facebookmetapixel
Gratuity Calculator: ₹50,000 सैलरी और 10 साल की जॉब, जानें कितना होगा आपका ग्रैच्युटी का अमाउंटट्रंप के ट्रेड एडवाइजर पीटर नवारो ने BRICS गठबंधन पर साधा निशाना, कहा- यह पिशाचों की तरह हमारा खून चूस रहा हैGold, Silver price today: सोने का वायदा भाव ₹1,09,000 के आल टाइम हाई पर, चांदी भी चमकीUPITS-2025: प्रधानमंत्री मोदी करेंगे यूपी इंटरनेशनल ट्रेड शो 2025 का उद्घाटन, रूस बना पार्टनर कंट्रीGST कट के बाद ₹9,000 तक जा सकता है भाव, मोतीलाल ओसवाल ने इन दो शेयरों पर दी BUY रेटिंग₹21,000 करोड़ टेंडर से इस Railway Stock पर ब्रोकरेज बुलिशStock Market Opening: Sensex 300 अंक की तेजी के साथ 81,000 पार, Nifty 24,850 पर स्थिर; Infosys 3% चढ़ानेपाल में Gen-Z आंदोलन हुआ खत्म, सरकार ने सोशल मीडिया पर से हटाया बैनLIC की इस एक पॉलिसी में पूरे परिवार की हेल्थ और फाइनेंशियल सुरक्षा, जानिए कैसेStocks To Watch Today: Infosys, Vedanta, IRB Infra समेत इन स्टॉक्स पर आज करें फोकस

अ​धिक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की दिशा में

न्यायालय ने निर्वाचन आयोग में नियु​क्तियों पर जो निर्णय सुनाया वह न्यायिक पहुंच के विस्तार का मामला नहीं ब​ल्कि नागरिकों के बुनियादी अ​धिकारों के संरक्षण की को​शिश है। बता रहे हैं टी टी राम मोहन

Last Updated- March 13, 2023 | 9:31 PM IST
Lok Sabha Election 2024
इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियु​क्ति एक ऐसी समिति द्वारा की जाएगी जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (उनकी अनुप​स्थिति में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता) तथा देश के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे।

अब तक ये नियु​क्तियां राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती हैं। देखा जाए तो इस मामले पर पूरा अ​धिकार प्रधानमंत्री के पास ही था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि उसने जो प्रक्रिया सामने रखी है वह तब तक जारी रहेगी जब तक कि संसद इस विषय में कोई कानून नहीं बना देती।

जैसा कि इस निर्णय में कहा भी गया है कि निर्वाचन आयोग के पास महत्त्वपूर्ण श​क्तियां हैं। निर्वाचन आयोग एक राजनीतिक दल का पंजीयन कर सकता है। वह राजनीतिक दलों को मान्यता दे सकता है और उन्हें चुनाव चिह्न आवंटित कर सकता है। जब किसी राजनीतिक दल का विभाजन होता है तो वह तय कर सकता है कि कौन सा धड़ा मूल पार्टी है। वह राजनीतिक दलों को आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के लिए दंडित कर सकता है। किसी प्रत्याशी को चुनाव प्रचार करने से रोक सकता है।

अगर इनमें से किसी भी श​क्ति का दुरुपयोग किया गया तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की प्रक्रिया बा​धित हो सकती है। सभी राजनीतिक दल इस बात को लेकर मुखर रहे हैं कि चुनाव आयोग अपनी श​क्तियों का दुरुपयोग करता रहा है। इसके बावजूद किसी सरकार ने चुनाव आयोग की नियु​क्तियों में कार्यपालिका के दखल को कम करने का प्रयास नहीं किया। ये नियु​क्तियां अफसरशाही में से की जाती रहीं।

कोई भी सरकार हो, वह ऐसे अफसरशाहों को चुनती रही जो उसके अनुकूल हों। बीते वर्षों में कई समितियों और स्वयं निर्वाचन आयोग ने नियु​क्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की अनुशंसा की लेकिन वह हो न सका।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने दखल देना उचित समझा। उसके निर्णय का स्वागत हुआ क्योंकि लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव जरूरी हैं। सही मायनों में स्वतंत्र निर्वाचन आयोग एक अनिवार्य शर्त है।

इस दौरान न्यायालय को कुछ कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। संविधान के संबं​धित अनुच्छेद को पढ़ने पर लगता नहीं कि न्यायालय को हस्तक्षेप का अ​धिकार है। निर्वाचन आयुक्तों की नियु​क्ति से संबं​धित संविधान के अनुच्छेद 324(2) में कहा गया है, ‘निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा उतनी तादाद में निर्वाचन आयुक्त होने चाहिए, जितना कि राष्ट्रपति समय-समय पर तय करें। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य आयुक्तों की नियु​क्ति संसद की ओर से राष्ट्रपति द्वारा इस बारे में बनाए गए कानून के अनुसार होनी चाहिए।’

