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वायु प्रदूषण से निपटने का क्या हो तरीका

समस्या यह है कि भारतीय नीति-निर्माताओं को एनसीआर की बिगड़ती वायु गुणवत्ता को भौगोलिक रूप से स्थानीय मौसमी घटना के रूप में देखते हैं।

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प्रसेनजित दत्ता   
Last Updated- November 11, 2024 | 10:28 PM IST

पिछले दो दशक से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में वायु प्रदूषण और वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) के आंकड़े हर वर्ष अक्टूबर में सुर्खियों में आते हैं। अखबार के पहले पन्ने पर प्रदूषित हवा की खबरें होने के साथ ही टेलीविजन पर भी इस मुद्दे पर चर्चा होती है। इसी दौरान अस्पतालों में फेफड़े और सांस संबंधी बीमारियां बढ़ने की रिपोर्ट भी आती है।

इसके अलावा अगर दुनिया भर में सबसे प्रदूषित शहरों का जिक्र होता है तो उसमें भी दिल्ली शीर्ष पायदान पर होता है। वायु प्रदूषण के मामले में राजनीतिक दलों के नेता भी पीछे नहीं रहते और वायु प्रदूषण के संभावित कारकों को लेकर एक-दूसरे पर दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं।

दिल्ली और इसके पड़ोसी राज्य हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब एक-दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी का आरोप लगाते हैं। इसके लिए किसानों द्वारा पराली जलाना, वाहनों के प्रदूषित उत्सर्जन और निर्माण से जुड़े कार्यों को भी दोषी ठहराया जाता है।

हालांकि अपने स्तर पर राज्य सरकारें भी कई उपायों की घोषणा करती हैं जिनमें दीवाली में पटाखों पर प्रतिबंध लगाने से लेकर सप्ताह के खास दिनों में विषम या सम संख्या वाली कारों की अनुमति देने जैसे उपाय शामिल हैं। इसके अलावा अन्य निर्माण कार्यों को अक्सर कुछ दिनों, हफ्तों या महीनों के लिए रोक दिया जाता है।

इनमें से किसी भी उपाय को स्थायी समाधान नहीं माना जा सकता और न ही इन्हें विशेष तौर पर लागू किया जाता है। एनसीआर के लोग खराब होती वायु गुणवत्ता और अपने परिवारों के स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव की परवाह किए बिना, पटाखों पर लगाए गए प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हैं। वाहन यातायात और इससे होने वाले उत्सर्जन में भी ज्यादा कमी नहीं आती है।

इस तरह के हालात बनने पर एयर प्यूरीफायर की बिक्री बढ़ जाती है और जो नागरिक इन महंगे उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं को नहीं खरीद सकते हैं उन्हें खराब हवाओं वाली सर्दी के मौसम का सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह तब तक जारी रहता है जब तक कि गर्मी का मौसम आने से हवा की गुणवत्ता में सुधार नहीं हो जाता है। इसके बाद फिर मॉनसून आ जाता है। हालांकि, इन बेहतर महीनों के दौरान प्रदूषण का स्तर धीरे-धीरे कम होता जाता है। साथ ही हवा की गुणवत्ता खतरे के स्तर से नीचे आ सकती है, लेकिन प्रदूषण बना रहता है।

समस्या यह है कि भारतीय नीति-निर्माताओं को एनसीआर की बिगड़ती वायु गुणवत्ता को भौगोलिक रूप से स्थानीय मौसमी घटना के रूप में देखते हैं। इसके अलावा वे इस बात का संज्ञान भी नहीं लेते या इसकी गणना नहीं करते हैं कि साल दर साल, कई महीने तक नागरिक जिस गंभीर वायु प्रदूषण से जूझ रहे हैं उसका दीर्घकालिक तौर पर स्वास्थ्य पर क्या असर होगा और इसका आर्थिक प्रभाव क्या पड़ेगा।

नीति निर्माता, दीर्घकालिक समाधानों के बजाय त्वरित समाधानों पर ध्यान देते हैं। वे इस बात की अनदेखी करते हैं कि सर्दी के मौसम में वायु प्रदूषण वास्तव में ग्लोबल वॉर्मिंग, उत्सर्जन और पर्यावरण क्षरण के व्यापक मुद्दे का सिर्फ एक पहलू है, जिसके लिए व्यापक दृष्टिकोण, केंद्र सरकार, राज्य और स्थानीय सरकारों के संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है।

वायु गुणवत्ता से जुड़े वार्षिक आंकड़े दर्शाते हैं कि सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषण से प्रभावित होने वाले अधिकतर लोग सिर्फ भारत में नहीं हैं बल्कि वे पाकिस्तान के सिंधु नदी-गंगा घाटी के मैदानी इलाके में भी मौजूद हैं। हालांकि हमारे पड़ोसी देश प्रदूषण से निपटने के लिए किस तरह की नीतियां अपना रहे हैं, उसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता है लेकिन केंद्र सरकार और राज्यों की अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्थाओं के बावजूद, साथ मिलकर काम करने से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नीति निर्माताओं को यह समझने की जरूरत है कि समस्या की अनदेखी करने से कम होती जीवन प्रत्याशा, बच्चों की बढ़ती बीमारी, मृत्यु दर में वृद्धि, गरीबों के लिए इलाज के अधिक ऋण लेने जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं और इसके अलावा उत्पादकता में भी कमी आ सकती है जिससे आर्थिक विकास में बाधा पहुंचेगी।

