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बुनियादी आय योजना का आ गया वक्त

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 4:03 AM IST

एक अरुचिकर तथ्य यह है कि वर्ष 2016 में आई ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता का असर बीते कुछ वर्षों में धीरे-धीरे कम हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ऊर्जित पटेल की पुस्तक ‘सेविंग द इंडियन सेवर’ से यह पता चलता है कि कैसे सरकार और रिजर्व बैंक ने सन 2015 तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के भारी-भरकम ऋण की अदायगी में चूक की अनदेखी की। इसी तरह 12 फरवरी, 2018 को आरबीआई के एक परिपत्र ने ऋणदाताओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि वे 20 अरब रुपये तक के ऐसे कर्ज की देनदारी में चूक को स्वीकार करें जो राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट के समक्ष 180 दिन से अधिक समय तक लंबित रहा हो।
देनदारी में चूक करने वाली बड़ी कंपनियों के मालिकान जिनके अपनी संपत्ति गंवाने का खतरा उत्पन्न हो गया था, उन्होंने तमाम कानूनी तिकड़म भिड़ाकर कंपनियों का नियंत्रण वापस पा लिया। एक दलील जिसका इस्तेमाल किया गया वह यह थी कि आरबीआई के 2018 के आदेश के मुताबिक वे कंपनियां भी बंद हो जाएंगी जिन्हें उबारा जा सकता था। ऐसे में कर्मचारियों को निकाला जाना भी तय था। वित्त मंत्रालय ने देनदारी में चूकने वालों का पक्ष लिया और सर्वोच्च न्यायालय ने भी अप्रैल 2019 में आरबीआई के 2018 के परिपत्र को खारिज करते हुए ऐसा ही किया।
वित्त वर्ष 2019-20 में भारतीय सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में गिरावट आई और यह आधिकारिक रूप से 4.2 फीसदी रह गई या शायद इससे भी कम। आर्थिक वृद्धि के इन पहले से मौजूद कमजोर हालात में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हालिया माहौल और कोविड-19 महामारी और बुरा असर डालेंगे। हकीकत तो यह है कि रक्षा व्यय को बढ़ाना होगा जबकि आर्थिक गतिविधियां और जटिल कर राजस्व, जिसमें 2020-21 की पहली तिमाही में गिरावट आई, उसमें सुधार होने में एक वर्ष का समय लग सकता है।
वर्ष 2020-21 में भारत की जीडीपी वृद्धि के 5 फीसदी ऋणात्मक से 14 फीसदी ऋणात्मक रहने का अनुमान जताया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप आरबीआई रीपो दर में एक बार फिर कटौती कर सकता है लेकिन बैंकों में नकदी की कोई कमी नहीं है जबकि ऋण चाहने वालों तक उसकी आपूर्ति नहीं हो पा रही है। सरकार को व्यय और अनुदान बढ़ाकर खपत मांग में इजाफा करने की आवश्यकता है। वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने गत सप्ताह कहा कि केंद्र सरकार सार्वजनिक व्यय के जरिये मांग बढ़ाने के पहले इस बात की प्रतीक्षा कर रही है कि कोविड-19 का टीका बन जाए। वित्त मंत्रालय का कहना है कि अगर सरकार अपने घाटे को आरबीआई के साथ सीधे मुद्रीकृत करे और मौजूदा 3.35 फीसदी की रिवर्स रीपो दर पर उधारी ले तो भी लोग ऐसे फंड को खर्च करने के बजाय बचत करना अधिक पसंद करेंगेे। यह बात सही हो सकती है क्योंकि कमजोर आर्थिक वर्ग इस राशि को एकबारगी दिखाई गई उदारता समझकर उसे खर्च करने के बजाय आपात परिस्थितियों के लिए बचा कर रख सकता है।
