क्या एक राष्ट्र के रूप में हम अपने सुदूर पूर्वी राज्य मणिपुर की परवाह करते हैं? मणिपुर इस समय ऐसे संकट से गुजर रहा है जिसका सामना 1983-93 के दशक में पंजाब में हिंदू-सिख संबंधों में आई दरार और कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हिंसा एवं उनके पलायन के बाद किसी भारतीय राज्य को नहीं करना पड़ा है।
इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ मगर वास्तव में हम राज्य को लेकर गंभीर ‘नहीं’ हैं। आइए, इसे समझने और स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। जरा उस क्षण की कल्पना करें जब मणिपुर में कोई नया उग्रवादी संगठन सिर उठाता है और यह कहते हुए भारत और सुरक्षाबलों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देता है कि वे एक एक अलग संप्रभु राष्ट्र के लिए लड़ रहे हैं।
एक देश के रूप में हमारा ध्यान तत्काल इस चुनौती पर जाएगा। यानी इस स्थिति में हमारा उत्तर ‘हां’ में होगा क्योंकि यह परिस्थिति राज्य के वर्तमान संकट से अलग होगी। इस तरह, हम कहेंगे कि एक राष्ट्र के रूप में हमें मणिपुर की परवाह है। यह कोई काल्पनिक स्थिति भी नहीं है। राज्य में शुरू से ही कई उग्रवादी संगठन सक्रिय रहे हैं और इंफाल घाटी तथा पहाड़ी जिलों में हिंसक अभियान चलाते रहे हैं।
1980 के दशक में एक समय यह चुनौती इतनी बड़ी थी कि इससे निपटने के लिए सेना की एक पूरी टुकड़ी (सेना की 23वीं टुकड़ी रांची से भेजी गई थी) तैनात करनी पड़ी थी। उन दिनों मणिपुर सुर्खियों में रहता था। मैं यह बात भली-भांति जानता एवं समझ सकता हूं। उस समय मैं शिलॉन्ग में अपने ठिकाने से तीन वर्षों तक (1981-83 तक) इंडियन एक्सप्रेस के लिए पूर्वोत्तर में हो रहे घटनाक्रम पर खबरें लिख रहा था।
अब उस स्थिति पर विचार करें जब जब खतरे को अलगाववादी आंदोलन से नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से अंतर-सामुदायिक या अंतर-जातीय विवाद से जोड़कर देखा जाता है। मणिपुर में इस समय ठीक यही हो रहा है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि राज्य में जो कुछ भी हो रहा है हम उसकी परवाह नहीं कर रहे हैं। राज्य जिस संकट से गुजर रहा है उसका जिक्र समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर या समाचार चैनलों पर प्राइम टाइम (रात्रि 8 बजे के कार्यक्रम में) पर बमुश्किल से हो रहा है।
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हम में से अधिकांश लोगों का ध्यान मणिपुर संकट पर नहीं है। मुझे लगता है कि अगर समाचार चैनलों पर इसे दिखाया भी जाए तो प्रश्न यह उठेगा कि देखेगा कौन? हो सकता है लोगों को ‘द केरला स्टोरी’ या वाराणसी या मथुरा में किसी मस्जिद या मंदिर पर बहस सुनना अधिक महत्त्वपूर्ण लगे। मणिपुर जैसे एक छोटे राज्य में होने वाली घटनाओं को लोग समझना तो दूर सुनने का भी प्रयास नहीं करते हैं। मैं यहां पर कुछ तथ्यों का जिक्र कर रहा हूं ताकि लोग मणिपुर संकट के प्रति गंभीर बनें।
जब हम कर्नाटक में मतों की गिनती हो रही थी और राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे के राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव पर राजनीतिक ज्ञान बांटे जा रहे थे तब तक मणिपुर में लगभग पूरी आबादी का विस्थापन हो चुका था। जी हां, राज्य में ऐसा हो चुका है। इस समय ‘शरणार्थी शिविरों’ से बाहर मैतेई समुदाय के लोगों का पहाड़ी जिलों या आदिवासियों का इंफाल घाटी में मिलना लगभग असंभव है।
