उम्रदराज होती आबादी के कारण एशिया के समृद्ध देशों में पूंजी निर्माण कम हो सकता है। ऐसे में ग्लोबल ग्रोथ पर भी बुरा असर पड़ सकता है। इस विषय में बता रहे हैं नीलकंठ मिश्र
बीते तीन महीनों के दौरान हमने इस स्तंभ में एशियाई देशों के नागरिकों की बढ़ती उम्र के प्रभावों में से तीन पर चर्चा की है। हमने बात की कि एशिया के दस बड़े देशों (ए-10 यानी चीन, भारत, इंडोनेशिया, जापान, फिलिपींस, वियतनाम, थाईलैंड, कोरिया, मलेशिया और ताइवान) में जनांकीय बदलाव की दर आर्थिक बदलाव से तेज है, श्रम शक्ति की गुणवत्ता, संख्या को पीछे छोड़ देगी और एशिया दुनिया को बचत मुहैया कराता रहेगा। इस चौथे और अंतिम हिस्से में हम देखेगे कि वैश्विक वृद्धि पर इसका क्या असर होगा।
बीते तीन दशक में ए-10 अर्थव्यवस्थाओं ने वैश्विक जीडीपी वृद्धि में निरंतर योगदान किया है और 2014 से 2019 के बीच यह योगदान बढ़कर 70 फीसदी हो गया।
इससे पिछले पांच वर्षों में यह 40 फीसदी और 1994 से 1999 के बीच 10 फीसदी बढ़ा था। चीन का विकास जहां मुख्य कारक था, वहीं भारत तथा आसियान अर्थव्यवस्थाओं में टिकाऊ वृद्धि ने भी इसमें योगदान किया है।
विश्लेषण करने पर यह जीडीपी वृद्धि को तीन कारकों में बांटने में मदद मिलती है: श्रम, पूंजी और कुल कारक उत्पादकता (टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी यानी टीएफपी)। दूसरे शब्दों में कहें तो और अधिक श्रमिकों की मदद लेकर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है या उनसे ज्यादा घंटों तक काम कराकर ऐसा किया जा सकता है। पूंजी के इस्तेमाल से भी उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
उदाहरण के लिए मशीन या कार्यशील पूंजी के इस्तेमाल से। मानव और पूंजी का कितना बेहतर इस्तेमाल करके उत्पादन बढ़ाया जाता है इसका पैमाना टीएफपी है। उदाहरण के लिए अगर हमें किसी फर्म द्वारा लिखित शोध रिपोर्ट बढ़ाने की आवश्यकता है तो हम और अधिक विश्लेषकों (श्रमिक) को जोड़ सकते हैं, उन्हें अधिक डेटाबेस तक पहुंच मुहैया करा सकते हैं और तेज गति से काम करने वाले कंप्यूटर (पूंजी) दे सकते हैं। इसके अलावा हम उन्हें सहयोग के जरिये और अधिक डेटा जुटाने में मदद कर सकते हैं।
पिछले कम से कम 15 वर्षों से श्रमिकों की तादाद वृद्धि का बड़ा कारक नहीं रहा है। यहां तक कि सन 1999 से 2004 के बीच जब जापान का छोड़कर शेष ए-10 देशों में कामगार आबादी का आकार बढ़ रहा था, श्रमिकों की तादाद सालाना 0.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था और कुल वृद्धि के छठे हिस्से से भी कम था।
2005 से 2014 के बीच इसमें कमी आई और यह सालाना 0.4 फीसदी रह गई जबकि 2014 से 2019 के बीच केवल 0.3 फीसदी। समग्र वृद्धि में इसका योगदान सीमित रहा। 2015 से 2019 के बीच
ए-10 देशों की जीडीपी वृद्धि में कमी का एक अहम कारण टीएफपी की कमजोर वृद्धि भी रही। इसी अवधि में भारत और थाईलैंड में यह तेज रही लेकिन अन्य देशों में इसमे कमी आई तथा चीन में यह नकारात्मक हो गई।
यह व्यापारिक युद्ध और भूराजनीतिक तनाव शुरू होने के चलते आर्थिक साझेदारियों के प्रभावित होने के पहले की बात है। इसका अर्थ यह है कि चुनौतियां कहीं अधिक गहरी हो सकती हैं। समग्र जीडीपी वृद्धि में टीएफपी का योगदान समय के साथ काफी अधिक हो सकता है। हालांकि इसे आकार देने वाले बदलाव धीमे और स्थिर हैं।
हमारी नजर में पूंजी निर्माण में अवश्य जोखिम है जो बीते दो दशकों में ए-10 देशों में जीडीपी वृद्धि में सबसे अधिक योगदान करने वाला रहा है। कई देशों में पूंजी के इस्तेमाल में काफी उछाल आई है। इनमें भारत, इंडोनेशिया और फिलिपींस शामिल हैं लेकिन चीन की वृद्धि में पूंजीगत कारक प्रभावी रहे हैं।
