facebookmetapixel
मुंबई में 14 साल में सबसे अधिक संपत्ति रजिस्ट्रेशन, 2025 में 1.5 लाख से ज्यादा यूनिट्स दर्जसर्वे का खुलासा: डर के कारण अमेरिका में 27% प्रवासी, ग्रीन कार्ड धारक भी यात्रा से दूरBank Holiday: 31 दिसंबर और 1 जनवरी को जानें कहां-कहां बंद रहेंगे बैंक; चेक करें हॉलिडे लिस्टStock Market Holiday New Year 2026: निवेशकों के लिए जरूरी खबर, क्या 1 जनवरी को NSE और BSE बंद रहेंगे? जानेंNew Year Eve: Swiggy, Zomato से आज नहीं कर सकेंगे ऑर्डर? 1.5 लाख डिलीवरी वर्कर्स हड़ताल परGold silver price today: साल के अंतिम दिन मुनाफावसूली से लुढ़के सोना चांदी, चेक करें ताजा भाव2026 के लिए पोर्टफोलियो में रखें ये 3 ‘धुरंधर’ शेयर, Choice Broking ने बनाया टॉप पिकWeather Update Today: उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड और घना कोहरा, जनजीवन अस्त-व्यस्त; मौसम विभाग ने जारी की चेतावनीShare Market Update: नए साल से पहले बाजार में जोरदार तेजी, सेंसेक्स 650 अंक उछला; निफ्टी 26150 के पारStocks To Watch Today: डील, डिमांड और डिफेंस ऑर्डर, आज इन शेयरों पर रहेगी बाजार की नजर

पूंजी प्रवाह पर क्या हो सही प्रतिक्रिया

रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा बाजार में जो हस्तक्षेप किया है वह आवश्यक था। परंतु अब उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि रुपये में आगे और अधिमूल्यन न हो। बता रहे हैं जनक राज

Last Updated- December 02, 2024 | 9:54 PM IST
What should be the right response to capital inflows? पूंजी प्रवाह पर क्या हो सही प्रतिक्रिया

भारतीय रुपया सितंबर 2024 के अंतिम सप्ताह में उस समय दबाव में आ गया जब विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने भारतीय पूंजी बाजार में विशुद्ध बिकवाली आरंभ कर दी। इसके परिणामस्वरूप पूंजी बाहर जाने लगी। बहरहाल, व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा बाजार में दखल दिया जिससे कुछ हलकों में यह चिंता भी उत्पन्न हुई कि क्या यह सही रणनीति है?

एफआईआई ने 25 सितंबर से भारतीय बाजार से पूंजी निकालनी शुरू की। इससे एक दिन पहले ही पीपल्स बैंक ऑफ चाइना ने मौद्रिक प्रोत्साहन घोषित किया था। इसके तुरंत बाद चीन में राजकोषीय प्रोत्साहन दिया गया। चूंकि चीन में शेयरों का मूल्यांकन सस्ता था और प्रोत्साहन ने शेयर कीमतों में इजाफे की संभावना पैदा कर दी थी इसलिए एफआईआई ने भारत से पैसा निकालकर चीन में निवेश करना आरंभ कर दिया।

इन निवेशकों के बाहर जाने की दूसरी प्रमुख वजह थी भारतीय कंपनियों की ओर से दूसरी तिमाही के निराश करने वाले परिणाम। खासतौर पर कुछ जानी-पहचानी दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियां। इससे संकेत निकला की देश में खपत कमजोर पड़ रही है। इससे भारतीय शेयरों का मूल्यांकन और अधिक महंगा हो गया और एफआईआई ने भारतीय शेयर बाजार में बिक्री जारी रखी।

पोर्टफोलियो निवेशकों के बाहर जाने की तीसरी वजह रही छह नवंबर को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों का नतीजा। यह मानते हुए कि नए प्रशासन की नीतियां मुद्रास्फीति को बढ़ावा देने वाली होंगी तथा अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व शायद फेड फंड में अपेक्षित कटौती नहीं कर सकेगा, डॉलर सूचकांक (छह अन्य प्रमुख मुद्राओं के समक्ष डॉलर की मजबूती आंकने वाला) जो पहले ही 103.4 के उच्च स्तर पर था, वह चुनाव परिणामों के दिन बढ़कर 105.1 पर पहुंच गया।

इसमें लगातार मजबूती आती रही और 26 नवंबर को यह 107 हो गया। हालांकि अगले दिन यह पुन: कम होकर 106.1 रह गया। इससे संकेत मिलता है कि अमेरिकी डॉलर मजबूत है और एफआईआई जोखिम से मुक्त हैं। मजबूत डॉलर आमतौर पर भारत समेत उभरते बाजारों के लिए नकारात्मक होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसके चलते डेट और इक्विटी दोनों बाजारों से पूंजी बाहर जाती है।

27 सितंबर से 25 नवंबर के बीच अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में नॉमिनल स्तर पर 0.7 फीसदी अवमूल्यन देखने को मिला। बहरहाल, यह अवमूल्यन समान अवधि में अधिकांश उभरते और विकसित देशों की मुद्राओं में हुए अवमूल्यन की तुलना में काफी कम था। उदाहरण के लिए रूसी रूबल में इस अवधि में 10.1 फीसदी की गिरावट आई।

जापानी येन, मलेशियन रिंगिट, थाई भाट, ब्राजीलियन रियल, दक्षिण कोरियाई वॉन, ब्रिटिश पाउंड, यूरो, दक्षिण अफ्रीकी रैंड और फिलीपींस की मुद्रा पेसो में 5 से 7.6 फीसदी गिरावट देखी गई। इंडोनेशियाई रुपिया, मैक्सिकन पेसो, अर्जेंटिना के पेसो और चीन की मुद्रा युआन में 3.2 से 4.8 फीसदी के बीच गिरावट देखने को मिली। तुर्की की मुद्रा लीरा में 1.3 फीसदी गिरावट आई।

