निवेश बैंकिंग का जाना-माना चेहरा और मोलिस इंडिया की मुख्य कार्याधिकारी मनीषा गिरोत्रा एक सहयोगी को याद करती हैं, जो इसलिए इस्तीफा देना चाहती थीं क्योंकि उन्हें दूसरे राज्य में अपने माता-पिता की सेहत का ख्याल रखने की जरूरत थी। एक शानदार करियर को पूरी तरह छोडऩे के बजाय उन्हें शुक्रवार को घर से काम करने की रियायत दी गई, जो महामारी से पहले एक असामान्य चीज थी। इससे वह नौकरी छोड़े बिना अपने माता-पिता को डॉक्टर को दिखा सकती थीं और स्वास्थ्य से संबंधित अन्य जरूरतों का ध्यान रख सकती थीं। वह सोमवार को शहर के कार्यालय में लौट आती थीं।
गिरोत्रा ने कहा कि महिला कार्याधिकारियों पर बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं। ऐसे में अगर संगठन पर्याप्त संवेदना के साथ उन्हें इस तरह की रियायत दें तो उनके आगे बढऩे की बहुत संभावनाएं हैं। असल में हाल के वर्षों में रुझान मेंं बदलाव और नियामकीय दखल से बोर्ड स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार के संकेत दिखते हैं।
कंपनी ट्रैकर प्राइमइन्फोबेस डॉट कॉम द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि 4 मार्च, 2021 को 4,505 निदेशकों में 764 महिलाएं थीं। यह आंकड़ा मार्च 2020 में 755 की तुलना में थोड़ा अधिक है। इस स्तर पर कम से कम मार्च 2013 में समाप्त वित्त वर्ष से हर साल सुधार आ रहा है। फिर भी ताजा आंकड़ा कुल बोर्ड पदों का महज 16.96 फीसदी है। विशेषज्ञों के मुताबिक इसमें बोर्ड में महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए नियामकीय दखल की अहम भूमिका है। कुल महिला निदेशकों में से करीब एक-तिहाई स्वतंत्र नहीं हैं। इसमें हाल के वर्षों में सुधार आया है। आठ साल पहले आधी से भी कम स्वतंत्र थीं।
वित्त वर्ष 2013 में बोर्ड की 4,629 सीटों में से 5.38 फीसदी या 249 पर महिला काबिज थीं। कंपनी अधिनियम, 2013 के साथ अनिवार्य प्रतिनिधित्व का नियम लागू किया गया। इसके बाद भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों के लिए कम से कम एक स्वतंत्र महिला निदेशक रखना अनिवार्य कर दिया। इस नियम को अप्रैल 2020 तक 1,000 शीर्ष कंपनियों पर लागू कर दिया गया।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक महिला के प्रत्येक एक पद के मुकाबले पुरुषों के पास स्वतंत्र निदेशक के तीन पद हैं। यह मार्च 2013 के मुकाबले काफी सुुधार है। उस समय महिला के प्रत्येक एक पद के मुकाबले पुरुषों के पास 18.7 पद थे। स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक में क्लस्टर मुख्य कार्याधिकारी, भारत एवं दक्षिण एशिया बाजार (बांग्लादेश, श्रीलंका एवं नेपाल) जरीन दारुवाला ने कहा कि हाल के सुधारों के बावजूद पुरुषों का दबदबा बना हुआ है। दारुवाला ने कहा, ‘हमें यह स्वीकार करना होगा कि सांस्कृतिक परंपराओं से बाहर महिलाओं को स्वीकार करने में कल्पित पूर्वग्रह है। एक पुरुष सहकर्मी को खींचकर काम लेने वाला माना जा सकता है, लेकिन इसी तरह की कार्यशैली वाली महिला को सहानुभूति एवं समावेशी गुणों से विहीन करार दिया जा सकता है।’ कुछ उद्योगों में किस तरह के लोग सफल होंगे, इस बारे में मौजूदा रूढिय़ां महिलाओं को करियर के चुनाव के समय ही बाहर कर देती हैं।
दारुवाला ने कहा, ‘कुछ निश्चित भूमिकाओं एवं उद्योगों, उदाहरण के लिए विनिर्माण में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अत्यधिक कम है। इसकी वजह सांस्कृतिक दकियानूसी है, जो महिलाओं के शिक्षा एवं करियर को चुनने पर असर डालती है।’
कंपनी किस तरह की है, इस आधार पर भी प्रतिनिधित्व में अंतर होता है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में प्रतिनिधित्व सबसे कम है, जिनमें निदेशकों के कुल पदों में से केवल 10.5 फीसदी पर महिला काबिज हैं। आम जनता की हिस्सेदारी और बिना प्रवर्तकों वाली कंपनियों में 16.1 फीसदी महिला निदेशक हैं। इस मामले में 17.8 फीसदी हिस्सेदारी के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियां सबसे ऊपर हैं।
मुरुगप्पा समूह के कार्यकारी चेयरमैन दिवंगत एमवी मुरुगप्पन की बेटी और एमवीएम हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) की कर्ता (या सबसे वरिष्ठ सदस्य) वल्ली अरुणाचलम ने कहा कि स्टार्टअप और वित्तीय तकनीक (फिनटेक) जैसे नए क्षेत्रों में महिलाओं के ऊपर पहुंचने में मदद एवं सलाह अहम है। वह समूह होल्डिंग कंपनी अंबाडी इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड (एआईएल) के बोर्ड में प्रतिनिधित्व को लेकर विवाद में काफी मुखर रही हैं।
