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बैंक निजीकरण से जुड़े विभिन्न पहलू

Last Updated- December 12, 2022 | 8:17 AM IST

मई 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के सत्तारूढ़ होने से ठीक एक पखवाड़ा पहले पी जे नायक की अध्यक्षता वाली भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की समिति ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सरकार के नियंत्रण से बाहर निकालने के लिए एक बैंक निवेश कंपनी के गठन की सिफारिश की थी। इस कंपनी के गठन के लिए कानून में कुछ संशोधन की जरूरत थी। अब सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण के लिए वे संशोधन किए जाएंगे। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस संबंध में पहले ही पहल कर चुकी हैं। अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भारतीय बैंकिंग प्रणाली के लिए पहले की तरह अहम नहीं रह गए हैं।
2014 तक भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पांच सहायक बैंक थे। भारतीय महिला बैंक और इन सभी सहायक इकाइयों का वर्ष 2017 में एसबीआई में विलय हो गया। तब से सार्वजनिक क्षेत्रों के 13 बैंकों का विलय पांच बैंकों में हो चुका है। इस तरह राजग शासनकाल में ऐसे बैंकों की संख्या 25 से कम होकर 12 रह गई। बैंकों के एकीकरण से तो इनकी संख्या जरूर कम हुई है, लेकिन बैंकिंग उद्योग में सरकार नियंत्रित बैंकों की हिस्सेदारी में कोई कमी नहीं आई है और न ही इस उद्योग की परिचालन क्षमता ही मजबूत हुई है। सरकार ने अंतत: यह सच्चाई स्वीकार कर ली है। जिन लोगों को लगता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने राष्ट्र के निर्माण में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और ढांचागत क्षेत्र के लिए रकम की व्यवस्था के साथ ही ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग सेवाएं पहुंचाई हैं उन्हें काफी दुख हो रहा है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक खास मकसद से किया गया था, जो अब पिछले पांच दशकों में पूरा हो चुका है। इनमें कुछ बैंकों की स्थापना का उद्देश्य पूरा हो चुका है। लिहाजा अब हमें अतीत में नहीं जीना चाहिए। 

राष्ट्रीयकरण के बाद सरकार ने एक बैंकिंग विभाग का गठन किया था। इसके जरिये सरकार ने जाहिर कर दिया था कि वह इन बैंकों के परिचालन में भूमिका निभाना चाहती है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर वाई वी रेड्डी इसे संयुक्त परिवार वाला दृष्टिकोण करार देते हैं, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, सरकार और आरबीआई उस अविभाजित हिंदू परिवार का हिस्सा हैं, जिनमें किसी को इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं होती कि कौन क्या कर रहा है। रेड्डी ने कहा था कि उन तीनों के बीच लेनदेन तय प्राथमिकताओं पर आधार होता था और तीनों ही लोगों की सेवाएं कर रहे थे। एक अन्य पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का इसे लेकर स्पष्ट रवैया था कि वित्त मंत्रालय का वित्तीय सेवाओं का विभाग किस तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कामकाज में दखल देता है।
बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम की धारा 8 के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में बहुलांश हिस्साधारक होने के नाते सरकार आरबीआई के साथ विचार-विमर्श करने के बाद बैंकों को दिशानिर्देश जारी कर सकती है। हालांकि डीएफएस के मामले में सरकार द्वारा बैंकिंग नियामक को विश्वास में नहीं लेना एक चलन सा बन गया है। यह मामला ऐसे बैंकों के मालिकाना हक से नहीं जुड़ा है बल्कि इससे संबंधित है कि बहुलांश हिस्सेधारक का व्यवहार कैसा रहता है। आरबीआई भले ही बैंकों का नियामक है लेकिन सारे निर्णय सरकार ही लेती है। यह बात अक्सर कही जाती है कि नियामक अब स्वायत्त नहीं रह गए हैं। एक तरह से वह अब ऐसा राजनीतिक औजार बन चुका है, जिनका इस्तेमाल सरकार ढांचागत क्षेत्र के लिए रकम जुटाने से लेकर एमएसएमई को मदद करने और सरकारी बॉन्ड खरीदने से लेकर राजकोषीय घाटा पाटने तक के लिए करती है। 

