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डीयू में ऑनलाइन प्रवेश से छोटे कारोबारियों पर संकट

कोविड महामारी के बाद से दिल्ली विश्वविद्यालय में कॉमन सीट अलोकेशन सिस्टम (सीएसएएस) के जरिये ही नामांकन हो रहे हैं।

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मोहम्मद कैफी आलम   
Last Updated- July 30, 2025 | 11:17 PM IST

जुलाई की उमस भरी दोपहर है और मनीष कुमार मलकागंज में फोटोकॉपी तथा प्रिंट की अपनी छोटी सी दुकान में खाली बैठे हैं। काउंटर सूना पड़ा है और वह मोबाइल फोन देखकर वक्त गुजार रहे हैं। जून-जुलाई के महीने कभी उन्हें सबसे ज्यादा कमाई कराते थे क्योंकि इन्हीं दोनों महीनों में दिल्ली विश्वविद्यालय में जमकर नामांकन होते थे। मगर अब ऐसा नहीं है।

कोविड महामारी के बाद से दिल्ली विश्वविद्यालय में कॉमन सीट अलोकेशन सिस्टम (सीएसएएस) के जरिये ही नामांकन हो रहे हैं, जिससे विश्वविद्यालय और दिल्ली में उसके तमाम कॉलेजों के आसपास स्टेशनरी की दुकानों से लेकर खाने-पीने की रेहड़ी लगाने वालों और रिक्शा चालकों पर आफत टूट पड़ी है। विश्वविद्यालय में 2016 से ही ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से नामांकन किया जा रहा है।

सड़क निहारते हुए मनीष कहते हैं, ‘जून और जुलाई में हमें सांस लेने की फुरसत भी नहीं होती थी। अभिभावकों और छात्रों की लंबी कतारें होती थीं, जिन्हें दाखिले के लिए फोटोकॉपी, हलफनामे, फॉर्म, फोटो आदि की जरूरत पड़ती थी। नामांकन ही हमारे लिए कारोबार था मगर अब यह खत्म हो गया है।’

दिल्ली विश्वविद्यालय में इस साल भी  नामांकन शुरू हो गए हैं, लेकिन पहले की तरह नहीं। अब इसके लिए भीड़ नहीं जुटती। सब कुछ ऑनलाइन हो जाता है। दशकों से नामांकन का मतलब था कॉलेज गेट के बाहर लंबी कतारें, बाजारों में अफरातफरी, छात्रों के अभिभावकों को एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर ले जाते रिक्शा वालों की भीड़ और फोटोकॉपी तथा फॉर्म की जबरदस्त मांग। आज सब बदल गया है और कॉलेजों के गेट के बाहर वीराना रहता है क्योंकि छात्र और अभिभावक भी समय के साथ बदल गए हैं। नामांकन की प्रक्रिया ऑफलाइन से ऑनलाइन होने का सबसे बड़ा खमियाजा छोटे व्यवसायियों को ही भुगतना पड़ा है। कुमार बताते हैं, ‘पहले के मुकाबले अब 25 फीसदी काम भी नहीं रह गया। कुछेक छात्र अपने नोट्स प्रिंट कराने आते हैं मगर अभी छुट्टियां चल रही हैं, इसलिए वे भी नहीं आ रहे हैं।’ स्टेशनरी की दुकानों के अलावा खाने-पीने की दुकानों, जूस के स्टॉल और रिक्शाचालकों की आमदनी भी घट गई है। पहले दिल्ली वाले ही नहीं बाहर से अपने बच्चों को दाखिला दिलाने आए लोग भी इनकी दुकानों पर भरे रहते थे और जमकर कमाई कराते थे। लेकिन छात्रों से अटे रहने वाले बाजार अब सूने हो गए हैं और हॉस्टलों में रहने वाले चंद छात्र ही इनकी गलियों से गुजरते हैं।