संविधान ने निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कानून बनाने का काम संसद पर छोड़ दिया। सर्वोच्च न्यायालय का 169 पन्नों का निर्णय पढ़ने लायक है क्योंकि यह इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का न्यायिक और संवैधानिक आधार बताता है। उसने इस विषय में संविधान सभा की बहसों का भी उल्लेख किया।

यह स्पष्ट है कि संविधान सभा के सदस्य नहीं चाहते थे कि निर्वाचन आयुक्त की नियु​क्ति पूरी तरह कार्यपालिका के हवाले हो। वे चाहते थे कि ये नियु​क्तियां कुछ तय मानकों के अनुसार हों। इन्हीं अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए भीमराव आंबेडकर ने संशोधन पेश किया जो संसद को इस नियु​क्ति प्रक्रिया के लिए कानून बनाने की इजाजत देता है।

संसद ने कानून पारित नहीं किया। हमारा निर्वाचन आयोग ऐसा नहीं है कि जो उस स्वतंत्रता की आश्व​स्ति देता हो जैसा कि संविधान निर्माताओं ने चाहा था। अदालती फैसले में अहम बात यह है उसने निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता और नागरिकों के बुनियादी अ​धिकारों के इस्तेमाल को जोड़ दिया है।

मतदान का अ​धिकार बुनियादी अधिकार नहीं है। लेकिन मतदान के समय अ​भिव्य​क्ति की आजादी के अ​धिकार को सर्वोच्च न्यायालय अ​भिव्य​क्ति की आजादी का ही हिस्सा मानता है जो एक बुनियादी अ​धिकार है। मतदाता खुद को तब तक स्वतंत्र ढंग से अ​भिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि उनके पास जरूरी सूचना न हो। एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग यह सूचना मुहैया करा सकता है।

इतना ही नहीं स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का अर्थ यह है कि प्रत्याशी और राजनीतिक दलों के साथ किसी तरह का भेदभाव न हो। अगर ऐसा होता है तो यह समता के बुनियादी अ​धिकार का उल्लंघन होगा। अगर निर्वाचन आयोग स्वतंत्र नहीं हुआ तो नागरिक अ​भिव्य​क्ति और समता के अपने मूल अ​धिकार का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय का मौजूदा हस्तक्षेप इस लिहाज से भी अहम है।

कार्यपालिका द्वारा निर्वाचन आयोग की नियु​क्तियां उसकी स्वायत्तता को किस प्रकार प्रभावित करती है? सर्वोच्च न्यायालय पहले कह चुका है कि अगर किसी व्य​क्ति को दूसरे के किसी कदम से लाभ होता है तो वह इसके बदले जरूर कुछ करेगा। निर्वाचन आयुक्त एक ऐसा पद है जिसे कई अफसरशाह लेना चाहते हैं। अगर कार्यपालिका किसी व्य​क्ति को इस पद पर नियुक्त करती है तो वह निश्चित रूप से कार्यपालिका के प्रति उपकृत महसूस करेगा। ऐसे में एक समिति द्वारा नियु​क्ति होने से उसके निष्पक्ष होने की संभावना बढ़ जाएगी।

सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति विभाजन को लेकर पूरी तरह जागरूक है। वह समझता है कि निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियु​क्ति की प्रक्रिया तय करके वह विधायिका के क्षेत्र में दखल दे रहा है। निर्णय में इस मसले का भी ध्यान रखा गया।

न्यायालय ने कहा कि कानून बनाना पूरी तरह विधायिका का क्षेत्र नहीं है। समय-समय पर दुनिया भर की संवैधानिक अदालतों ने कानून बनाए हैं और नए अधिकारों का सृजन किया है। इतना ही नहीं सबसे बड़ी अदालत हर उस जगह पर दखल दे सकती है जहां वह देखते है कि कर्तव्यों का पालन नहीं हो पा रहा है।

संविधान निर्माताओं ने साफ तौर पर एक कानून की जरूरत की बात कही थी जो निर्वाचन आयोग के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया बताए। संसद सात दशकों तक ऐसा कानून नहीं बना सकी जिसकी वजह से सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा।

न्यायालय की दलीलें बहुत ठोस हैं। उसके निर्णय को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि यहां न्यायपालिका ने अना​धिकार चेष्टा नहीं की है। उसने बस इस बात पर जोर दिया है कि जब तक संसद उपयुक्त कानून नहीं बना लेती है तब तक ऐसी व्यवस्था कायम रह सकती है। अब बेहतर यही होगा कि संसद खुद कोई ठोस हल सुझाए जो संविधान निर्माताओं के सोच के अनुरूप हो।

First Published - March 13, 2023 | 9:31 PM IST

संबंधित पोस्ट