इस भारी अनिश्चितता को देखते हुए ही सरकार को चाहिए कि वह अंतिम तौर पर पूंजी प्रदाता के रूप में हस्तक्षेप करे। यदि घाटे के प्रत्यक्ष मुद्रीकरण के जरिये जुटाए गए फंड को जन धन खातों में तयशुदा मासिक सार्वभौमिक बुनियादी आय के रूप में जमा किया जाए तो भी लोगों का भरोसा बढ़ेगा और खपत में सुधार होगा। कई लोग ऐसी योजना के खिलाफ भी हैं। जो भी हो, केंद्र सरकार प्रति व्यक्ति बहुत मामूली राशि के साथ इसकी शुरुआत कर सकती है। केवल समझने के लिए 6 लाख करोड़ रुपये सालाना के साथ इसकी शुरुआत की जा सकती है जो जीडीपी का 3 फीसदी है। यह राशि उन महिलाओं को दी जा सकती है जो 21 वर्ष से अधिक उम्र की हैं और जिनके पास आधार कार्ड तथा जन धन खाता है। सरकार का लक्ष्य होना चाहिए अर्हता प्राप्त प्रत्येक महिला को 5,000 रुपये प्रदान करना। कोई भी व्यक्ति जिसके किसी भी बैंक खाते में एक लाख रुपये से अधिक राशि हो या उसके या उसके नाम पर दर्ज अचल संपत्ति का मूल्य 5 लाख रुपये से अधिक हो, उसे योजना के दायरे से बाहर रखना चाहिए। शहरी कामगारों के लिए एक और गड़बड़ मनरेगा योजना शुरू करने के बजाय सार्वभौमिक बुनियादी आय में अनुभव बढऩे के साथ-साथ मौजूदा मनरेगा को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना चाहिए।
बीते चार वर्ष में सरकारी बैंकों को 3 लाख करोड़ रुपये की राशि दी जा चुकी है। इनके पुनर्पूंजीकरण में अगर 10 लाख करोड़ रुपये भी लगा दिए जाएं तो भी कहा जा सकता है कि यह राशि एकबारगी लगेगी बजाय कि सार्वभौम बुनियादी आय योजना के सालाना व्यय के। यह दलील आश्वस्त नहीं करती क्योंकि अतीत में बैंकों को निरंतर उबारा गया है। आय योजना को व्यवहार्य बनाने के लिए इसकी लागत केंद्र और राज्यों को साझा करनी होगी। इसके अलावा बिजली और उर्वरक जैसी सब्सिडी को धीरे-धीरे समाप्त करना होगा। महामारी ने यह दिखा दिया है कि सभी देशों को अर्थव्यवस्था और चिकित्सा सुविधा के लिए सरकार और केंद्रीय बैंक की आवश्यकता है। सन 1970 और 1980 के दशक में भारत मेंं ढेरों प्रतिबंधात्मक नियम कानून थे। इसका असर निजी क्षेत्र के विकास पर पड़ा। सन 2020 में इस दिशा में प्रगति हुई है लेकिन भूमि, श्रम, निगरानी और जांच राज, पुलिस, न्याय व्यवस्था आदि में सुधार अभी तक अधूरे हैं और इस दिशा में काफी काम किया जाना है। फिलहाल तो बिना निजी क्षेत्र की दिक्कतों को दूर किए निजी क्षेत्र संचालित ट्रेन आदि चलाने के सुझाव अनुत्पादक ही साबित हो सकते हैं।
हंगरी मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री कार्ल पोलानायी ने सन 1944 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन’ में एक प्रासंगिक बात कही कि बाजार अर्थव्यवस्था अपने आप में अंत नहीं है। सन 1987 में आई फिल्म ‘वाल स्ट्रीट’ में माइकल डगलस ने गेक्को नामक किरदार निभाया था जो कहता है कि लालच अच्छी बात है। सन 2010 में आई इसकी सीक्वल ‘वाल स्ट्रीट मनी नेवर स्लीप्स’, में गेक्को भेदिया कारोबार के लिए 10 साल की जेल काटने के बाद कहता है कि अब लालच वैधानिक है और वह हर जगह है।
लब्बोलुआब यह कि सरकारी बैंकों, आरबीआई, केंद्र सरकारों द्वारा निजी लालच को उकसाने का करदाताओं, आम बचत करने वालों पर बहुत महंगा असर हुआ है। देश में स्पष्ट पूंजीवादी झुकाव के बीच आवश्यकता यह है कि क्षेत्रवार हालात का ईमानदारी से परीक्षण किया जाए। फिलहाल आवश्यकता यह है कि कोविड-19 महामारी के चलते हासिल राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल एक सुविचारित सार्वभौमिक आय योजना लागू करने में किया जाए।
(लेखक पूर्व भारतीय राजदूत और विश्व बैंक के फाइनैंस प्रोफेशनल हैं)

First Published : July 30, 2020 | 11:38 PM IST