अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की राजनीति प्रेरित व्यापार नीति के चलते करीब एक महीने पहले भारत के निर्यात पर 50 फीसदी का असाधारण रूप से ऊंचा शुल्क लगाने की घोषणा की गई। अब जबकि जुर्माने वाला शुल्क लागू हो चुका है तो भारतीय निर्यातकों को ट्रंप-पुतिन-जेलेंस्की की बैठकों तथा अमेरिका के साथ स्थगित व्यापार वार्ता के नए सिरे से शुरू होने के बाद कुछ सकारात्मक नतीजों की उम्मीद है। अमेरिका भारतीय के प्रमुख निर्यात का सबसे बड़ा बाजार है। खासतौर पर कपड़ा एवं परिधान, सीफूड, रत्न एवं आभूषण जैसी चीजों के लिए, ऐसे में अमेरिका के साथ व्यापार समझौता जरूरी होगा।
यह बात उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन के अलावा ट्रंप द्वारा घोषित लगभग सभी द्विपक्षीय व्यापार समझौते कानून समर्थित नहीं हैं, उनके ब्योरे उलझे हुए हैं और इसलिए उनकी कई तरह की व्याख्याएं की जा सकती हैं। अमेरिका-जापान व्यापार समझौते के क्रियान्वयन में टैरिफ लगाने की ‘गलती’ और मूल घोषणा के एक महीने बाद यूरोपीय संघ से वाहन आयात पर अमेरिका द्वारा 15 फीसदी टैरिफ का ‘सशर्त’ अनुप्रयोग, ऐसी अस्पष्टताओं के प्रमाण हैं।
धारा 232 के तहत लंबित जांच और निरंतर वार्ता अमेरिकी व्यापार नीति की अनिश्चितता को बताती है। इसके साथ ही अमेरिकी व्यापार संरक्षण भी लागू रह सकता है क्योंकि ट्रंप के पहले कार्यकाल में टैरिफ में जो इजाफा किया गया था उसे जो बाइडन ने कम नहीं किया था। ऐसे में भारत की व्यापार नीति की प्रतिक्रिया दीर्घकालिक नज़रिये पर आधारित होनी चाहिए।
अपनी सबसे प्रमुख प्रतिक्रिया के रूप में भारत को अपने भीतर झांकने के प्रलोभन से बचना होगा। समग्र मांग में योगदान के अलावा निर्यात, विनिर्माण प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का भी अहम जरिया है। उसके जरिये उत्पादक रोजगार भी बढ़ते हैं। फिलहाल देश के विनिर्माण को गति प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी पिछले दो दशक से लगातार घट रही है।
विश्व बैंक के मुताबिक 2006 के 17 फीसदी से कम होकर 2024 में यह 13 फीसदी रह गई। इसी अवधि में भारत के कुल वस्तु निर्यात में विनिर्मित वस्तुओं की हिस्सेदारी भी कम हुई और 2024 में यह करीब 64 फीसदी थी। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो चीन, वियतनाम और मेक्सिको के निर्यात में इनकी हिस्सेदारी क्रमश: 90 फीसदी, 85 फीसदी और 78 फीसदी रही। ये तीनों अर्थव्यवस्थाएं वैश्विक मूल्य श्रृंखला से गहराई से जुड़ी हुई हैं। यह एकीकरण वैश्विक विनिर्मित वस्तु निर्यात में हिस्सेदारी बढ़ाने में मददगार रहा है। इसमें भारत की हिस्सेदारी दो दशकों से दो फीसदी के आसपास ठहरी रही है।
वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ एकीकरण के जरिये विनिर्माण प्रतिस्पर्धा बढ़ाना हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। पहले चरण में हमें अपनी प्रमुख उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना में न्यूनतम घरेलू मूल्यवर्धन (डीवीए) की समीक्षा करनी चाहिए। निश्चित क्षेत्रों जैसे कि ऑटोमोबाइल, ऑटो-पुर्जे और इलेक्ट्रिक वाहनों में सब्सिडी प्राप्त करने के लिए न्यूनतम 50 फीसदी डीवीए की शर्त का उद्देश्य वैसे तो गहन स्थानीयकरण को बढ़ावा देने के लिए है, लेकिन यह वास्तव में प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। ऐसा संभव है कि आवश्यक घरेलू कच्चे माल उपलब्ध न हों, या यदि वे देश में उत्पादित भी होते हैं, तो आमतौर पर महंगे विकल्प साबित होते हैं।