वायु गुणवत्ता में सुधार की रणनीति के लिहाज से दो मोर्चे पर कार्रवाई करने की आवश्यकता है जिसमें उत्सर्जन कम करना और कार्बन सिंक/कार्बन कैप्चर तंत्र की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार करना शामिल है। (कार्बन सिंक उपयुक्त नाम नहीं है और अध्ययनों से पता चलता है कि प्रभावी कार्बन सिंक न केवल कार्बन डाइ ऑक्साइड का निपटान करते हैं बल्कि वे सल्फर डाइऑक्साइड और अन्य प्रदूषकों में भी कमी लाते हैं।) इसके लिए समाधान उपलब्ध हैं और कोलंबिया और मेक्सिको से लेकर दक्षिण कोरिया और घाना जैसे देश भी इस लिहाज से सफल केस स्टडी साबित हो सकते हैं जिनसे वे प्रेरणा ले सकते हैं।

उत्सर्जन कम करने के लिए कई व्यावहारिक साधन उपलब्ध हैं, बशर्ते बिजली उत्पादन, विनिर्माण, निर्माण गतिविधि और वाहनों के उत्सर्जन जैसे क्षेत्रों में संयुक्त रूप से कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति हो। इस तरह के मामलों में समाधान सबको मालूम है। यह सुनिश्चित करना कि ताप विद्युत संयंत्र उत्सर्जन कम करने के लिए पहले कदम उठा रहे हैं और फिर दीर्घावधि में इसे अक्षय ऊर्जा उत्पादन से बदला जा रहा है, यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

सभी के लिए एक विश्वसनीय बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करना अच्छा है चाहे वह ताप विद्युत संयंत्रों से ही क्यों न हो और यह स्थानीय स्तर पर डीजल जेनरेटर पर निर्भर रहने से बेहतर है। आमतौर पर किसी कारखाने या किसी पॉश आवासीय क्षेत्र में अक्सर बिजली कटौती की स्थिति में डीजल जेनरेटर का इस्तेमाल होता है। छतों पर सौर ऊर्जा उपकरणों को लगाने में तेजी लाना एक और महत्त्वपूर्ण कदम है, खासतौर पर तब जब केंद्र सरकार प्रोत्साहन देने की योजना बना रही है।

वाहन प्रदूषण मुख्य रूप से अपर्याप्त और खराब सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था, बिना बेहतर योजना के बनाई गई सड़कों और खराब शहरी योजना के कारण होता है। अधिकांश भारतीय शहरों में, वाहनों का प्रदूषण मुख्य रूप से खराब सड़क योजना के कारण होने वाले यातायात जाम के कारण होता है। साइकिल लेन और फुटपाथ के न होने से उत्सर्जन बढ़ता है।

यातायात जाम कम करने से ट्रैफिक से होने वाला उत्सर्जन भी कम होगा। यह सुनिश्चित करना अहम है कि विनिर्माण केंद्र उत्सर्जन और प्रदूषण मानदंडों का पालन करें न कि प्रदूषक तत्त्वों को हवा और पानी में छोड़ना बड़ा कदम होगा। प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों तरह के कार्बन सिंक, नाटकीय रूप से उत्सर्जन कम कर सकते हैं और हवा की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं।

लंबे समय से जंगल, हरे-भरे क्षेत्रों और जल के बड़े स्वच्छ स्रोतों जैसे प्राकृतिक कार्बन सिंक को नजरअंदाज किया गया है। पेड़ बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन का अवशोषण कर सकते हैं और साथ ही गर्मी के दिनों में तापमान भी कम कर सकते हैं जिसके चलते कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद मिलती है। स्वच्छ जल स्रोत जैसे कि नदियां और झीलें भी कार्बन अवशोषित कर सकती हैं। ऐसे में यमुना के प्रदूषण को साफ करने से भी मदद मिल सकती है। ताप विद्युत संयंत्र और अन्य ताप ऊर्जा संचालित विनिर्माण सुविधाएं कृत्रिम कार्बन सिंक बना सकती हैं जैसे कि कार्बन कैप्चर, सिक्वेस्ट्रेशन तंत्र आदि।

समस्या यह नहीं है कि इसका समाधान मौजूद नहीं है। असल मुद्दा यह है कि नीति-निर्माता शायद ही यह महसूस करते हैं कि सर्दियों के वायु प्रदूषण (और भीषण गर्मी) का नकारात्मक प्रभाव होता है। जब उन्हें इसका अहसास हो जाता है तब वे शायद ही इसके लिए कुछ करते हैं।

(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेस वर्ल्ड के संपादक रह चुके हैं तथा संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)

First Published : November 11, 2024 | 10:23 PM IST