लोकसभा चुनावों के पहले आमतौर पर जो हलचल और शोर शराबा सुनाई पड़ता है, वह इस दफा नदारद है।
और इसका श्रेय काफी हद तक देश के चुनाव आयोग की ओर से आचार संहिता को सख्ती से लागू करना बताया जा रहा है। पहले जहां चुनाव के मौकों पर चुनाव अभियान से जुड़े सामान की आपूर्ति करने वाले स्थानीय ठेकेदारों का कारोबार फलता फूलता था, इस दफा उनका कारोबार भी ठंडा ठंडा सा है।
चुनावों में खूब चलने वाला यह व्यापार इस बार आचार संहिता की मार झेलने को मजबूर है। शहर में चुनाव प्रचार सामग्री बेचने वाले कॉन्ट्रैक्टरों का व्यापार एक तरह से ठप हो गया है और व्यापार में उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है। उनके कारोबार में आई गिरावट से साफ पता चलता है कि किसी भी पार्टी ने चुनाव सामग्री के लिए उनसे संपर्क नहीं किया है।
कॉन्ट्रैक्टरों का मानना है कि पिछलेचुनाव के मुकाबले इस बार के चुनाव से उनका व्यापार ज्यादा प्रभावित हुआ है। स्थानीय बाजार में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक कॉन्ट्रैक्टरों की चुनाव प्रचार सामग्री की बिक्री में कमी आई है।
भगवती एडवर्टाइजर के राकेश शर्मा का कहना है ‘पहले ऐसा था कि पार्टियां एडवांस में ही ऑर्डर बुक कर दिया करती थीं जिससे हम भी उनके लिए अलग-अलग डिजाइन तैयार करते थे पर इस बार दुकानें खाली हैं क्योंकि अब तक कोई खरीदारी नहीं हुई है।’
स्थानीय बाजार के एक अन्य दुकानदार के मुताबिक ‘चुनाव का समय किसी त्यौहार से कम नहीं होता है। इस मौके पर हम सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। पर इस साल चुनावों में लागू आचार संहिता की वजह से हमारा फलता-फूलता कारोबार ठप हो गया है। अब तक हमने एक भी पार्टी का बैनर या झंडा नहीं बेचा है।’
आचार संहिता की वजह से किसी भी पार्टी के स्टीकर, झंडा, स्कार्फ, होर्डिंग, चिह्न, टोपी आदि की बिक्री नहीं के बराबर हुई है। एक बुजुर्ग व्यक्ति सोम प्रकाश जो पिछले 40 साल से चुनावों को देखते आ रहे हैं, का मानना है कि समय के साथ चुनाव का जोश खत्म होता जा रहा है।
उनका कहना है ‘हमारे समय में स्थानीय रिक्शेवाले पार्टी के उम्मीदवारों के पर्चे बांट कर और नारे लगाकर प्रचार किया करते थे। यहां तक कि स्थानीय लोग अपना समय निकाल कर राजनीतिक रैलियों में और रोड शो में भाग लेते थे। पर अब राजनीतिक पार्टियां गांव वालों को बहला फुसला कर रैलियों में बुलाती हैं जो उनके लिए राजनीतिक शक्ति प्रदर्शित करने का माध्यम है।’