मुझे याद नहीं है कि पिछले कई दशकों में ऐसा परस्पर जातीय विस्थापन (सफाया) देश के दूसरे किसी हिस्से में नहीं हुआ था। 10 कुकी विधायकों (सात सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के और तीन इसके सहयोगी दलों के) के प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को सौंपे एक संयुक्त ज्ञापन में ‘जातीय सफाया’ और ‘विभाजन’ दोनों का जिक्र किया। उनके इन शब्दों के प्रयोग में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
प्रभावशाली माने जाने वाला मैतेई समुदाय इसके खिलाफ तर्क दे सकता है लेकिन ‘जातीय सफाया’ और ‘विभाजन’ पर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं। वे केवल इतना तर्क करेंगे कि कुकी नहीं बल्कि वे उत्पीड़न एवं हिंसा का शिकार हुए हैं। सच्चाई यह है कि दोनों ही समुदाय समान रूप से से पीड़ित हैं।
यह आलेख शुक्रवार को लिखा गया था और तब तक मणिपुर में इंटरनेट बंद हुए 15 दिन हो गए थे। वर्तमान समय में लोगों की जिंदगी इंटरनेट से जुड़ी है इसलिए आप समझ सकते हैं कि आम लोगों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा होगा। राज्य में आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और एटीएम के आगे सुबह 4 बजे से ही लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो जाती है। जो लोग मणिपुर से भाग सकते थे वे भाग चुके हैं।
राज्य सचिवालय में किसी कुकी अधिकारी का मिलना लगभग असंभव है। कुकी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राज्य के पुलिस महानिदेशक पी डोंगेल सक्रिय नहीं दिख रहे हैं और आप उन्हें इसके लिए दोष भी नहीं दे सकते हैं। राज्य में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार है।
इसके मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह (पूर्वोत्तर में कांग्रेस से भाजपा में आए प्रमुख नेताओं की फेहरिस्त में वह भी एक हैं) इस सप्ताह के शुरू में राज्य मंत्रिमंडल के अपने चार सहयोगियों, राज्य भाजपा प्रमुख और राज्य के महाराजा लैशेंबा सनजाओबा के साथ दिल्ली तलब किए गए थे। ध्यान देने योग्य है कि ये सभी मैतेई समुदाय से हैं।
कुकी, खासकर भाजपा में शामिल इस समुदाय के लोग स्वयं दिल्ली आए थे और अपने राज्य सरकार से अलग प्रशासन एवं स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आपने इससे पहले किसी दूसरे भारतीय राज्य में ऐसी स्थिति नहीं देखी होगी।
मैं यह भी दावे के साथ कह सकता हूं कि अधिकांश लोगों को इन बातों की जानकारी तक नहीं होगी। प्रश्न एक बार फिर वही है कि क्या हमें वाकई राज्य में घटित होने वाले इन बातों की परवाह हैं। हमारा उत्तर एक बार फिर अस्पष्ट होगा।
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राज्य में जातीय विभाजन नई बात नहीं है। परंपरागत रूप से मणिपुर पर मैतेई राजा का शासन था। महाराजा बुद्धचंद्र ने 11 अगस्त 1947 को भारत के साथ विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए और इसके बाद 21 सितंबर, 1947 को विलय के समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए। शासन मैतेई समुदाय के पास ही रहा। उनकी बहुमत जरूर था मगर मामूली था। इस समय राज्य में उनकी आबादी आदिवासी समुदाय की 45 प्रतिशत की तुलना में 53 प्रतिशत है।
