दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में एक गंभीर चिकित्सा विशेषज्ञ चार घंटे की ड्यूटी के बाद कोविड इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) से बाहर आता है। सुरक्षा नियमों के मुताबिक चिकित्साकर्मियों के अपने व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण या पीपीई पहनने और उतारने के स्थान अलग-अलग होने चाहिए ताकि उपयोग किए हुए पीपीई से संक्रमण के प्रसार की आशंका कम से कम हो। हालांकि उस अस्पताल में दोनों ही कार्यों के लिए एक ही स्थान है। वह थका डॉक्टर अपना पीपीई हटाता है, अपने कपड़े उतारता है और उन्हें धोता है और ऑटोक्लेव में स्टरलाइज किए जाने से पहले सुखाता है।
करीब 1,000 किलोमीटर दूर बिहार में एक अन्य डॉक्टर ऐसी ही पीपीई किट पहनकर आठ घंटे काम करता है। किट पहने होने के समय वह न शौचालय जा सकता है और ही कुछ खा सकता है। मानक नियम यह हैं कि छह घंटे से अधिक पीपीई नहीं पहनी जानी चाहिए। लेकिन इसे उनकी खुशकिस्मती कहिए कि उनके पास कम से कम सुरक्षा साजो-सामान है क्योंकि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का कहना है कि ग्रामीण बिहार में डॉक्टर रोजाना मास्क से थोड़ी अधिक सुरक्षा के साथ काम करते हैं। राज्य में अब तक 23 डॉक्टरों की मृत्यु हो चुकी है।
वर्ष 2020 समाप्त होने जा रहा है। ऐसे में बहुत कम लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि अग्रिम पंक्ति के थके हुए डॉक्टर बिना उचित प्रशासनिक सहयोग के कब तक कोविड के खिलाफ लड़ाई जारी रख सकते हैं? देेश में चिकित्साकर्मी तनाव महसूस कर रहे हैं। कोविड के मामले बढ़ रहे हैं, जिससे डॉक्टर मरीजों के संपर्क में लंबे समय रहने के कारण खुद को संक्रमण के अधिक जोखिम में पा रहे हैं। फिर भी निजी अस्पतालों से इतर सरकारी अस्पताल अग्रिम पंक्ति के डॉक्टरों को अतिरिक्त भुगतान नहीं कर रहे हैं। जिन डॉक्टरों ने महामारी के दौरान अपनी जान गंवा दी, ऐसे बहुत से डॉक्टरों के परिवारों को मुआवजे के लिए चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के मानद महासचिव आर वी अशोकन ने कहा, ‘हर कोई चाहता है कि डॉक्टर महामारी से अग्रिम पंक्ति में लड़ें, लेकिन जब वे बीमार पड़ जाते हैं या मर जाते हैं तो भी सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है।’
आईएमए के रिकॉर्ड के मुताबिक अब तक 2,730 डॉक्टर कोविड-19 से संक्रमित हो चुके हैं और 674 जान गंवा चुके हैं। अशोकन कहते हैं, ‘भारत में कोविड मामलों में मृत्युु दर करीब 1.82 है। लेकिन यह डॉक्टरों में 7-8 फीसदी है। यह दर उन निजी प्रैक्ट्सिनर्स के मामले में तो 15 से 16 तक है, जो छोटे क्लिनिक चलाते हैं और आम तौर पर मरीजों को संक्रमण की शुरुआती अवस्था में देखते हैं।’ इसके बावजूद देश भर में सुरक्षा नियमों को नजरंदाज किया जा रहा है।
इन उदाहरणों पर गौर करें। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में एक दिसंबर को राष्ट्रीय एड्स दिवस के कार्यक्रम में शामिल डॉक्टरों ने भीड़भाड़ वाले कार्यक्रम के कारण केवल तस्वीरें खिचाने के लिए मास्क पहने। एक डॉक्टर और जन स्वास्थ्य अभियान के बिहार में संयोजक शकील ने बताया कि राज्य में केवल वही डॉक्टर पीपीई किट पहनते हैं, जो कोविड के पुष्ट मामलों को देखते हैं। वह कहते हैं, ‘ओपीडी डॉक्टर केवल मास्क और दस्तानों से काम चलाते हैं, जबकि उनके ही संक्रमित मरीजों के संपर्क में आने की ज्यादा आशंका होती है।’
दिल्ली में स्थिति बेहतर है, मगर मामूली। दिल्ली के मणिपाल हॉस्पिटल में एक डॉक्टर हरजीत भट्टी ने कहा, ‘महामारी की शुरुआत से पहले पीपीई की गुणवत्ता को लेकर काफी जागरूकता थी।’ उन्होंने कहा, ‘आज जब विभिन्न शारीरिक आकार वाले डॉक्टर एक ही नाप के मास्क और पीपीई पहनते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं जताता है।’