25 सितंबर से 25 नवंबर के बीच करीब 14.3 अरब डॉलर मूल्य का निवेश एफआईआई ने निकाला। इससे विदेशी मुद्रा बाजार के लिए अजीब हालात तैयार हो सकते थे। ऐसे में विदेशी मुद्रा बाजार को व्यवस्थित रखने की अपनी नीति के तहत रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा बाजार में दखल दिया। यही वजह है कि उसके भंडार में 47 अरब डॉलर की कमी आई और वह 27 सितंबर 2024 के 705 अरब डॉलर से कम होकर 15 नवंबर 2024 को 658 अरब डॉलर रह गया।

विदेशी मुद्रा भंडार में यह कमी कुछ हद तक मूल्यांकन प्रभाव के कारण थी क्योंकि अन्य आरक्षित मुद्राओं की कीमत भी डॉलर की तुलना में कम हो रही थी। वहीं 10 वर्षीय अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल के 25 सितंबर के 3.79 फीसदी से बढ़कर 25 नवंबर को 4.27 फीसदी होने के बाद बॉन्ड कीमतों में गिरावट देखने को मिली।

बहरहाल अक्टूबर-नवंबर में विदेशी मुद्रा भंडार कम होने के बावजूद रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार कैलेंडर वर्ष के आधार पर 35 अरब डॉलर अधिक रहा। वित्तीय वर्ष के आधार पर भी 15 नवंबर 2024 तक यह 12 अरब डॉलर ज्यादा था। पूंजी की वापसी के तमाम हालिया प्रकरणों में रुपये का अवमूल्यन तेजी से हुआ था।

उत्तर-अटलांटिक वित्तीय संकट (अगस्त 2008 से मार्च 2009) के दौरान इसमें 16 फीसदी, 2013 में टैपर टैंट्रम (23 मई से 30 अगस्त) के दौरान 15.4 फीसदी, चीन में मंदी और युआन के अवमूल्यन (अप्रैल 2015 से फरवरी 2016) के दौरान 8.7 फीसदी, कोविड महामारी के दौरान 5.0 फीसदी और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उत्पन्न भूराजनैतिक चिंताओं के बीच इसमें 6.5 फीसदी की गिरावट आई। ऐसे में अगर रिजर्व बैंक हस्तक्षेप नहीं करता तो 14 अरब डॉलर मूल्य की राशि का बाहर जाना विदेशी मुद्रा बाजार में विसंगति पैदा कर सकता था और वास्तविक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता था।

भारत जैसे उभरती अर्थव्यवस्था और लचीली दर वाले देश में विदेशी मुद्रा भंडार प्रमुख रूप से सावधानी के उद्देश्य से बनाए जाते हैं। इसे रेखांकित करने वाला तर्क यह है कि विदेशी मुद्रा बाजार में विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न होने पर जोखिम कम हो। अगर विपरीत हालात बन ही जाते हैं तो केंद्रीय बैंक को इन मुद्रा भंडारों का इस्तेमाल करके विदेशी मुद्रा बाजार को स्थिर रखना चाहिए।

वास्तव में विदेशी मुद्रा भंडार तैयार करने के तमाम उद्देश्यों में सबसे प्रमुख और सबसे कम विवादास्पद उद्देश्य है पूंजी प्रवाह में तत्काल रुकावट अथवा पूंजी के अचानक बहिर्गमन को रोकना ताकि वास्तविक अर्थव्यवस्था को विदेशी मुद्रा बाजार में विसंगतिपूर्ण परिस्थितियों के दुष्प्रभाव को रोका जा सके।

यह बात महत्त्वपूर्ण है कि मुद्रा के बाहर जाने के बाद भी भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अभी भी उसके जून 2024 तक के बाहरी कर्ज दायित्वों में से 96 फीसदी की भरपाई करने में सक्षम है। यह मोटे तौर पर किसी देश के पूंजी खाते की संवेदनशीलता का आकलन करने वाला उपाय है। इससे संकेत मिलता है कि यह आने वाले साल के कर्ज संबंधी दायित्वों को निभाने के लिए भी पर्याप्त होना चाहिए।

21 नवंबर को 84.49 रुपये प्रति डॉलर के साथ रुपया अपने सबसे कमजोर स्तर पर पहुंच गया था हालांकि 40 मुद्राओं की वास्तविक प्रभावी विनिमय दर अक्टूबर में 107.2 पर थी। यह बताता है कि रुपया अधिमूल्यित था। अक्टूबर में इसमें 1.8 फीसदी का इजाफा हुआ और मार्च 2022 की तुलना में 2.7 फीसदी का।

वास्तविक प्रभावी विनियम दर निर्यात प्रतिस्पर्धा के आकलन के लिए उपयुक्त है, खासतौर पर वस्तु निर्यात के मामले में। अब जबकि पूंजी के और बाहर जाने का जोखिम कम हुआ है और विदेशी मुद्रा भंडार और शेयर बाजार दोनों स्थिर हो चुके हैं तथा दो माह तक लगातार बिकवाली के बाद 22-27 नवंबर के बीच एफआईआई ने भी विशुद्ध खरीदारी की तो यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वास्तविक प्रभावी विनिमय दर के स्तर पर रुपये में और अधिमूल्यन न आए।

First Published - December 2, 2024 | 9:54 PM IST

संबंधित पोस्ट