आदिवासी कुकी समूह (कुकी-चिन-जोमी-मिजो-मार) और नगा समूहों (तांगखुल, माओ और कुछ अन्य) में मोटे तौर पर बंटे हैं। सत्ता परंपरागत रूप से हिंदू मैतेई के पास ही रही है। 1963 से मणिपुर में जितने मुख्यमंत्री हुए हैं उनमें केवल दो आदिवासी समुदाय से रहे हैं। इनमें एक यांगमासो शायजा 1974 से 1977 के बीच तीन वर्षों से कम समय के लिए दो बार मुख्यमंत्री रहे। रिशांग किशिंग का कार्यकाल सात वर्षों का रहा।
हालांकि, इनमें कोई भी कुकी समुदाय से नहीं थे। दोनों उखरुल जिले के तांगखुल नगा थे। यह समूह अपने सबसे प्रभावशाली सदस्य टी मुइवा की वजह से शक्तिशाली हो गया था। मुइवा 1970 तक नगा विद्रोहियों के सबसे प्रभावशाली नेता बन गए थे। शाइजा का विवाह नगा विद्रोही गुट के संस्थापक जापू अंगामी फिजो की भतीजी रानो के साथ हुआ था। दोनों ने शांति प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे नगा विद्रोहियों और नई दिल्ली के बीच शिलॉन्ग शांति समझौता हुआ।
मुइवा का नैशलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) इस शांति समझौते में शामिल नहीं हुआ और इसके लोगों ने 30 जनवरी, 1984 को शाइजा की हत्या कर दी। रिशांग और बाद में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद आदिवासियों के पास सीमित राजनीतिक अधिकार रह गए थे। राज्य में मौजूदा संकट का एक कारण यह भी है।
लोग मौजूदा संकट को भाजपा के हिंदू-ईसाई (आदिवासी) संबंधों के नजरिये से भी इसे देखेंगे। मगर ऐसा ना हो तो उचित होगा। यह पूर्ण वास्तविकता नहीं है। जो घटनाक्रम पूरी तरह अक्षमता का परिणाम है उसके पीछे किसी साजिश की कहानी गढ़ना वाजिब नहीं होगा।
जब मैं चार दशकों पहले पूर्वोत्तर पर खबरें लिख रहा था तो मेघालय पर कोई खबर नहीं लिखी जबकि मैं वहां रहा भी था। क्यों? ऐसा इसलिए कि मेघालय में अशांति नहीं थी। हां, मैंने वहां की दिलचस्प एवं कलाकारी पर कुछ खबरें लिखी होंगी। इनमें डॉलीमूर वांखर नाम के एक व्यक्ति की कहानी भी थी जिसने वास्तविक तितलियों के चिह्न वाले ऐशट्रे और वॉल-प्लेट तैयार किए थे। आदिवासी प्रमुख के पास अपनी पुलिस होने की परंपरा और तीरंदाजी के अनोखे खेल पर भी खबरें लिखी थीं।
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एक खासी आईएएस अधिकारी ने उस समय तंज कसते हुए मुझसे पूछा थाः हमें कितने भारतीय मारने की जरूरत है ताकि आपको प्रथम पृष्ठ के लिए खबर मिल सके? क्या यही वजह है कि हम मणिपुर पर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है? क्योंकि वे ‘हमारे’ भारतीय को नहीं मार रहे हैं। फिर प्रश्न उठता है पिछले तीन सप्ताहों के दौरान जो 74 भारतीय मारे गए थे वे कौन थे?
मणिपुर देश का एक छोटा राज्य है जिसकी आबादी 33-35 लाख से अधिक नहीं है। उनकी प्रतिभा ऐसी है कि हम उनके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। सिविल सेवा, सशस्त्र सेना, खेल, आतिथ्य, कला एवं संस्कृति सभी क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति है।
हरेक वह व्यक्ति जो लड़ रहा है, मर रहा है या शरणार्थी बन रहा है वह ‘हमारे’ भारतीय में एक हैं। मणिपुर के लोग हमारे अपने भाई, बहन, बच्चे, साथी हैं। हम उनकी मुश्किलों एवं उत्पीड़न के प्रति असंवेदनशील, लापरवाह एवं अनजान नहीं हो सकते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब हम पूरी तरह असंवेदनशील हो जाएं।