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मंडियों का ओडिशा विकल्प

Last Updated- December 13, 2022 | 9:32 AM IST

देश के कई हिस्सों में किसान तीन नए कृषि कानूनों का जमकर विरोध कर रहे हैं और उनकी आम शिकायत यह है कि जैसे-जैसे इन कानूनों पर अमल होना शुरू होगा, वैसे ही धीरे-धीरे मंडियां खत्म हो जाएंगी जिसका सीधा असर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आधारित फसल खरीद प्रणाली पर पड़ेगा।
लेकिन इस बात के पर्याप्त उदाहरण हैं कि पिछले कुछ वर्षों में जिन राज्यों के पास कोई बेहतर फसल खरीद प्रणाली नहीं थी वे पिछले कुछ सालों में अपनी खरीद को बढ़ावा देने में कैसे कामयाब रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक मजबूत मंडी प्रणाली एक बेहतर खरीद प्रक्रिया की आधारशिला है जैसा कि पंजाब और हरियाणा ने कई सालों में इस बात को दिखाया है। लेकिन वहां अन्य विकल्प भी हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों ने यह दिखाया है कि मंडियों के नेटवर्क के अपने फायदे हैं और यह हमेशा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही बेहतर खरीद के लिए जरूरी नहीं है।
विकेंद्रीकृत प्रणाली में राज्य सरकारें, धान या चावल और गेहूं की सीधी खरीद करती हैं और खाद्य सुरक्षा अधिनियम और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत खाद्यान्न का भंडार तैयार करने के साथ ही उसका वितरण भी करती है। राज्य द्वारा इस खरीद पर किए गए खर्च को केंद्र पूरा करता है।
यह खाद्यान्न की गुणवत्ता पर भी नजर रखता है और प्रबंध की समीक्षा करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि खरीद कार्य सुचारु रूप से किया जा रहा है। अशोक विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर मेखला कृष्णमूर्ति ने 2012 में ‘इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में कहा था कि मंडियों के जरिये राज्य एजेंसियों और विपणन समितियों के माध्यम से खरीद करके वर्षों से गेहूं और धान खरीद क्षेत्र में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रमुख क्षेत्रीय खिलाड़ी के रूप में उभरे। इससे एक ओर किसानों के लिए ऊंची दरें सुनिश्चित हुईं और दूसरी ओर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की कीमतें कम हो गईं।
ओडिशा इस बात की मिसाल है कि पारंपरिक मंडियों, बिचौलियों और कमीशन एजेंटों के जटिल चक्र पर निर्भर रहे बिना खरीद में निरंतर वृद्धि को एक केंद्रीकृत आधार पर कैसे कायम रखा जा सकता है। खरीद के लिए प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पैक्स) और अन्य को कमीशन का भुगतान किया जाता है । कई विशेषज्ञों का कहना है कि ओडिशा की धान खरीद स्वचालन प्रणाली (पीपीएएस) एक ऐसा मॉडल है जो यह दर्शाता है कि बिचौलियों के हस्तक्षेप के बिना विकेंद्रीकृत खरीद को पारदर्शी तरीके से कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है। महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के नेटवर्क के साथ-साथ 314 ब्लॉकों में फैले लगभग 2,606 पैक्स राज्य में थोक स्तर पर धान खरीद करते हैं। करीब 680 मार्केट यार्ड या संग्रह केंद्र भी इसमें शामिल हैं।
