कुलाचे भर रही आकांक्षाओं के बारे में शेक्सपियर ने एक दफा कहा था – आकांक्षाएं ऊंची छलांग मारती हैं और दूसरों पर जाकर गिरती हैं।
यह मुहावरा किसी दूर की कौड़ी जैसे मामले पर पूरी तरह फिट बैठता है, ठीक उसी तरह जैसी भारत-अमेरिका एटमी करार की हालत है। पूर्वी भारत में स्टील और ऐल्युमिनियम के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स या फिर पश्चिमी तट पर चल रहे दाभोल पावर प्रोजेक्ट के मामले भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां करते हैं। दोनों ही मामलों में इतना जरूर कहा जा सकता है कि इनका पूरा होना करीब-करीब नामुमकिन-सा है।
इसकी वजह यह है कि मौजूदा हालात प्रोजेक्ट्स की कामयाबी की जमीन तैयार नहीं कर रहे। इस देश की सचाई यह है कि यहां छोटे प्रोजेक्ट्स आसानी से पूरे किए जा सकते हैं या फिर छोटी नीतियां अमल में लाई जा सकती हैं। इस तरह के प्रोजेक्ट्स की प्रगति भी लगातार हो सकती है। पर यदि किसी बड़े प्रोजेक्ट का बीड़ा उठाया गया तो उसका भगवान ही मालिक है।
दाभोल प्रोजेक्ट का हश्र बुरा इसलिए हुआ, क्योंकि इस प्रोजेक्ट की कामयाबी से महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड की कब्र खुदनी तय मानी जाने लगी थी। नतीजा यह निकाला कि राज्य में महाराष्ट्र में बिजली सुधारों का आगाज होने से पहले ही यह नाकामयाबी के अंजाम तक पहुंच गया। दाभोल की ओर से मुहैया कराई जाने वाली बिजली काफी महंगी होने की बात आई और प्राइस फर्ॉम्युले के मसले पर सारा मामला फंस गया।
नौबत यह आ गई कि या तो दाभोल को जाना होगा या महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड को। कहने की जरूरत नहीं कि इन दोनों में से किस एक के चुने जाने की नौबत आई। समस्या की जड़ यह थी कि दाभोल के पास कुल 2,000 मेगावॉट बिजली पैदा करने की क्षमता थी। यह महाराष्ट्र की कुल बिजली खपत का एक बहुत बड़ा हिस्सा थी। इस बात पर गौर किया जाना जरूरी है कि जिस वक्त दाभोल प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, उसी वक्त कई राज्यों में 250 मेगावॉट के आसपास के कई पावर प्रोजेक्ट फले-फूले और आखिरकार अंजाम तक भी पहुंचे।
गौरतलब है कि इन छोटे प्रोजेक्टों की जवाबदेही भी प्राइवेट कंपनियों को दी गई थी। आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों ने इस तरह के प्रोजेक्टों को अमली जामा पहनाया और इन राज्यों के सरकारी बिजली बोर्डों को इन बातों पर ऐतराज भी नहीं हुआ। उड़ीसा समेत पूरब के कई राज्यों में इतिहास को एक दफा फिर से दोहराया जा रहा है। इन राज्यों में करीब 8 से 9 प्रोजेक्ट जमीन अधिग्रहण और माइनिंग लीज जैसे मसलों पर फंसे हुए हैं।
इन सभी प्रोजेक्टों की हालत पिछले 2 साल से करीब-करीब जस की तस बनी हुई हैं। इनमें ज्यादातर प्रोजेक्ट्स स्टील और ऐल्युमिनियम के हैं। इन राज्यों में भी छोटे प्रोजेक्ट लगातार कामयाब साबित हो रहे हैं और इनकी प्रगति में जमीन और माइनिंग आदि से जुड़ा कोई मसला आड़े नहीं आ रहा।