चीन में सुधार लाने और अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने वाला तंग श्याओ फिंग का दौर अब खत्म हो रहा है। वर्ष 2012 में सत्ता संभालने के बाद से ही चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने तंग से जुड़ी प्रमुख नीतियों से खुद को काफी हद तक अलग कर लिया है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का राजनीतिक नेता बने रहने के साथ ही तंग ने पार्टी एवं राज्य और पार्टी एवं पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच एक स्पष्ट विभाजन की व्यवस्था बनाए रखी थी जिसमें पार्टी निगरानी तो रखती थी लेकिन दखल नहीं देती थी।
इसने सरकारी अफसरशाही और सेना को पेशेवर बने रहने की छूट दी। निजी क्षेत्र के दबदबे वाली अर्थव्यवस्था को देश में फलने-फूलने का मौका दिया गया। तंग के ‘समृद्ध होना शानदार है’ के नारे ने उद्यमी गतिविधि को वैधता दी थी और वर्ष 2001 में कारोबार मालिकों को पार्टी के भीतर जगह देने के रूप में इसकी परिणति हुई। तंग ने सामूहिक नेतृत्व पर बल दिया, उच्च पदों पर उत्तराधिकारी की नियुक्ति की संस्थागत एवं पूर्व सूचना की व्यवस्था की और पार्टी के भीतर सेवानिवृत्ति का एक हद तक सख्त प्रावधान किया। विदेश नीति के संदर्भ में तंग ने चीन को ‘याओगुआंग यांगहुई’ की नीति पर चलने की सलाह दी थी जिसका मतलब है कि व्यावहारिक नतीजे हासिल करते हुए खुद को अधिक चर्चा में न ले आना।
सवाल है कि शी चिनफिंग के कार्यकाल में कौन से अहम बदलाव हुए हैं? पार्टी की सर्वोच्चता का पालन शासन में इसकी सक्रिय भागीदारी से किया जा रहा है, सिर्फ निगरानी ही नहीं। प्रधानमंत्री के मातहत संचालित होने वाली स्टेट काउंसिल अब सिर्फ एक कार्यकारी निकाय है और नीति-निर्माण का काम शी की अगुआई वाली पार्टी समितियों के हाथों में है। शी पार्टी के ताकतवर केंद्रीय सैन्य आयोग का चेयरमैन होने के साथ पीएलए के सर्वोच्च कमांडर भी हैं।
चीन के संविधान में राष्ट्रपति के सिर्फ दो कार्यकाल तक ही पद पर रहने देने वाले प्रावधान को वर्ष 2018 में हटा दिया गया। इसका मतलब है कि शी 2022 में पूरा होने वाला अपना दूसरा कार्यकाल खत्म होने के बाद भी राष्टï्रपति पद पर बने रह सकते हैं। सरकारी स्वामित्व वाले उद्यम एक बार फिर चीन की अर्थव्यवस्था में अग्रणी भूमिका में आ गए हैं जबकि निजी फर्मों पर नई पाबंदियां लगाई गई हैं। विदेश नीति में चीन का नया नारा ‘फेन्फा यूवेई’ ( उपलब्धियों की ललक) है जिसे चीनी स्वप्न को पूरा करने की शी की पहल से जोड़कर देखा जाता है। इसी के साथ लो प्रोफाइल रहने के बजाय चीन ने हठधर्मी विदेश नीति अपना ली है जो अक्सर आक्रामक ‘वुल्फ वॉरियर’ कूटनीति में तब्दील हो जाता है।
बीते साल में हमने तंग काल से कहीं ज्यादा फर्क महसूस किया। राजनीति ‘साझा समृद्धि’ के शी के प्रोत्साहन में एक सशक्त लोकलुभावन सुगंध के साथ नजर आती है। इस चरण की शुरुआत ऐंट ग्रुप को न्यूयॉर्क एवं हॉन्ग कॉन्ग में रिकॉर्ड 37 अरब डॉलर का आईपीओ लाने से रोकने के साथ हुई थी। चीन की सबसे चर्चित एवं कामयाब निजी टेक फर्म अलीबाबा के पास ऐंट ग्रुप का स्वामित्व था। इसके बाद कैब एग्रीगेटर फर्म दीदी चक्सिंग पर नियामकीय मंजूरी के बगैर अमेरिका में शेयर सूचीबद्धता की कोशिश के लिए जुर्माना लगा दिया गया। कुछ अन्य निजी कंपनियों के भी खिलाफ एकाधिकारवादी नीतियों एवं नियमों के उल्लंघन की जांच शुरू कर दी गई हैं।
डेटा को स्थानीय स्तर पर रखकर डेटा सुरक्षा सुनिश्चित करने के कानून बनाए गए हैं, टेक कंपनियों के पास कारोबार के दौरान जमा विशाल डेटा भंडार तक राज्य की पहुंच की इजाजत देने वाले कानून भी बने हैं। निजी कंपनियों पर शेयरधारिता सरकारी कंपनियों को देने के लिए बाध्य करने से निजी कंपनियों के बोर्ड में सरकारी प्रतिनिधित्व और फैसलों पर सीधा दखल देने की स्थिति बनी है। इन प्रयासों का परिणाम यह हुआ है कि चीन की समृद्ध हाई-टेक कंपनियों की शुद्ध संपत्ति में करीब 1 लाख करोड़ डॉलर की गिरावट आ गई है। चीनी कारोबार और चीन की संपत्ति में आई यह बड़ी गिरावट है। क्या यह सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार रहा है? नहीं, यह सिर्फ यह साबित करता है कि सोने के अंडे देने के लिए अधिकृत मुर्गी केवल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी है।
