इन दिनों सावधि जमा पर बैंक ऊंची ब्याज दरों की पेशकश कर रहे हैं। एक से दो वर्ष की अवधि की सावधि जमा पर ब्याज दर 8 प्रतिशत या इससे ऊपर तक पहुंच गई है। बैंकों के बीच जमा रकम के लिए आपाधापी चल रही है और लगभग सभी बैंक बचतकर्ताओं को आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और जमा पर अधिक से अधिक ब्याज की पेशकश कर रहे हैं।
ग्राहकों को आवास ऋण या व्यक्तिगत ऋणों के लिए बैंकों से फोन आते रहते हैं मगर जमा रकम के लिए शायद ही बैंकों के प्रतिनिधि उनसे संपर्क साधते हैं। इसकी वजह यह है कि बैंकों में जमा रकम स्वतः ही आती रहती है और इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया जाता है। मगर अब चीजें अचानक बदल गई हैं। बैंक बचतकर्ताओं को आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और उनसे सोशल मीडिया पर संपर्क साधने के साथ ही उनके घरों तक धमक रहे हैं।
इस नए चलन के बीच आंकड़ों पर विचार करते हैं। बचतकर्ताओं को दो वर्ष की एफडी पर 8 प्रतिशत ब्याज मिलेगा। इस बीच महंगाई 5.3 प्रतिशत स्तर पर रहने का अनुमान लगाया गया है। यानी वास्तविक ब्याज दर 2.7 प्रतिशत रह जाएगी। यह भी सच है कि बचतकर्ताओं को अर्जित ब्याज पर कर भी देना होगा जिससे उनकी वास्तविक कमाई काफी कम रह जाएगी।
मगर वास्तविक ब्याज दर कराधान को ध्यान में नहीं रखता है। यह नॉमिनल ब्याज दर (महंगाई समायोजन के बिना) और वास्तविक ब्याज दरों का अंतर होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वास्तविक दर बचत पर वास्तविक प्रतिफल और उधारी पर वास्तविक लागत दर्शाती है। दुनिया भर में महंगाई मुद्रा के मूल्य का ह्रास कर रही है। सभी अब ‘वास्तविक’ ब्याज दर की बात कर रहे हैं। भारत में लोगों को सरकार की लघु बचत योजनाओं पर और बैंक जमा एवं अन्य बचत योजनाओं से कितना ब्याज मिलना चाहिए?
फरवरी में मौद्रिक नीति बैठक समाप्त होने के बाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था कि वास्तविक नीतिगत दर अब सकारात्मक हो गई है और बैंकिंग प्रणाली अधिशेष नकदी के ‘चक्रव्यूह’ से बाहर निकल चुकी है। उन्होंने कहा था कि महंगाई में कमी आ रही है और आर्थिक वृद्धि लगातार मजबूत बनी हुई है। महंगाई समायोजित करने के बाद प्राप्त वास्तविक ब्याज दर सर्वाधिक मायने रखती है। इसका कारण यह है कि महंगाई भविष्य में होने वाली नकदी प्रवाह पर असर डालती है।
फरवरी के शुरू में अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन जेरोम पॉवेल ने कहा था कि पूरी दुनिया में वास्तविक दर अब सकारात्मक हो गई है। बदले हालात में अब ब्याज दरें बढ़ रही हैं जबकि महंगाई में कमी आनी शुरू हो गई है। वास्तविक दर अर्थव्यवस्था की हालत पर निर्भर करती है। मगर हम वास्तविक दर की गणना कैसे करते हैं? इसकी गणना करने का वास्तविक मानक क्या है? क्या यह मानक बैंक जमा दर होना चाहिए? या फिर केंद्रीय बैंक की नीतिगत दर मानक होना चाहिए? 10 वर्ष की अवधि या एक साल की अवधि के सरकारी बॉन्ड पर मिलने वाला प्रतिफल गणना का मानक होना चाहिए?