राजनीतिक दलों को मदद करने के लिए आरबीआई इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड भी खरीदता हैं। इसका उन लक्ष्यों से भी लेना-देना है जो पहले सरकार तय करती है और फिर इसे बैंकिंग प्रणाली में विभिन्न स्तरों पर लागू कराया जाता है। हाल तक उधारी एवं वसूली की गुणवत्ता ऋण लक्ष्य हासिल करने जितनी महत्त्वपूर्ण नहीं रही हैं। बाजार ऋण परिसंपत्तियों की गुणवत्ता पर करीब से नजर रखता है और इसमें जो फिसड्डी होते हैं उनसे मुंह भी फेर लेता है। हालांकि बाजार निजी बैंकों के लिए सिरदर्द साबित होते हैं। सार्वजनिक बैंकों को इसकी परवाह नहीं होती कि बाजार क्या कहेगा क्योंकि उनके पास सरकार से रकम लेने का विकल्प हमेशा खुला रहता है।
मई 2017 में मैकिंजी इंडिया फाइनैंशियल प्रैक्टिस ने अपनी रिपोर्ट में इस ओर ध्यान दिलाया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक का आकार जितना छोटा होता है परियोजनाओं के लिए धन मुहैया कराने की ललक उतनी ही अधिक होती है। उदाहरण के लिए एसबीआई के कुल ऋण आवंटन में कॉर्पोरेट ऋण की हिस्सेदारी 49 प्रतिशत थी, वहीं मझोले आकार के सार्वजनिक बैंकों के मामले में यह 57 प्रतिशत था। छोटे बैंकों के मामले में यह हिस्सेदारी 63 प्रतिशत थी। ज्यादातर बैंक परियोजना मूल्यांकन और जोखिम प्रबंधन को लेकर बहुत उत्साही नहीं रहे हैं। उन्होंने कंपनियों को आवंटित होने वाले ऋणों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए दौड़ लगाई, लेकिन वे बाद में हालात से नहीं निपट पाए। 

जवाबदेही जैसी चीजों से भी कोई सरोकार नहीं है। मसलन किसी भी सीईओ को उनके खराब प्रदर्शन के लिए बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता है। वरिष्ठ बैंक अधिकारियों जैसे एमडी और सीईओ का वेतन अफसरशाहों से जोड़ दिया गया है। इसकी वजह यह है कि  वित्त मंत्रालय में काम करने वाले सचिव यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि बैंकरों को उनसे अधिक वेतन मिलता है। इन बातों की फेहरिस्त काफी लंबी है। हालांकि पूरे मामले का मूल बिंदु दोहरा नियंत्रण है। अगर हम इसे वायरस कहें तो बजट इसकी रोकथाम के लिए टीका सरीखे हो सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों का निजीकरण महज एक शुरुआत है। कुछ और बैंकों का निजीकरण हो सकता है जबकि कुछ बड़े बैंकों को बाजार में किसी भी विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। वित्तीय समावेशन और सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) और ढांचागत वित्त पोषण के लिए भी बड़े बैंकों की उपस्थिति अनिवार्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए निजीकरण के  पहले चरण में लक्ष्य उन पांच बैंकों पर नहीं होना चाहिए जो विलय के बाद बड़े हो गए हैं। ये दोनों बैंक उनमें चुने जाने चाहिए जो अकेले छोड़ दिए गए हैं। आखिर ऐसे बैंकों को किसे खरीदने की अनुमति मिलनी चाहिए? क्या उनका मूल्यांकन पर्याप्त है?
उपयुक्त एवं सभी लिहाज से दुरुस्त निजी इकाइयों एवं वित्तीय संस्थानों, प्राइवेट इक्विटी फंडों  को ऐसे बैंकों को खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। वैसे भी भारत में गैर-बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र (एनबीएफसी) खंड में इन निजी इकाइयों की खासी उपस्थिति रही है। नैशनल इन्वेस्टमेंट ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (एनआईआईएफ) की तर्ज पर ही एक बैंकिंग निवेश फंड की स्थापना की जा सकती है, जो इन दोनों बैंकों में एक निश्चित सीमा तक निवेश करेगा। एनआईआईएफ निवेश के लिए गठित एक इकाई है जिसके जरिये भारत सरकार और ढांचागत क्षेत्र में संभावनाएं तलाशने वाले अंतरराष्ट्रीय निवेशक एक साथ आए हैं। 

क्या मौजूदा निजी बैंकों और विदेशी बैंकों को बोली लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए? बेशक दी जानी चाहिए। उन्हें भी संभावनाएं तलाशने की इजाजत दी जानी चाहिए। कार्य शैली और मानव संसाधन स्तर पर हो रहे व्यवहार ऐसे विलय को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे। कम ग्राहकों वाले कमजोर बैंकों का भी मूल्यांकन अधिक होता है। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बैंकिंग लाइसेंस की चाह रखने वाली इकाइयों की कमी नहीं होगी। लक्ष्मी विलास बैंक लिमिटेड के लिए डीबीएस बैंक इंडिया लिमिटेड ने जो कीमत दी है और पंजाब ऐंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड के लिए संभावित बोलीदाताओं ने जो उत्साह दिखाया है वह इस बात का गवाह है। बजट में बैंकिंग उद्योग को लेकर की गई तीन बड़ी घोषणाओं में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय साहसिक है, लेकिन बैड बैंक की स्थापना और ढांचागत क्षेत्र के वित्त पोषण के लिए डेवलपमेंट फाइनैंस इंस्टीट्यूशन के गठन का निर्णय कहीं अधिक पेचीदा है। 

(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)
 

First Published - February 15, 2021 | 8:54 PM IST

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