केरल के अलावा कुछ राज्यों में एक गोपनीय हेल्पलाइन है जिससे डॉक्टर संपर्क कर सकते हैं। कुछ को अप्रत्याशित रूप से आघात पहुंचा है। अगस्त में कर्नाटक के मैसूरु जिले में एक डॉक्टर नागेंद्र एस आर ने अपने परिवार से दूर तीन महीने तक बिना अवकाश लिए काम करने के बाद आत्महत्या कर ली। जांच के लक्ष्य में इजाफे के संबंध में अपने वरिष्ठों के साथ बहस कथित रूप से मामला बढऩे की शुरुआत साबित हुई। दिल्ली के हिंदू राव अस्पताल के रेजिडेंट डॉक्टरों की एसोसिएशन के महासचिव सिद्धार्थ तारा ने कहा कि उन्होंने कई सहयोगी डॉक्टरों में विकट मानसिक स्थिति देखी है। उनके अस्पताल की मनोविकार संबंधी उन सुविधाओं के अलावा जिसका वे अनाधिकारिक रूप से उपयोग कर सकते हैं, कम से कम दिल्ली में डॉक्टरों के पास कोई मानसिक-सामाजिक सहायता उपलब्ध नहीं है।
हिंदू राव के डॉक्टरों को एक और खास मसले से जूझना पड़ा है-वेतन का भुगतान न होना। अक्टूबर में अस्पताल के डॉक्टर तीन महीने के वेतन का भुगतान न होने से हड़ताल पर चले गए थे। आखिर में उन्हें उनके बकाये का भुगतान तो किया गया, लेकिन उनका कहना है कि उसके बाद से उन्हें उनका वेतन नहीं मिला है। तारा कहते हैं कि कल्पना कीजिए कि जब मीडिया ने हमें कोरोना योद्धा कहा, तो हमें कैसा लगा होगा। हमने अपनी मुश्किल के प्रति लोगों को संवेदनशील करने के लिए सोशल मीडिया पर अनपेड कोरोना वारियर्स हैशटैग अभियान शुरू किया है। डॉक्टरों के पदों पर अपरिहार्य रोष दिखाई दे रहा है।
देश भर के रेजिडेंट डॉक्टरों का आरोप है कि वरिष्ठ डॉक्टरों और सलाहकारों ने कोविड के उपचार का अधिकांश बोझ उनके कंधों पर डाल दिया है। दरअसल, जैसा कि आईएमए के आंकड़े बताते हैं 2,730 संक्रमित डॉक्टरों में से 928 रेजिडेंट डॉक्टर हैं, जबकि हाउस सर्जनों की यह संया 383 है। अन्य डॉक्टर इस विश्वव्यापी महामारी के दौरान आयुर्वेदिक चिकित्सकों की भीड़-भाड़ की आलोचना करते हैं।
एक रेजिडेंट डॉक्टर (उनके अनुरोध पर नाम नहीं दिया जा रहा है) का कहना है कि सच यह है कि गंभीर देखभाल विशेषज्ञ, श्वसन प्रणाली विशेषज्ञ, स्त्री रोग विशेषज्ञ और सामान्य चिकित्सकों के अलावा, ज्यादातर अन्य विशेषज्ञ कोविड के मरीजों की देखभाल में शामिल नहीं हैं। सरकार को यह बात सुनिश्चित करनी चाहिए कि आयुष (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध चिकित्सा और होम्योपैथी) डॉक्टरों के समक्ष उनकी सेवाओं का उपयोग किया जा रहा है।
इस बीच इस बारे में भ्रम है कि क्या पारंपरिक चिकित्सा के चिकित्सकों को एलोपैथिक डॉक्टरों के बराबर सुरक्षा दी जाएगी या नहीं। ठाणे के आयुर्वेदिक डॉक्टर भास्कर श्रीरंग के मामले पर गौर करते हैं जिन्हें कथित रूप से महामारी के दौरान अपना क्लिनिक खुला रखने के लिए कहा गया था। वह जून में कोविड के संपर्क में आए थे और इसके तुरंत बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण कार्यक्रम के अंतर्गत बीमे के लिए उनकी विधवा का आवेदन नामंजूर कर दिया गया क्योंकि उनका दवाखाना कोविड औषधालय के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं था।
असल में, मृतक कोविड योद्धाओं के कुछ परिवारों को विश्वव्यापी महामारी की शुरुआत में सरकार द्वारा घोषित 50 लाख रुपये का मुआवजा पैकेज मिला है।
महामारी के दौरान मरने वाले डॉक्टरों को सशस्त्र बलों के शहीदों की तरह मानने की जोरदार अपील करने वाले अशोकन का कहना है कि बाद में सरकार ने इस मुआवजा पैकेज से यह कहते हुए हाथ खींच लिए थे कि इसके लिए केवल सरकारी डॉक्टर ही पात्र थे। आईएमए ने कोविड शहीद कोष की भी स्थापना की है जिसके लिए वह जनता और संस्थानों से दान मांग रही है।