श्रम संबंधी कारकों में जहां बदलाव आमतौर पर धीमा और प्राकृतिक होता है वहीं पूंजी के इस्तेमाल पर नियमन से असर होता है। उदाहरण के लिए वित्तीय संस्थानों में नियामकीय आरक्षित स्तर तय करना ताकि वित्तीय तंत्र को सुरक्षित रखा जा सके और साथ ही जरूरी वृद्धि हासिल हो। अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का निर्णय भी ऐसा ही है।
जनांकिकी भी निवेश की मांग में अहम भूमिका निभाती है, खासतौर पर अचल संपत्ति और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में। इस मामले में चीन की अचल संपत्ति की समस्या दुनिया की वृद्धि के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है। जैसी कि काफी चर्चा भी रही चीन की विसंगतिपूर्ण ढंग से ऊंची पूंजीगत वृद्धि इसलिए रही क्योंकि उसका ध्यान अधोसंरचना पर किए जाने वाले व्यय और अचल संपत्ति संबंधी निवेश में इजाफे पर रहा।
एक हालिया पर्चे में केनेथ रोजॉफ और युआनचेन यांग ने दिखाया कि बड़े शहरों में आवास क्षेत्र की करीब 80 फीसदी हिस्सेदारी तीसरे दर्जे के शहरों में है जहां 2021 में आबादी दो फीसदी घटी और कीमतों में 2021 के आरंभ की तुलना में 15 फीसदी गिरावट आई।
इसके अलावा ये शहर अधोसंरचना निर्माण में काफी हिस्सेदार थे। उदाहरण के लिए 2020 में बनी 92 फीसदी सड़कें यहीं बनी थीं। इनकी फंडिंग जमीन को अचल संपत्ति कारोबारियों को बेचकर की जा रही है। चीन के अचल संपत्ति कारोबार के एक विशेषज्ञ ने गत वर्ष नवंबर में क्रेडिट सुइस की टीम से कहा था कि मौजूदा इन्वेंटरी और कीमतों में गिरावट को देखते हुए कह सकते हैं कि तीसरे से पांचवें दर्जे के शहरों में अचल संपत्ति बाजार को सुधरने में चार से पांच साल का समय लग जाएगा।
चीन के जीडीपी में अचल संपत्ति का योगदान 15 फीसदी है जबकि उम्रदराज होती आबादी वाले विकसित एशियाई बाजारों में पांच फीसदी। चीन के तीसरे दर्जे के शहरों में अचल संपत्ति निर्माण में आने वाला धीमापन पूरी दुनिया की वृद्धि के लिए बाधा साबित हो सकता है।
भारत में अचल संपत्ति का चक्र करीब एक दशक की मंदी के बाद सुधर रहा है। इससे आने वाले वर्षों में भारत की वृद्धि को मदद मिलनी चाहिए। लेकिन यह इतना बड़ा नहीं है कि वैश्विक वृद्धि को प्रभावित करे।
ऐसे में ए-10 अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती उम्र का असर श्रम आपूर्ति के कारण कम और जननांकिकीय चुनौती वाले
एशिया के अमीर देशों में पूंजी की स्थापना की धीमी वृद्धि के कारण अधिक होगा। ए-10 देशों में धीमी होती कारक उत्पादकता वृद्धि एक और चुनौती है।
भारतीय नीति निर्माताओं के लिए वृद्धि के नजरिये से भी सबक हैं। चूंकि श्रमिकों की स्थिति बदलना मुश्किल है और टीएफपी में धीमी गति से बदलाव आता है इसलिए जीडीपी वृद्धि को तेज गति तभी प्रदान की जा सकती है जब पूंजी प्राप्ति में तेजी आए।
इसमें नीतियों और प्राप्त होने वाले विदेशी निवेश से मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए जो विदेशी विनिर्माता भारत को विनिर्माण के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं वे अग्रिम मूल्य समझौते पर हस्ताक्षर करना चाह सकते हैं।
फिलहाल इसमें छह महीने या उससे अधिक वक्त लगता है। इन्हें और सहज बनाकर हम आगे बढ़ सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि वियतनाम के निर्यात में दो तिहाई हिस्सा उन विदेशी कंपनियों का है जो वहां रहकर काम कर रही हैं।