इस महीने की दो घटनाओं ने कार्यस्थल पर महिलाओं की संख्या बढ़ाने के जटिल मुद्दे से जुड़ी व्यावहारिक समस्याओं को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। महीने की शुरुआत में केंद्र सरकार द्वारा कथित रूप से भेदभावपूर्ण भर्ती वाली प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाए जाने के बाद राज्य श्रम विभाग की टीम ने ऐपल के आईफोन असेंबलर फॉक्सकॉन के श्रीपेरुंबुदुर, तमिलनाडु में मौजूद संयंत्र का दौरा किया।
इसका कारण रॉयटर्स की एक जांच थी जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि वर्ष 2023 और 2024 के दौरान फॉक्सकॉन ने अपने मुख्य आईफोन संयंत्र में विवाहित महिलाओं को काम पर रखने से इनकार कर दिया था। उम्मीद के मुताबिक कंपनी ने इस तरह की किसी भी प्रक्रिया से साफ इनकार कर दिया। कंपनी के मानव संसाधन (एचआर) अधिकारी ने श्रम विभाग के अधिकारियों को बताया कि कंपनी के कुल कर्मचारियों में से आठ प्रतिशत विवाहित महिलाएं हैं लेकिन इसने आईफोन संयंत्र (कंपनी गूगल के लिए पिक्सल स्मार्टफोन भी बनाती है) में महिलाओं की उपस्थिति का कोई ब्योरा नहीं दिया। कंपनी ने यह भी कहा कि हाल में जो भर्तियां हुई हैं उनमें से 25 प्रतिशत विवाहित महिलाएं हैं।
इसी महीने उच्चतम न्यायालय ने महिला कर्मचारियों को विशेष मासिक अवकाश अनिवार्य रूप से देने के लिए सरकारों को निर्देश जारी करने से इनकार कर दिया। हालांकि विडंबना यह है कि महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर फैसला सुनाने वाले पीठ की अध्यक्षता एक पुरुष द्वारा की जा रही थी जो भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ हैं। अदालत ने इस नीति के प्रतिकूल परिणामों की ओर भी पूरी वैधता से इशारा किया जिसमें कंपनियों को महिलाओं को काम पर रखने से हतोत्साहित करना भी शामिल है।
दोनों मुद्दे महिलाओं को काम पर रखने से जुड़ी व्यावहारिक समस्याओं की ओर इशारा करते हैं जिसका सामना कॉरपोरेट प्रबंधन नियमित रूप से कर रहा है लेकिन कार्यस्थल पर महिलाओं से जुड़े विमर्श पर शायद ही खुलकर चर्चा होती है। महिला अधिकार महिलाओं से जुड़े अधिकार, विविधता और समानता के परिप्रेक्ष्य में कार्यस्थल पर अधिक महिलाओं की भर्ती की वकालत करते हैं। लेकिन कम ही लोग नियोक्ता कंपनी या संस्थान के नजरिये से इस मुद्दे को देखते हैं।
ऐसा करना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस समस्या से बेशक कार्यस्थल पर महिला-पुरुष विविधता को प्रोत्साहित करने पर असर पड़ता है। कोई भी सीईओ (मुख्य कार्य अधिकारी) या मानव संसाधन (एचआर) प्रबंधक (यहां तक अगर वे महिलाएं हैं तब भी) इस बात की पुष्टि करेंगे कि महिलाओं की विशेषतौर पर विवाह योग्य या बच्चा पैदा करने के लिए उपयुक्त उम्र वाली महिलाओं की नियुक्ति की लागत अधिक हो सकती है। कंपनी जितनी छोटी होगी उसका मार्जिन उतना ही कम होगा ऐसे में मातृत्व या मासिक धर्म अवकाश की लागत या इससे जुड़े नतीजे की लागत वहन करने की उनकी क्षमता भी उतनी ही कम होगी।
साल 2017 में पहली दो संतानों के लिए महिलाओं को दिए जाने वाले मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाकर 12 से 26 सप्ताह कर दी गई थी, जो नियम 50 या इससे अधिक कर्मचारियों वाले किसी भी संस्थान पर लागू होता है। महिला कर्मचारियों के नजरिये से यह पूरी तरह स्वीकार्य योग्य फैसला है। लेकिन कंपनी के प्रबंधन के नजरिये से देखें तो स्थिति कुछ और होती है। मसलन इस अवधि के दौरान किसी और की भर्ती करने या प्रशिक्षण की लागत दोगुनी हो जाती है, ऐसे में महिलाओं की भर्ती की संभावना काफी कम होने लगती है। इसके अलावा 50 से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों में बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच सेवाएं अनिवार्य किए जाने पर इससे जुड़ी लागत (और परेशानियां) और बढ़ जाती हैं।
