आसमान छूती महंगाई की लपटें कम होती नहीं दिख रही हैं। महंगाई विभिन्न समूह के लोगों को अलग-अलग रूप में प्रभावित कर रही है। मगर दाम लगातार अधिक होने के बाद सभी पर एक समान असर दिखना शुरू हो जाएगा जिसका सीधा असर आर्थिक वृद्धि पर होगा। कीमतें ऊंचे स्तर पर बनी रहेंगी और ये जिंसों के दामों में आई तेजी पर भी भारी पड़ेंगी। इस कठिन चुनौती के बीच हम कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश करते हैं।
क्या वैश्विक स्तर पर दाम में बढ़ोतरी का असर घरेलू खाद्य महंगाई पर भी हुआ है?
वैश्विक स्तर पर विभिन्न वस्तुओं के दाम में हुए इजाफे का असर भारत में फिलहाल पूरी तरह नहीं दिखा है। उदाहरण के लिए भारत में गेहूं के दाम में और इजाफा हो सकता है। देश से इसका बढ़ता निर्यात, उत्पादन में कमी और मांग-आपूर्ति में असंतुलन इसका कारण हो सकते हैं। पिछले दो वर्षों में गेहूं का भंडार जरूर बढ़ा है मगर हाल में इसमें कमी आई है। अगर गेहूं के दाम बढ़ते हैं तो इसका असर चावल के भाव पर भी दिख सकता है। आगामी खरीफ मौसम में मॉनसूनी बारिश और उर्वरकों की उपलब्धता पर काफी कुछ निर्भर करेगा।
दूसरी बात यह कि आपूर्ति में व्यवधान और इंडोनेशिया द्वारा हाल में पाबंदी लगाए जाने से वैश्विक स्तर पर खाद्य तेल के दाम बढ़ रहे हैं। इससे खाद्य महंगाई और बढ़ सकती है। भारत खाद्य तेल का आयात करता है और मार्च में सालाना आधार पर इनकी कीमतों में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लागत मूल्य (डीजल, उर्वरक एवं मवेशी चारे के दाम) बढऩे से सभी खाद्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ेंगे। मार्च में कृषि लागत मूल्य सूचकांक सालाना आधार पर 15 प्रतिशत अधिक था और अगले दो महीनों में मौजूदा फसल कटने से इसके पूरे असर का पता चल पाएगा।
क्या कंपनियों ने बढ़ी लागत का बोझ उपभोक्ताओं पर डाल दिया है?
अगर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) आधारित महंगाई को कच्चे माल और तैयार वस्तुओं में विभाजित करें तो हम पाएंगे कि पिछले छह महीने के दौरान लागत मूल्य में हुई वृद्धि का केवल 50 प्रतिशत हिस्सा ही उपभोक्ताओं के कंधों पर डाला गया है। आम तौर पर यह 80-90 प्रतिशत होता है। फिलहाल तो यही लगता है कि कमजोर मांग के डर से कंपनियां कीमतें बढ़ाने से कतरा रही हैं। मगर लागत यूं ही ऊंचे स्तरों पर रही तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी और कंपनियों के बजाय उपभोक्ताओं के मोर्चे पर आर्थिक वृद्धि दर को मदद मिलनी बंद हो जाएगी। ईंधन के दाम में तेजी का असर भी पूरी तरह नहीं दिखा है। डब्ल्यूपीआई ईंधन महंगाई उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) महंगाई से कहीं अधिक हो गई है। प्राथमिक एवं द्वितीयक ऊर्जा लागत में अंतर इसकी मुख्य वजह है। खनिज तेल एवं कोयले की प्राथमिक ऊर्जा लागत अधिक हो गई है और डब्ल्यूपीआई महंगाई सूचकांक में यह वृद्धि दिखनी शुरू हो गई है। मगर द्वितीयक ऊर्जा लागत खासकर बिजली की खुदरा दरों में तभी बढ़ोतरी होती है जब दरें बढ़ाई जाती हैं। इस बढ़ोतरी की सीपीआई महंगाई में बड़ी हिस्सेदारी होती है और सीपीआई ईंधन महंगाई फिलहाल तुलनात्मक रूप से कम है। अगले वर्ष बिजली दरों में बढ़ोतरी का असर दिखने के बाद सीपीआई ईंधन महंगाई में तेजी दिखनी शुरू हो जाएगी। इससे भारत में दीर्घ अवधि तक महंगाई दर अधिक रहेगी।
क्या 2022 में वस्तुओं एवं सेवाओं की वजह से महंगाई बढ़ेगी?