आंकड़े दर्शाते हैं कि 2019-20 खरीफ  और रबी के मौसम में राज्य एजेंसियों द्वारा खरीदे गए धान में स्वयं सहायता समूहों की हिस्सेदारी करीब 3 प्रतिशत तक है और पैक्स ने बाकी खरीद की सुविधा प्रदान की। इस प्रक्रिया की अहम बात यह है कि किसान पंजीकरण की एक स्वचालित प्रणाली है जिसका जमीन के रिकॉर्ड से मिलान किया जाता है और फिर क्षेत्र की औसत उपज के साथ गुणा किया जाता है ताकि अधिशेष धान की मात्रा का उचित अंदाजा मिल सके जिसे हरेक किसान राज्य एजेंसी को बेच सकता है। इस बिक्री प्रक्रिया का निरीक्षण राज्य नागरिक आपूर्ति निगम के अधिकारियों द्वारा निर्धारित समय पर किया जाता है जो यह भी सुनिश्चित करते हैं कि मिल मालिक उनकी मौजूदगी में ही धान लें।
पहले पैक्स किसानों को एमएसपी भुगतान करने के लिए सहकारी बैंकों से ऋण लेते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह सुनिश्चित किया गया है कि किसानों को अपना भुगतान पाने के लिए सहकारी समितियों पर निर्भर न होना पड़े। जैसे ही मिल मालिक धान लेते हैं भुगतान प्रक्रिया एक केंद्रीकृत डेटा-बेस में शुरू हो जाती है और एमएसपी एक निश्चित अवधि के भीतर किसान के बैंक खाते में जमा हो जाता है। इस प्रणाली को संचालित करने वाली एजेंसी सीएसएम टेक्नोलॉजीज में सहायक उपाध्यक्ष (सॉल्यूशंस) प्रद्युत दास ने कहा, ‘यह विकेंद्रीकृत खरीद लेकिन केंद्रीकृत भुगतान विधि की प्रक्रिया है।’
उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में साझा फसल उगाने वाले और जिन लोगों ने किसी और को अपनी जमीन की देखभाल के लिए अधिकृत किया है वे इसी तंत्र के जरिये अपना धान बेच सकते हैं। साझा फसल उगाने वालों के मामले में उन्हें जमीन के मालिक से ‘एक सहमति पत्र’ की आवश्यकता होती है ताकि किसी व्यक्ति को नामांकित किया जाए और इसके लिए नामांकन पत्र की जरूरत होती है।
दास ने कहा कि जब 2012-13 में यह प्रणाली शुरू की गई थी तब लगभग 70,000 किसानों ने पंजीकरण कराया था और अब यह संख्या अब बढ़कर 14.7 लाख से अधिक हो गई है।
दास ने कहा, ‘जिन लोगों ने पंजीकरण कराया है और जिन लोगों ने वास्तव में अपना धान बेचा है, उनका प्रतिशत वर्षों से बढ़ रहा है क्योंकि किसान इस प्रणाली को अहम समझते हैं और इसकी पारदर्शिता की सराहना करते हैं। साल 2005-06 में ओडिशा ने लगभग 32 लाख टन धान की खरीद की और यह 2018-19 तक बढ़कर 65 लाख टन हो गया। लेकिन हर प्रणाली की अपनी खामियां हैं।’
पीपीएएस पिछले कुछ वर्षों में आलोचना के घेरे में आया है। पश्चिमी ओडिशा के कई किसानों ने इस बात को लेकर आलोचना की है कि फसल निर्धारण की केंद्रीकृत प्रणाली के कारण उत्पादन में वृद्धि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है  जिससे उनके पास बिना बिके धान का एक बड़ा भंडार बचा रह जाता है। ओडिशा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति सुरेंद्र्रनाथ पशुपालक ने कहा, ‘पिछले कुछ वर्षों में ओडिशा में अच्छी बारिश के कारण धान का अच्छा उत्पादन हुआ है जिससे सिंचित और असिंचित क्षेत्रों में औसत उपज के बीच का अंतर कम हुआ है। लेकिन खरीद केलिए औसत उपज तय नहीं की गई है। उन्होंने कहा कि मार्केटिंग करने लायक अतिरिक्त फसल का आकलन करने के लिए औसत उपज निर्धारण बदलने की जरूरत है।’
किसान नेता सरोज मोहंती का मानना है कि ओडिशा के खरीद मॉडल की तुलना पंजाब और हरियाणा से नहीं की जा सकती क्योंकि राज्य में कभी भी मजबूत मंडी तंत्र नहीं था। मोहंती ने कहा, ‘ओडिशा में, मंडियों में उचित बुनियादी ढांचा नहीं है और बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। उनकी संख्या भी कम है। इसके अलावा, पैक्स बाजार यार्ड से खरीद करते हैं लेकिन फर्क सिर्फ  इतना है कि इसमें कोई कर और आढ़तिया नहीं है।’

First Published - December 16, 2020 | 10:54 PM IST

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