वल्ली अरुणाचलम ने कहा, ‘कुछ परिवार परिचालित कारोबार भी पुरानी परंपराओं को नहीं बदलना चाहते, जबकि वे मौजूदा वास्तविकता, पुरुषों के दंभ और बेटियों के बेटों के बराबर न होने की धारणा से मेल नहीं खाती हैं। अगर क्षमता एवं काबिलियत ही बोर्ड में प्रवेश के लिए पात्रता है तो किसी भी बोर्डरूम में बंदिश लगाने की कोई जरूरत नहीं है।’
मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर की प्रवर्तक और प्रबंध निदेशक अमीरा शाह ने कहा, ‘मैं यह कहूंगी कि कंपनियां दो हिस्सों में िवभाजित हैं। पहली, काम करने के पुराने तरीके पर आधारित हैं, जहां परिवार बाहरी विचारों को ग्रहण नहीं करना चाहते हैं और उन्हें लेकर संशयी हैं। वहीं अन्य कंपनियां ठीक से परिचालन पर ध्यान देती हैं। कुछ कंपनियां यह महसूस करती हैं कि मूल्य अच्छे परिचालन से आते हैं।’ महिला निदेशक जो मूल्य लेकर आती हैं, उन्हें लेकर कोई विवाद नहीं है।
पीरामल एंटरप्राइजेज की वाइस-चेयरपर्सन स्वाति पीरामल ने कहा, ‘महिला निदेशक ज्यादा सीखने का कदम उठाती हैं। वे बोर्ड में विविधता और सोच के नए तरीके लेकर आती हैं…महिलाओं को यह कोशिश करनी चाहिए कि उनकी आवाज सुनी जाए।’
स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक की जरीन दारुवाला रेटिंग एजेंसी समूह एसऐंडपी ग्लोबल के अध्ययन का हवाला देती हैं। इसमें कहा गया था कि जिन कंपनियों में महिला मुख्य कार्याधिकारी या मुख्य वित्त अधिकारी हैं, उनका शेयर की कीमतों के स्तर पर प्रदर्शन बाजार के औसत से बेहतर रहा। इस अध्ययन में कहा गया कि जिन कंपनियों में महिला सीईओ हैं, उनमें ऐसी किसी नियुक्ति के बाद 24 महीनों में शेयर की कीमत में 20 फीसदी बढ़ोतरी हुई। जिन कंपनियों में महिला सीएफओ थी, उनमें लाभ छह फीसदी और शेयर प्रतिफल आठ फीसदी अधिक रहा। अध्ययन के मुताबिक कंपनियों के बोर्डों मेंं ज्यादा लैंगिक विविधता से मुनाफे में बढ़ोतरी हुई और कम विविधता वाली कंपनियों की तुलना में आकार बढ़ा।
आंकड़ों से पता चलता है कि जिन 494 कंपनियों पर अध्ययन किया गया, उनमें 48 के बोर्ड में अब भी कोई स्वतंत्र महिला निदेशक नहीं है। ओमिडयार नेटवर्क इंडिया में प्रबंध साझेदार रूपा कुडवा ने कहा, ‘महिलाओं के लिए एक अन्य चुनौती यह है कि उनका अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में छोटा नेटवर्क होता है, जो उनके शीर्ष भूमिकाएं- बोर्ड में पद पाने की क्षमता को प्रभावित करता है। इस समस्या का एक पहलू यह है कि महिलाएं अब भी बोर्ड में सीट मांगने से हिचकती हैं।’
उन्होंने कहा कि महिलाओं को अपनी महिला सहकर्मियों को आगे बढ़ाने में मदद देकर रोल मॉडल बनने से आगे भी सक्रिय होने की जरूरत है। कुडवा ने कहा कि अहम मुद्दों पर महिला कर्मचारियों के छोटे समूहों का पक्ष सुने जाने जैसी पहल अहम हो सकती हैं।
सिप्ला में एक्जीक्यूटिव वाइस-चेयरपर्सन समीना हामिद ने कहा, ‘संगठनों को केवल संख्या के लिहाज से ही महिला प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ाना चाहिए बल्कि उन्हें महिला अगुआओं को सशक्त करना चाहिए। संगठन में सभी स्तरों पर प्रतिभाओं को पोषित करना और उन्हें भविष्य में अगुआ बनने के लिए तैयार करना अहम है।’
नायिका ई-रिटेल की संस्थापक और मुख्य कार्याधिकारी फाल्गुनी नायर ने सुझाव दिया कि महिलाओं को सफल करियर तब मिलता है, जब आजादी के लिए उनकी महत्त्वाकांक्षा और आकांक्षा एक ऐसे संगठन से जुड़ती है, जो समान अवसर पैदा करता है। इसमें सपोर्ट सिस्टम भी मायने रखता है। नायर अमेरिका में रहने के दौरान स्कूल कार्यक्रम और स्कूल कैंप के बाद बच्चों को रखने के लिए क्रेच को याद करती हैं। भारत में परिवार की मदद और क्रेच सुविधाएं मददगार बन सकती हैं। देश में निजी क्षेत्र में भी क्रेच सुविधाएं आ रही हैं।
फाल्गुनी नायर ने कहा, ‘परिवार के सदस्यो, उदाहरण के लिए पति को काम का बोझ साझा करना चाहिए। समुदायिक सेवाएं न होने की स्थिति में परिजनों को आगे आना चाहिए।’
गिरोत्रा ने कहा, ‘अपना संगठन ठीक से चुनें। वे प्रगतिशील विचारों को लेकर खुले होने चाहिए… मैं मध्य स्तर की महिला कार्याधिकारियों को सक्रियता से रोल मॉडल खोजने को प्रोत्साहित करती हूं।’
(सोहिनी दास, विवेट सुजन पिंटो, टीई नरसिम्हन, अभिजित लेले और सचिन पी मामबटा)