सेवा प्रदाताओं की तुलना में वस्तु उत्पादक बढ़ी लागत का बोझ उपभोक्ताओं पर डालने में अधिक आगे रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि लॉकडाउन खत्म होने के बाद वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ी थी जबकि सेवाओं की मांग में अब भी सुधार हो रहा है। वस्तुओं की महंगाई शुरू में सेवाओं की तुलना में अधिक रह सकती है मगर सेवाओं की महंगाई भी धीरे-धीरे जोर पकड़ सकती है। लॉकडाउन के दौरान सेवाओं की थमी मांग इसकी मुख्य वजह हो सकती है मगर सेवा क्षेत्र और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर धीमी रह सकती है।
शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई क्यों बढ़ रही है?
प्राथमिक ईंधन लागत बढऩे की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों के मुकाबले अधिक तजी से महंगाई बढ़ रही है। उदाहरण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में केरोसिन और वाटर पंपों में इस्तेमाल होने वाले डीजल की कीमतों के दाम नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है इसलिए वहां महंगाई का असर अधिक दिख रहा है। शहरी क्षेत्रों में द्वितीयक ऊर्जा स्रोतों जैसे बिजली का इस्तेमाल अधिक होता है और इसकी दर में किसी तरह के इजाफे का असर बाद में दिखता है। एक बार बिजली शुल्क में बढ़ोतरी के बाद शहरी क्षेत्रों में भी महंगाई तेजी से बढ़ेगी और दोनों क्षेत्रों के बीच महंगाई का अंतर कम हो जाएगा। इससे आर्थिक वृद्धि पर असर हो सकता है क्योंकि देश के लोगों की वास्तविक क्रय शक्ति कम हो जाएगी।
लागत में बढ़ोतरी का सर्वाधिक असर किस आय वर्ग के लोगों पर अधिक हुआ है?
हम विभिन्न आय वर्गों पर सीपीआई महंगाई के असर का आकलन करते हैं। कोविड महामारी के शुरू में सर्वाधिक आय अर्जित करने वाले 20 प्रतिशत लोगों के समूह में सबसे नीचे आने वाले 20 प्रतिशत लोगों की तुलना में महंगाई का असर कम दिखा। वर्ष 2022 की शुरुआत से यह बात बार-बार देखी जा रही है। छोटी कंपनियां लागत में अचानक बढ़ोतरी का असर कम करने में असफल रही हैं और आपूर्ति व्यवस्था में बाधाओं से कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। अगर बढ़ी लागत तेजी से कम नहीं हुई तो छोटी कंपनियों पर बड़ा असर दिखेगा।
क्या जिंसों की कीमतों में कमी के बाद महंगाई कम होगी और आर्थिक वृद्धि दर तेज होगी?
मोटे तौर पर यह माना जा रहा है कि जिंसों के दाम कम होने के बाद महंगाई कम होगी और आर्थिक वृद्धि की रफ्तार भी तेज होगी। मगर इस तर्क में बहुत दम नहीं दिख रहा है और तीन ऐसे कारण हैं जिस वजह से जिंसों की कीमतें कम होने के बाद भी खुदरा महंगाई ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी। पहला कारण यह है कि बड़ी कंपनियां महामारी के दौरान कीमतें नियंत्रित करने की बेहतर स्थिति में आ गई हैं और जिंसों के दाम कम होने के बावजूद वे तेजी से दाम नहीं घटाएंगी। दूसरा कारण यह है कि बिजली दरों में इजाफा एक वर्ष की देरी से होता है इसलिए बिजली वितरण कंपनियों को होने वाले नुकसान की भरपाई एक वर्ष बाद ही हो पाएगी। तीसरी बात यह है कि कृषि उत्पादों की लागत बढऩे से अगले वर्ष के दौरान खाद्य वस्तुओं की कीमतें अधिक रह सकती हैं।
इनके अलावा तीन एक दूसरे से जुड़े कारण भी हैं जिनसे जिंसों के ऊंचे दाम का असर आने वाले समय में आर्थिक वृद्धि पर अधिक स्पष्ट दिखेगा। सबसे पहले सेवाओं की मांग बढऩे के साथ ही उत्पादक उपभोक्ताओं पर बढ़ी लागत का बोझ डालना शुरू कर देंगे। इससे क्रय शक्ति एवं आर्थिक वृद्धि दोनों पर असर होगा। दूसरी पहलू यह है कि अगले 12 महीनों के दौरान बिजली दरों में बढ़ोतरी से शहरी क्षेत्रों में रहन-सहन और उत्पादन पर अधिक खर्च होने से आर्थिक वृद्धि पर असर होगा। तीसरी बात यह है कि अनौपचारिक क्षेत्र में मांग कमजोर होने का असर औपचारिक क्षेत्र में उत्पादकों पर भी होगा। आाखिकर वे पूरी अर्थव्यवस्था के लिए उत्पादन करते हैं।
(लेखिका एचएसबीसी सिक्योरिटीज ऐंड कैपिटल मार्केट्स (इंडिया) में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)