इसके चलते समय के साथ छोटे और मझोले घरेलू उत्पादक कारेाबार से बाहर हो जाएंगे और बड़े घरेलू उत्पादकों का एकाधिकार स्थापित हो जाएगा। ध्यान रहे कि गत दो वर्षों में देश के कई बड़े वाहन और वाहन कलपुर्जा उत्पादक, योजना के तहत वित्तीय प्रोत्साहन हासिल नहीं कर सके हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे 50 फीसदी डीवीए और स्थानीयकरण की जरूरतों को पूरा नहीं कर सके।
शुरुआती डीवीए लक्ष्यों को तर्कसंगत रूप से कम स्तर पर रखना और स्थानीय सामग्री की अनिवार्यता को धीरे-धीरे समाप्त करना उत्पादन लागत को कम करने में सहायक हो सकता है, क्योंकि इससे कुशल और कम लागत वाले आयातित कच्चे माल का उपयोग संभव हो पाता है। एक ओर इससे तकनीकी प्रसार संभव होता है, वहीं दूसरी ओर आयातित कच्चे माल प्रतिस्पर्धात्मक दबाव उत्पन्न करते हैं, जिससे नवाचार को बढ़ावा मिलता है। दीर्घकालिक रूप में यह घरेलू क्षमताओं के निर्माण और तकनीकी उन्नयन की प्रक्रिया को गति देता है, जो सतत विनिर्माण क्षमताओं की स्थापना के लिए आवश्यक है।
उपरोक्त नजरिये से देखें विनिर्माण क्षेत्र की प्रतिस्पर्धात्मकता सुनिश्चित करने के लिए एक उदार आयात नीति अत्यंत आवश्यक है। विनिर्माण क्षेत्र में, विशेष रूप से भारत की उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में, आयातित कच्चे माल पर शुल्कों में कटौती की
जानी चाहिए।
हाल ही में कपास पर आयात शुल्क में की गई कमी इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन अब जुलाई 2024 के बजट में किए गए वादे और फरवरी 2025 के बजट में सीमित रूप से शुरू की गई प्रक्रिया के अनुरूप शुल्कों की एक व्यापक समीक्षा की आवश्यकता है। भारत को अपने विनिर्माण क्षेत्र में लागू सर्वाधिक तरजीही देशों पर शुल्कों को प्रतिस्पर्धी आसियान अर्थव्यवस्थाओं के अनुरूप लाने का लक्ष्य रखना चाहिए, ताकि वैश्विक मूल्य श्रृंखला में अधिक प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके और घरेलू उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया जा सके।
अमेरिका द्वारा अपनी एशिया की ओर झुकाव की नीति की समीक्षा के संकेतों के मद्देनजर, भारत के लिए आयात शुल्कों को कम करना ज्यादा आवश्यक हो गया है। इस नीति के तहत भारत को चीन के संतुलन के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब यह रणनीतिक आधार कमजोर होता दिख रहा है। अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी और व्यापार प्रतिस्पर्धा के जारी रहने की संभावना को देखते हुए, भारत के लिए यह ज़रूरी है कि वह वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के स्थानांतरण और निर्यात-उन्मुख, कुशलता बढ़ाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए एक आकर्षक विकल्प बना रहे और इसके लिए आयात शुल्कों में कमी मददगार होगी।
भारत को अपने निर्यात बाजारों को और विविध बनाना होगा। यूरोपीय संघ के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते को शीघ्रता से अंतिम रूप देना, आसियान एफटीए की समीक्षा करना, और प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) में भागीदारी की तैयारी शुरू करना इस दिशा में सहायक होंगे। हाल ही में ब्रिटेन के साथ हस्ताक्षरित एफटीए के आधार पर भारत यूरोपीय संघ और सीपीटीपीपी दोनों के साथ आगे बढ़ सकता है।
अंततः यह मान लेना चाहिए कि अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया और आसियान जैसे लगभग सभी प्रमुख मौजूदा और संभावित निर्यात बाजार अपने-अपने कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) विकसित कर रहे हैं। ऐसे में भारत के लिए यह अधिक व्यावहारिक होगा कि वह घरेलू कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र की ओर तेजी से बढ़े, बजाय इसके कि वह एफटीए में रियायतों और लचीलापन की आशा करे। भारत के सामने एक व्यापक सुधार एजेंडा है और समय बिल्कुल नहीं गंवाना चाहिए।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)