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अमेरिकी कृषि सब्सिडी पर हंगामा है क्यों बरपा?

Last Updated- December 05, 2022 | 5:16 PM IST

यह बात साफ हो चुकी है कि भारत को अपनी कृषि समस्या को पहले से कहीं ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत है। खेतों की उपज काफी कम है।


साथ ही कृषि क्षेत्र का उत्पादन अब भी काफी हद तक मॉनसून पर निर्भर है। देश की 60 फीसदी आबादी ( तकरीबन 60 करोड़ लोग) आजीविका के लिए खेती पर आश्रित है। इनमें एक तिहाई भूमिहीन हैं और ये लोग खाद्य पदार्थों को खरीदने के लिए मजबूर हैं। इसके अलावा शहरी आबादी में भी लगातार तेजी से बढ़ोतरी जारी है।


कृषि मंत्री ने पिछले साल कैबिनेट को बताया था कि 2011 तक भारत खाद्य पदार्थों का सबसे बड़ा आयातक बन जाएगा। इस बात पर हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। अगर खाद्य पदार्थों की सूची में दाल और खाद्य तेलों के अलावा चीनी को भी जोड़ दिया जाता है, तो सही तस्वीर का आकलन किया जा सकता है।


इन समस्याओं के मद्देनजर भारत को अनाजों का समग्र आयातक बनने से कैसे रोका जाए, इसका हल ढूंढने की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। इसके लिए हमें अपना नजरिया दुरुस्त करने की जरूरत है। इस मामले में हमें 3 पहलुओं का ध्यान रखना होगा।पहली बात यह कि उच्च विकास दर के दौर से गुजर रहा कोई भी देश तेजी के मध्यक्रम में खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं रहा है। चाहे यूरोपीय देश हों या अमेरिका, यह बात सभी के साथ लागू होती है।


हालांकि इसकी वजह बहुत साफ है। दरअसल, आय में बढ़ोतरी के कारण फूड की मांग में भी बढ़ोतरी हो जाती है, लेकिन कृषि मांग की नई परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने में थोड़ा सुस्त होती है। इसलिए जब तक पूर्ति में बढ़ोतरी नहीं होती, आयात जरूरी हो जाता है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में अमेरिका में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था।


भारत में समस्या राजनीतिक वजहों से और गंभीर हो गई है और इसके मद्देनजर कृषि को खाद्यानों की बढ़ती मांग के अनुरूप खुद को ढालने में बाधा उत्पन्न होती है।इस बात को समझना काफी जरूरी है कि फूड के मामले में फिलहाल आत्मनिर्भरता की बात गलतफहमी है। समझदारी इसी में है कि इन परिस्थितियों से प्राप्त होने वाले फायदे का इस्तेमाल किया जाए और कुछ दशकों बाद उत्पादन और व्यापार संबंधी पैटर्न को तय किया जाए।


आशय यह है कि इस मसले को सिर्फ खाद्य सुरक्षा के मामले से जोड़कर न देखा जाए। इसके बजाय हमें इसे कीमतों में स्थिरता और फूड प्रोसेसिंग इंड़स्ट्री से भी जोड़कर देखना चाहिए, जिसका भारत में अभाव दिखता है। अगर कुछ अन्य देशों के अनुभवों को देखा जाए तो  बेहतर गुणवत्ता हासिल करने के लिए खाद्य पदार्थों का आयात सीधे फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री द्वारा किया जाएगा।


भारत में फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री का विकास काफी धीमा है, क्योंकि नेताओं का कहना है कि इंडस्ट्री द्वारा आयात का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ेगा। यह सच नहीं है। किसानों का बाजार बिल्कुल अलग है और उनकी समस्याओं की वजह घरेलू नीतियां हैं न कि विदेशी ‘प्रतिस्पर्धा’।दूसरी बात यह कि हमें इस बात को दोहराने से बचना चाहिए कि  भारत 1950 के दौर में फिर से पहुंच गया है, जब भारत को खाद्यान का आयात करना पड़ा था।


दरअसल, खाद्यान्न का आयात कम होने की वजह जीडीपी की विकास दर का कम होना था। अब जैसे-जैसे जीडीपी बढ़ेगी, आयात भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। अर्थशास्त्र में इसे एंजेल्स लॉ कर्व कहा जाता है। यह नियम कहता है कि जैसे-जैसे लोगों की आय में बढ़ोतरी होती है, उसी रफ्तार में खाद्य पदार्थों की खपत भी तेज होती है। हालांकि लोग अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही खाद्य पदार्थों पर खर्च करते हैं।


अब इसकी तुलना लोगों की बचत के रवैये से भी करना जरूरी है। 50 के दशक में भारत को विदेशी बचत (सहायता के रूप में) की जरूरत थी, क्योंकि हमारी बचत दर काफी कम थी। इसकी प्रमुख वजह देश के जीडीपी दर का कम होना था। लेकिन अब उच्च विकास दर और बचत दर के 30 फीसदी से ज्यादा होने के बावजूद हमें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के रूप में विदेशी बचत की जरूरत है। हमें आयात की वजहों पर तवज्जो देने की जरूरत है, न कि आयात पर हायतौबा मचाने की।


तीसरी बात यह है कि भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अपनी स्थिति की समीक्षा कर सकता है। अब तक हमारे देश ने डब्ल्यूटीओ में अमेरिका को प्रमुख विरोधी के रूप में देखा है। मसला यह है कि अगर भारत भारी मात्रा में खाद्य पदार्थों का आयात करता है तो कृषि पर सब्सिडी देने वाले मुल्कों से उसे फायदा पहुंचेगा। जाहिर है सब्सिडी की वजह से इन देशों के कृषि उत्पादों की कीमत काफी कम होगी।


बगैर सब्सिडी के इन देशों में खाद्यानों की कीमतें काफी ज्यादा होंगी और भारत को इसके आयात पर रकम खर्च करनी होगी।यह कुछ ऐसा ही है जिस तरह भारत चीन और पूर्वी एशियाई देश अपने पास ज्यादा डॉलर रिजर्व होने की वजह से अमेरिकी उपभोक्ताओं को सब्सिडी दे रहे हैं। कृषि के मामले में अमेरिकी करदाता भारतीय उपभोक्ताओं को सब्सिडी देंगे। डब्ल्यूटीओ में सौदे के मामले में भारत का यही आधार होना चाहिए।


भारत के लिए इस बात का कोई तुक नहीं बनता है कि वह अमेरिका से किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने को कहे। भारतीय किसानों के निर्यातक बनने की संभावना अगले 50 साल तक में भी नजर नहीं आती। हमें इस हकीकत को स्वीकार करना चाहिए।


आत्मविश्वास की कमी और डर वाला पुराना भारत अब खत्म हो चुका है। नए भारत की फितरत ठीक इसके उलट है। यह हकीकत कृषि संबंधी नीतियों में भी प्रतिबिंबित होनी चाहिए। हमें इस चुनौती को नजरअंदाज करने के बजाय इसका सामना करना चाहिए।

First Published - March 28, 2008 | 11:18 PM IST

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