात्रों के साथ भावनात्मक स्वास्थ्य के संबंध में डिजिटल सामग्री साझा करता है। लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार यह इसलिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि भारत में 15 से 29 वर्ष की आयु वालों में आत्महत्या से मरने का जोखिम सबसे ज्यादा होता है।
हालांकि हाशिये पर रहने वालों के लिए अगर मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक पहुंचना कोविड के प्रभाव से पहले मुश्किल था, तो अब यह और भी मुश्किल ही हुआ है।
मुंबई के मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की क्वीर एफर्मेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस की पूजा नायर कहती हैं कि आर्थिक रूप से निर्भर कई युवा समलैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों को अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए लौटना पड़ा है, जहां उन्हें शादी करने के दबाव के जरिये ‘परिवर्तन’ के प्रयासों का सामना करना पड़ रहा है। वह कहती हैं कि अगर वे कॉल काटते हैं, तो मैं दोबारा कॉल नहीं करती, क्योंकि ऐसा उन्होंने अपनी सुरक्षा की चिंता में किया होगा। हम इस बात पर भी चर्चा करते हैं कि अगर कोई और कॉल का जवाब देता है, तो क्या मुझे खुद को उनके मित्र के रूप में मानना चाहिए।
जिन बच्चों की खास जरूरतें होती हैं, उन बच्चों के परिवारों के लिए भी यह कठिन समय है। जो बच्चे पहले से ही खुद को समुदाय से हाशिये पर महसूस कर रहे थे, उन्होंने स्कूलों, विशेष जरूरत वाले विभागों और चिकित्सा पर भरोसा किया। कई बच्चों के मामले में यह सब उनसे छीन लिया गया है। खास जरूरत वाले युवा भी अपने लिए उपलब्ध चिकित्सा सेवाओं को लेकर अनिश्चित हैं और कहते हैं कि उन्हें इस बात का कोई भान नहीं है कि उन्हें इंजेक्शन कैसे लगेगा, क्योंकि अधिकांश टीकाकरण केंद्र पहुंच से बाहर हैं।
