इस हकीकत के बावजूद कि उत्तर प्रदेश गन्ने का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है, वहां के दो बड़े निगम (गन्ना बीज एवं विकास) वर्षों से नींद की खुमारी में हैं।
इन निगमों की स्थापना किसानों और उत्पादकों को सस्ते दर पर बीज मुहैया कराने के लिए 1975 में की गई थी। इसके अलावा निगम का काम किसानों को मंड़ी के मौजूदा भाव के बारे में जानकारी देना और उन्नत किस्म के बीजों के बारे में जानकारी देना था।
शुरुआत में ऐसे चार केंद्र लखनऊ, देवरिया, बरेली और मुजफ्फरनगर में स्थापित किए गए। लेकिन अफसोस कि ये केन्द्र अपने मकसद में सफल न हो सके। साल 2000 में देवरिया, बरेली के केंद्र वहां के किसानों के द्वारा लोन की पुर्नवापसी न करने और वित्तीय धांधली के चलते बंद कर देने पड़े।
जबकि दो अन्य केन्द्र लखनऊ और मुजफ्फरनगर की गतिविधियां कागज तक सिमट कर रह गई हैं। इतना कुछ होने के बाद भी राज्य सरकार निगम के कर्मचारियों के वेतन, भत्ते से लेकर अन्य खर्चें उठा रही है, जबकि निगम का गन्ना उद्योग से मतलब ही नहीं रख गया है।
निगम की स्थापना का मुख्य उद्देश्य विभिन्न समितियों, किसानों को सस्ते दर पर लोन मुहैया करवाना था। 1975 में स्थापना वर्ष के वक्त निगम के लिए काम करने वाली समितियों की संख्या 126 थी और राज्य सरकार निगम के लिए क्रेडिट गारंटर का काम करती थी।
साल 2002 में निगम ने लखीमपुर, ननपाड़ा (बहराइच) और कैमगंज (फर्रुखाबाद) की कुछ समितियां के द्वारा कुल 5 करोड़ रुपये के कर्ज वितरित किए लेकिन बाद में उन समितियों से लोन की पुर्नअदायगी संभव नही हो सकी।
लिहाजा ओरियेन्टल बैंक ऑफ कामर्स ने समितियों के खिलाफ कोर्ट केस दायर कर दिया। इसके बाद सरकार ने तमाम सहायता देनी बंद कर दी। हालांकि ओबीसी के लिए सरकार ने समिति को 1.3 करोड रुपये जरुर अदा किए लेकिन तमाम योजनाओं, क्रियान्वयन के बावजूद परिणाम ढाक के तीन पात ही रहे और इन निगमों की क्षमता का सही इस्तेमाल नही हो सका।
जानकारों का कहना है कि इन निगमों द्वारा लोन की पुर्नअदायगी हो जाए तो बात बन सकती है, लेकिन न तो निगम के द्वारा ही और न सरकार के द्वारा ही इस संबंध में पहल की जा रही है। निगम इस बारे में सरकार को कई दफा बार पत्र लिख चुकी है, लेकिन अब तक इस बारे में जरा सी भी सुगबुगाहट दिखने को नही मिल रही है। इस समय उत्तर प्रदेश में कुल 168 समितियां कार्यरत हैं जिनमें से 105 फायदे में चल रही हैं।