अधिकांश महिला कर्मचारी मासिक धर्म अवकाश के रूप में कुछ समय की छुट्टी लेना चाहेंगी। लेकिन कंपनी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसी चल रही परियोजना के बीच में या बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्यक्रम के दौरान कर्मचारियों के अनुपस्थित रहने से काफी असुविधा होती है।
इन चिंताओं के कारण कंपनियां महिलाओं को नौकरी देने से हिचकिचाती हैं और अक्सर ऐसा करती भी हैं। यह वास्तव में दोतरफा नुकसान है, कंपनियां अनजाने में कार्यबल के एक बड़े हिस्से की प्रतिभा का फायदा नहीं उठा पाती हैं और महिलाएं रोजगार के अवसरों से वंचित हो जाती हैं।
लोग अक्सर स्वीडन और सामान्य तौर पर नॉर्डिक देशों की मिसाल देते हैं जहां तीन-चौथाई महिलाएं कार्यबल में हैं और यह बच्चों की देखभाल से जुड़ी किफायती सेवा, और वेतन सहित उदार प्रसूति अवकाश (मां और पिता दोनों के लिए) तक की पहुंच का परिणाम है। यह अनुकूल वातावरण काफी हद तक पश्चिम के विकसित, शिक्षित समाज की आबादी से जुड़ी चिंताओं से भी प्रेरित है जहां घटती आबादी के साथ, महिलाओं को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वहीं दूसरी ओर भारत में घटती और बुजुर्ग होती आबादी की समस्या अभी दूर है और इस वक्त मुद्दा यह है कि बच्चों को जन्म देने की महिलाओं की स्वतंत्रता से समझौता किए बिना अधिक महिलाओं को कार्यस्थल में कैसे लाया जाए।
अब सवाल यह है कि भारतीय कंपनियों को महिलाओं को नियुक्त करने के लिए वास्तव में कैसे प्रोत्साहित किया जाए। वर्ष 2018 में, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने मातृत्व अवकाश प्रोत्साहन योजना का प्रस्ताव रखा था जिसमें 15,000 रुपये प्रति माह की वेतन सीमा के साथ महिला श्रमिकों को नियुक्त करने और 26 सप्ताह का मातृत्व लाभ देने वाली कंपनियों को सात सप्ताह के वेतन की पूर्ति की जाएगी। इसके बारे में आखिरी बार 2019 में एक संसदीय प्रश्न के उत्तर में सुना गया जिसके अनुसार, सरकार इसकी फंडिंग के विवरण पर काम कर रही थी।
यह योजना निश्चित रूप से दृष्टिकोण में एक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिकता को दर्शाती है। हालांकि, इरादा भले ही अच्छा हो लेकिन इसके साथ सरकारी क्षतिपूर्ति से जुड़ी सभी जटिलताएं हैं और इन मुश्किलों से एफएएमई या उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन योजनाओं के माध्यम से लाभ पाने वाली इकाइयां भी अच्छी तरह से वाकिफ हैं।
यदि सरकार महिलाओं के रोजगार की जिम्मेदारी लेने की इच्छुक है तो शायद एक बेहतर विचार यह हो सकता है कि योजना में कर छूट का लाभ देकर बदलाव देखा जाए। उदाहरण के तौर पर लिए, मातृत्व लाभ भुगतान के लिए या अवकाश अवधि के दौरान अमुक कर्मचारी की जगह किसी दूसरे कर्मचारी की भर्ती लागत को उच्च स्तर पर रखने की अनुमति दी जा सकती है।
वेतन सीमा को हटाकर इस दायरे का विस्तार करने से भी ऐसे प्रोत्साहन को सार्वभौमिक स्तर पर व्यापकता मिल जाएगी और भर्ती लागत को समान स्तर पर लाने की दिशा में कुछ हद तक आगे बढ़ा जा सकेगा। निश्चित रूप से कॉरपोरेट प्रबंधन के बीच ऐसी योजना के लोकप्रिय होने की संभावना है। आखिरकार, कौन कर छूट पसंद नहीं करेगा?