ऐसी गरमी में प्यास बुझाने के लिए लोग जूस की दुकानों और शिकंजी के ठेलों पर कतार लगाए खड़े रहते थे। हंसराज कॉलेज के पास जूस की दुकान चलाने वाले राजेंद्र बताते हैं, ‘पूरे दिन यहां जमावड़ा लगा रहता था। अभिभावक, छात्र और बाकी सबको जूस, शेक, कोल्ड ड्रिंक और पानी चाहिए था। उन दिनों मेरी बिक्री दोगुनी हो जाती थी।’ मगर अब नामांकन ऑफलाइन नहीं रह गया, इललिए पिछले कुछ साल से कॉलेज परिसर भी वीरान होते जा रहे हैं। लॉ फैकल्टी के बाहर मनचंदा कैंटीन के मालिक विनय कहते हैं, ‘जब से ऑनलाइन एडमिशन शुरू हुए हैं मेरा कारोबार 40 फीसदी घट गया है।’ अपनी दुकान पर खड़े इकलौते ग्राहक के लिए मैगी बनाते हुए उन्होंने कहा कि पहले बहुत भीड़ रहती थी तो कमाई भी जमकर होती थी।

नॉर्थ कैंपस के कॉलेजों के बाहर रिक्शा चलाने वाले सालों तक प्रवेश के लिए आने वाले छात्रों और उनके अभिभावकों को कभी कॉलेज, कभी बैंक और कभी हॉस्टल पहुंचाकर काफी कमा लेते थे। विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन के बाहर ई-रिक्शा लेकर खड़े अनिल ने कहा, ‘पहले बिहार और उत्तर प्रदेश से आने वाला एक-एक अभिभावक कम से कमस चार-पांच कॉलेज जाता था। अब सब घर बैठे मोबाइल फोन पर ही सब कुछ कर लेते हैं।’ अनिल याद करते हैं कि कैसे पहले मेट्रो स्टेशनों के बाहर लोगों की भीड़ रिक्शे ढूंढती रहती थी। अनिल पहले साइकल रिक्शा चलाते थे और अब ई-रिक्शा चला रहे हैं। सवारियों का इंतजार कर रहे रिक्शा वालों की तरफ इशारा करते हुए वह कहते हैं, ‘एडमिशन के समय सबसे ज्यादा कमाई होती थी और हम बिल्कुल भी खाली नहीं रहते थे। अब तो पैसैंजर से ज्यादा रिक्शा वाले हैं।’

ऑनलाइन प्रवेश का बड़ा असर कमला नगर, विजय नगर, हडसन लेन और मुखर्जी नगर में किराये पर मिलने वाले फ्लैटों और पेइंग गेस्टहाउस (पीजी) पर भी पड़ा है। प्रवेश के लिए दिल्ली आने वाले छात्र अपने अभिभावकों के साथ ठौर-ठिकाने के लिए पीजी तलाशते थे। कमला नगर में पीजी दिलाने वाले ब्रोकर राजेश पटेल बताते हैं, ‘पहले छात्र और उनके अभिभावक कॉलेज से लौटते ही पीजी देखने आते थे। कमरे देखते थे, खाने-पीने, बाथरूम और किराये के बारे में पूछते थे। पहले जून से ही पीजी में सीटें बुक होने लगती थीं मगर अब ऐसा नहीं है। अब सितंबर और कभी-कभी अक्टूबर में जाकर पीजी पूरी तरह भर पाता है।’ राजेश ने बताया कि अब लोग रहने, खाने-पीने के बारे में वीडियो कॉल आदि पर ही पूछ लेते हैं मगर ऑनलाइन भुगतान में हिचकते हैं। उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘अब फोन पर ही बात हो जाती है। वे व्हाट्सऐप पर फोटो और वीडियो मांगते हैं मगर ऑनलाइन बुकिंग बहुत कम लोग करते हैं क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं होता या ऑनलाइन ठगी का डर रहता है।’

First Published : July 30, 2025 | 10:46 PM IST