मार्च, 2020 में जारी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के परिपत्र में कहा गया है कि किसी देश के केंद्रीय बैंक द्वारा निर्धारित नीतिगत ब्याज दर उधारी पर आने वाली लागत के लिए मुख्य आधार होती है। केंद्रीय बैंक आर्थिक हालात में आने वाले बदलावों को देखते हुए नीतिगत दरों में बदलाव करते हैं। नीतिगत दर अधिक रहने पर लोग अधिक बचत करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं, वहीं कम ब्याज दर उपभोग को बढ़ावा देती है और कारोबारी निवेश पर लागत कम कर देती है।
भारत में लोगों की क्रय शक्ति कमजोर होना कोई नई बात नहीं है। 2012 और 2014 के बीच औसत महंगाई दर 8.22 प्रतिशत थी। इससे बचतकर्ताओं के लिए वास्तविक ब्याज दर नकारात्मक हो गई थी। वर्ष 2015 और 2019 के बीच वास्तविक दर महंगाई दर से अधिक रहने की वजह से ज्यादातर सकारात्मक थीं। उदाहरण के लिए अगस्त 2018 और सितंबर 2019 के बीच महंगाई दर 4 प्रतिशत से कम थी जबकि नीतिगत दर 5.4 और 6.5 प्रतिशत के बीच थी।
अगर हम एक साल के सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल को मानक मानें तो धनात्मक ब्याज दर 1.96 प्रतिशत (7.26 प्रतिशत में 5.30 प्रतिशत घटाने पर) होगी। मगर नीतिगत दरों के उलट सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल वित्तीय प्रणाली में नकदी और विदेशी रकम के प्रवाह सहित कई बातों पर निर्भर करता है।
अगर कच्चा तेल (इंडियन बास्केट) 95 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर रहता है तो 2022-23 में खुदरा महंगाई 6.5 प्रतिशत (जनवरी-मार्च तिमाही के लिए 5.7 प्रतिशत) रह सकती है। मॉनसून सामान्य रहने की स्थिति में 2023-24 में महंगाई 5.3 प्रतिशत (पहली तिमाही में 5 प्रतिशत, दूसरी और तिमाही में 5.4 प्रतिशत और चौथी तिमाही में 5.6 प्रतिशत) रहने का अनुमान लगाया गया है।
खुदरा महंगाई जनवरी में खासी अधिक हो गई थी। यह आरबीआई के ऊपरी सहज स्तर 6 प्रतिशत से बढ़कर तीन महीने के निचले स्तर 6.52 प्रतिशत पर पहुंच गई थी। अप्रैल 2022 में खुदरा महंगाई 7.79 प्रतिशत पर पहुंच गई थी, जो आठ वर्षों का उच्चतम स्तर था। जनवरी और अक्टूबर 2022 के बीच लगातार दस महीने तक केंद्रीय बैंक के ऊपरी सहज स्तर पर रही थी।
नौबत यहां तक आ गई कि आरबीआई को सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ गया कि वह तीन लगातार तिमाहियों तक महंगाई नियंत्रित दायरे में रखने का लक्ष्य क्यों नहीं हासिल कर पाया। जब महंगाई नवंबर और दिसंबर दो महीनों के लिए 6 प्रतिशत से नीचे आई तो जैसे चारों तरफ खुशियां मनाई जाने लगी। आरबीआई और सरकार विकसित बाजारों की तुलना में महंगाई नीचे रखने पर अपनी पीठ स्वयं ही थपथपाने लगे।
इस बात पर बहस चलती रहेगी कि वास्तविक ब्याज दरें तय करने के लिए मानक दर क्या होनी चाहिए, मगर कर्जदाता और बचतकर्ताओं दोनों के लिए ही क्या सभी दरें महंगाई दर से अधिक नहीं होनी चाहिए? अगर यह सुनिश्चित किया जाना संभव हो पाया तो इससे बचत और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात पर सकारात्मक असर होगा। यह अनुपात इस समय 19 वर्ष के निचले स्तर पर है।
बचतकर्ताओं को प्रोत्साहन के तौर पर डेट म्युचुअल फंडों की तर्ज पर ही बैंकों में तीन वर्षों तक रकम रखने वाले बचतकर्ताओं को इंडेक्सेशन बेनिफिट का लाभ दिया जाए तो यह जमाकर्ताओं और बैंकिंग प्रणाली दोनों के लिए फायदेमंद होगा।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं)