पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 60 वर्षीय माणिक मिद्दे के जीवन पर रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण जिंसों की कमी का सीधा असर पड़ रहा है। कच्चे माल की बढ़ती कीमतों की वजह से ढलाई घरों (फाउंड्री) में उत्पादन स्तर कम हो गया है जिसके चलते उनके काम के घंटे कम हुए हैं, नतीजतन उनकी मजदूरी भी घट गई है। इस क्षेत्र में सैकड़ों ढलाई घर हैं जो इस संकट की आंच झेलने के लिए मजबूर हैं।
मिद्दे ने कहा, ‘मैं एक दिन में 700 रुपये कमाता था और अब यह रकम कम होकर आधी रह गई है क्योंकि ढलाई घरों ने इनपुट लागत में वृद्धि की वजह से उत्पादन में कटौती कर दी है। यह एक मुश्किल हालात है लेकिन सभी कारखानों में एकसमान स्थिति है।’ पश्चिम बंगाल में लगभग 500 ढलाईघर और भ_ी इकाइयां हैं जिनमें से 95 प्रतिशत हावड़ा में हैं और वे इस वक्त गंभीर संकट से जूझ रही हैं।
सुजीत कुमार साहू साप्ताहिक भुगतान के आधार पर काम करते हैं। उनके वेतन में फरवरी के बाद से 28 प्रतिशत की कमी आई है। वेतन में आई इस कमी की भरपाई करने के लिए उन्हें कई इकाइयों में काम करना पड़ता है क्योंकि उनकी कंपनी अधिकांश दिनों में लगभग एक-तिहाई कार्यबल के साथ आधी ही शिफ्ट में काम करा रही है। बनारस रोड पर बड़ी तादाद में ढलाई घर हैं और यहां हर जगह कामगारों के वेतन में कमी आई है और इसका असर अन्य कारोबार पर भी पड़ रहा है।
मिसाल के तौर पर यहां पास में खाने के एक स्टॉल के मालिक ने पिछले कुछ महीने में कमाई में 20-30 प्रतिशत की गिरावट देखी है। श्रमिकों को काम करने के लिए अन्य क्षेत्रों में भेज दिया गया है और जो अब भी यहां हैं वे अपने खर्च पर कटौती कर रहे हैं। फूड स्टॉल के मालिक का कहना है, ‘अब जरूरतों को पूरा करना मुश्किल हो रहा है।’
पश्चिम बंगाल के फाउंड्री उद्योग का लगभग 95 प्रतिशत सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) हैं और वे अनुबंध के आधार पर श्रमिकों की नियुक्ति करते हैं। लेकिन यहां सिर्फ मजदूर ही घाटा नहीं सह रहे हैं बल्कि पूरे कारोबार पर ही असर दिख रहा है, मसलन फाउंड्री मालिकों से लेकर श्रमिक, सांचा डालने वाले लोग और यहां तक कि दुकानदार भी कम मार्जिन के साथ काम कर रहे हैं। इंडियन फाउंड्री एसोसिएशन (आईएफए) के उपाध्यक्ष आकाश मधोगरिया ने कहा, ‘फाउंड्री उद्योग में अभी स्थिति बेहद गंभीर है।’
कोक, कच्चे लोहे का प्रमुख कच्चा माल है जो फाउंड्री इकाइयों के लिए भी एक अहम कच्चा माल है। मधोगरिया ने कहा, ‘यूक्रेन युद्ध के बाद, कोक की कीमतें बढ़ गईं और अधिकांश इकाइयों के पास कच्चा माल खरीदने के लिए पैसा नहीं बचा है। ग्राहक मूल्य में वृद्धि का भार नहीं उठा रहे हैं।’
स्टीलमिंट के आंकड़ों से पता चलता है कि जनवरी में मेट कोक (कटक) के लिए औसत मासिक मूल्य 50,000 रुपये प्रति टन था और 12 अप्रैल तक यह 58,000 रुपये हो गया। वहीं कच्चा लोहा (स्टील ग्रेड दुर्गापुर) जनवरी में 43,000 रुपये प्रति टन और 12 अप्रैल तक 57,900 रुपये था।
आईएफए के अध्यक्ष दिनेश सेकसरिया ने कहा, ‘कच्चे माल की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि छोटी इकाइयों का अस्तित्व दांव पर लगा है। उनकी कार्यशील पूंजी अब कम पड़ गई है और खरीदार कीमतों में वृद्धि करने के लिए तैयार नहीं हैं।’ सेकसरिया के अनुमान के अनुसार लगभग 20 प्रतिशत फाउंड्री ने अपना कारोबार समेट लिया जबकि बाकी करीब 20 से 50 प्रतिशत के बीच काम कर रहे हैं।
जेकेपी मेटालिक्स के मामले को ही लें। यह मैनहोल कवर बनाती है और ब्रिटेन, अमेरिका तथा पश्चिम एशिया के देशों में आपूर्ति करती है। लेकिन यह इकाई अब 25 प्रतिशत की क्षमता के साथ काम कर रही है। जेपीके के कैलाश अग्रवाल ने कहा, ‘निर्यात ऑर्डर कम है क्योंकि दरें अधिक हैं और ग्राहक इन दरों पर खरीद के लिए तैयार नहीं हैं।’
हावड़ा ढलाई, मशीन पाट्र्स, असेंबल पाट्र्स का केंद्र है और यह भारत तथा दुनिया दोनों की जरूरतों को पूरा करता है। ईईपीसी पूर्वी क्षेत्र के उप क्षेत्रीय अध्यक्ष गिरीश माधोगरिया कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में फाउंड्री इकाइयों से हर महीने निर्यात लगभग 50,000 टन रहा है जिसकी वैल्यू 500 करोड़ रुपये प्रतिमाह है। इनपुट लागत में अभूतपूर्व वृद्धि ने हावड़ा में छोटे कारखानों को एक बड़ा झटका दिया है जो पिछले कुछ वर्षों से कई संकट से जूझ रहे थे जिनमें नोटबंदी से लेकर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का क्रियान्वयन और कोविड-19 महामारी तक शामिल है।
महामारी के आने के बाद कारोबार ठप हो गया और देश में लॉकडाउन लग गया। फाउंड्री इकाई के एक मालिक ने कहा, ‘उस वक्त कोई ऑर्डर नहीं मिल रहा था। अब ग्राहक पूछताछ कर रहे हैं लेकिन बढ़ती इनपुट लागत से उन्हें पूरा करना मुश्किल हो रहा है।’ कभी पूर्व के शेफील्ड के नाम से मशहूर यह क्षेत्र, अब सरकार से मदद की उम्मीद कर रहा है। तात्कालिक समाधान के रूप में आईएफए, कच्चा लोहा और लौह अयस्क के निर्यात पर अस्थायी रूप से रोक चाहता है।