लोक-लुभावन रुख अपनाने की बात चीन की बेहद सफल एडटेक कंपनियों के अनिवार्य रूपांतरण में नजर आती है। चीन के युवाओं को ऑनलाइन ट्यूशन देने वाली इन कंपनियों को जबरन गैर-लाभकारी फर्म बना दिया गया है। चीन का समृद्ध एवं लगातार बढ़ रहा डिजिटल गेमिंग उद्योग युवाओं को दिन भर में सिर्फ दो घंटे के लिए ही गेमिंग की अनुमति देने वाले नए नियम से काफी प्रभावित होगा। यह प्रावधान युवाओं की सेहत को ध्यान में रखते हुए किया गया है और शायद अभिभावकों को यह काफी पसंद आएगा। निहितार्थ यह है कि चीन में खुलकर कारोबार करने एवं ढीले-ढाले नियमन का दौर अब बीत चुका है।
हम चीन के मनोरंजन उद्योग, इसकी चमकदार पॉप संस्कृति और लुभावने सेलिब्रिटी उद्योग पर एक वैचारिक हमले को भी देख रहे हैं। चीन के कुछ पॉप स्टार एवं फिल्म कलाकारों के प्रशंसकों की बड़ी संख्या है और कई लोग तो लोगों की सोच पर असर डालने वाले ‘इन्फ्लूएंसर’ भी हैं। इसे सीपीसी की धमक के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। तंग के सुधारों ने राज्य को अपने नागरिकों की निजी जिंदगी से अलग कर दिया था ताकि वे जीवन एवं सुख-सुविधा का तब तक भरपूर लुत्फ उठाते रहें जब तक कि वे सियासी सत्ता को लेकर सवाल न उठाएं। लेकिन शी के दौर में यह भी बदल जाएगा क्योंकि अब कम्युनिस्ट पार्टी ने खुद को नैतिक अभिभावक की जगह भी ले ली है और निजी एवं सामाजिक मानदंडों को तय कर रही है।
चीन के इन घरेलू घटनाक्रम का एक अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी है और इनका इस बात से गहरा ताल्लुक है कि शी का चीन अपने आसपास की दुनिया को किस तरह देखता है और नई चुनौतियों से किस तरह निपटना चाहता है?
चीन यह मानकर चल रहा है कि अमेरिका के साथ चौतरफा प्रतिस्पद्र्धा एवं टकराव का लंबा दौर चलेगा। अमेरिका की तरफ से ‘डिकपलिंग’ का इंतजार करने के बजाय चीन इसे खुद ही एहतियाती एवं सक्रियता से लागू कर रहा है। चीन को डर है कि उसकी निजी कंपनियां अमेरिका की ‘बंधक’ बन सकती हैं या फिर वे राष्ट्रीय हितों के ऊपर अपने मुनाफे को रख सकती हैं। लेकिन अमेरिका एवं पश्चिमी कंपनियां अब भी चीन में निवेश के लिए उत्साहित हैं क्योंकि वे चीन की तरफ से बंधक बन सकती हैं।
चीन की कंपनियों को पश्चिमी बाजारों में सूचीबद्ध होने से हतोत्साहित किया जा रहा है और राष्ट्रीय एक्सचेंज पर आने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। संस्कृति को एक संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। लिहाजा पश्चिम से आयातित सेलिब्रिटी संस्कृति और स्त्रैण गुणों वाले पॉप स्टारों के खिलाफ हमला बोला जाएगा। आरोप हैं कि ऐसी हस्तियों के असर ने पौरुष कम करने के साथ चीन की सामाजिक व्यवस्था को भी अंदर से कमजोर किया है। ‘रंग क्रांति’ का डर भी सता रहा है।
ये लुभावने कदम पार्टी के अगले साल होने वाले सम्मेलन को ध्यान में रखते हुए उठाए जा रहे हैं जब शी को पार्टी महासचिव एवं राष्ट्रपति पद पर बने रहने के लिए पार्टी की मंजूरी लेनी होगी। लेकिन ये सारे कदम पूरी तरह सुनियोजित नहीं हैं। इन कदमों को वापस लेने वाले दबाव भी हैं। हो सकता है कि आगे चलकर राजनीतिक उठापटक एवं अनिश्चितता के हालात बनें। चीन की विदेश नीति का मिजाज अधिक वैचारिक एवं कम व्यावहारिक हो जाएगा और उस पर राष्ट्रवाद का गहरा रंग छाया रहेगा। भारत एवं चीन के संबंधों के लिहाज से यह अच्छा नहीं होगा।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)