वित्त वर्ष 2025-26 का बजट इसी हफ्ते पेश होना है। यह बजट ऐसे माहौल में आ रहा है, जब देश की अर्थव्यवस्था सुस्त दिख रही है और राजकोषीय घाटे एवं कर्ज दोनों ने सरकार का सिरदर्द बढ़ा दिया है। ऐसे में मंत्री को उन नीतिगत उपायों की गुंजाइश तलाशनी होगी, जिनसे आर्थिक वृद्धि तेज हो और राजकोषीय घाटे का लक्ष्य भी हासिल हो जाए। कर घटाने और बुनियादी क्षेत्र पर खर्च बढ़ाने की मांग जोर पर है मगर टिकाऊ वृद्धि के लिए बजट को कई दूसरे उपाय भी करने होंगे।
यहां दो अहम सवाल हैं: आर्थिक सुस्ती की वजह क्या नजर आ रही है? उसे दूर करने के लिए बजट में क्या किया जा सकता है? पहले सुस्ती की बात करते हैं। कमोबेश सभी की राय है कि यह आर्थिक सुस्ती कुछ समय के लिए ही है मगर आंकड़े कुछ और बता रहे हैं। वर्ष 2023 के मध्य से केवल एक तिमाही को छोड़कर अर्थव्यवस्था मंद ही होती जा रही है। 8 फीसदी पर चल रही देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर साल भर के भीतर कम होकर 6 फीसदी के नीचे चली गई है। नियमित अंतराल पर अर्थव्यवस्था के हाल बताने वाले आंकड़े या संकेतक भी दर्शा रहे हैं कि कोविड महामारी के बाद आई तेजी कम हो गई है। शायद यह अर्थव्यवस्था में गहरी और अंदरूनी सुस्ती का संकेत है।
अर्थव्यवस्था कोविड महामारी से पहले ही चुनौतियों से जूझ रही थी और 2019 की चौथी तिमाही में वृद्धि दर 4 फीसदी से भी कम रही थी। नियमित तौर पर जारी होने वाले आंकड़ों ने महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था के भीतर दो अलग-अलग अर्थव्यवस्थाएं बन जाने के संकेत दिए। मध्यम और ग्रामीण भारत में ‘पुरानी अर्थव्यवस्था’ काम कर रही थी और एक ‘नई अर्थव्यवस्था’ भी खड़ी हो गई थी, जो सेवा क्षेत्र में उछाल के दम पर चल रही थी। नई अर्थव्यस्था को मुख्य रूप से वैश्विक क्षमता केंद्रों (जीसीसी) से ताकत मिली। ये जीसीसी ज्यादातर अमेरिका से ताल्लुक रखते थे और इनके कारण कुशल भारतीयों को शोध एवं विकास (आरऐंडडी) जैसे क्षेत्रों में जमकर रोजगार मिले।
नई अर्थव्यवस्था के उदय से एसयूवी जैसी महंगी वस्तुओं का इस्तेमाल बढ़ा और निर्माण क्षेत्र में भी गतिविधियां तेज हुईं। मगर पुरानी अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त रही है और यह कोविड महामारी से पहले से ही दिखने लगा था। इसके पीछे निजी क्षेत्र से निवेश में कमी और वस्तुओं के निर्यात में मंदी समेत कई वजह रहीं। ऊंची खाद्य महंगाई और आय में कमी से भी पुरानी अर्थव्यवस्था में कामगारों की माली हालत बिगड़ी है। मगर चिंता यह है कि नई अर्थव्यवस्था की हालत भी बिगड़ने लगी है। पिछले कुछ समय से यह धीमी चल रही है, जिससे मांग के मोर्चे पर हालत खराब होती जा रही है।
राजकोषीय घाटा कम करने के साथ बजट इससे कैसे निपटेगा? दो तरीके हो सकते हैं। बजट में राजकोषीय मजबूती के लिए व्यय को उचित स्तर पर लाने के उपाय हों। फरवरी 2023 में वित्त मंत्री ने वित्त वर्ष 2025-26 तक राजकोषीय घाटा कम कर जीडीपी के 4.5 फीसदी से भी नीचे लाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन मंद पड़ती अर्थव्यवस्था में यह लक्ष्य हासिल करना कठिन होगा क्योंकि नॉमिनल (सांकेतिक) जीडीपी वृद्धि दर भी कम होकर 10 फीसदी से नीचे आ गई है। मगर यह भी तय है कि वृहद आर्थिक स्थिरता के लिए राजकोषीय घाटा कम रखना जरूरी है। आर्थिक वृद्धि की गति तेज बनाए रखने के लिए आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करना एक प्रमुख शर्त है।
राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सरकार को राजस्व व्यय घटाने पर भी जोर देना चाहिए। इस व्यय में योजनाएं तथा धन अंतरण शामिल होता है और कुल व्यय में इसकी 77 फीसदी हिस्सेदारी होती है। उदाहरण के लिए हमें सोचना चाहिए कि महामारी का संकट खत्म हो जाने के बाद भी 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न देते रहने की क्या जरूरी है?
आर्थिक वृद्धि को दम देने के लिए बुनियादी ढांचे पर सरकारी व्यय बढ़ाए जाने की वकालत खूब की जा रही है। देश में बुनियादी ढांचा जरूरी है मगर केवल उससे ही जीडीपी कितना बढ़ेगा यह नहीं पता। टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के लिए निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ाना होगा किंतु सार्वजनिक व्यय से उसे प्रोत्साहन मिलता नहीं दिख रहा। देश में ज्यादातर बुनियादी ढांचा पहले ही तैयार है और नई सड़कों या राजमार्गों से ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा। सार यह है कि अगर निजी क्षेत्र में हौसला नहीं है तो बुनियादी ढांचे पर सरकारी व्यय से वृद्धि तेज नहीं हो सकती।
कर घटाने पर खपत तेज होने का तर्क भी दिया जा रहा है मगर राजकोषीय मोर्चे पर इतनी गुंजाइश ही नहीं है कि कर घटाए जाएं। पुरानी अर्थव्यवस्था की बड़ी आबादी तो कर के दायरे में ही नहीं आती। यहां घटते वेतन और सिकुड़ते रोजगार चोट बढ़ा ही रहे हैं। इसलिए कर व्यवस्था में छोटे-मोटे बदलाव से ज्यादा असर नहीं पड़ेगा।
ऊंची और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के लिए बजट में उस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिसकी ज्यादा चर्चा नहीं हो रही – आर्थिक सुधार। वर्ष 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के बाद सुधार का कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया है। कई लोगों का कहना है कि नए सुधारों की जरूरत नहीं है क्योंकि सभी महत्त्वपूर्ण नीतिगत उपाय पहले ही किए जा चुके हैं। यह सही नहीं है क्योंकि आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
मौजूदा आर्थिक माहौल को देखते हुए बजट में कुछ अहम प्रस्ताव दिए जा सकते हैं। इनमें आयात शुल्कों में सुधार, सस्ते विदेशी आयात से बेअसर श्रेणियों में दूसरी बाधाएं हटाना, विनिर्माण क्षेत्र में आपूर्ति के लिए बाधा बन रहे गुणवत्ता नियंत्रण आदेश खत्म करना, विदेशी निवेश लाने के लिए निवास आधारित कराधान समेत कर प्रणाली का सुधार, जीएसटी का सरलीकरण, उपकर व अधिभारों की समाप्ति, सभी कंपनियों को समान अवसर देने के लिए पेचीदा औद्योगिक नीति पर नियंत्रण लगाना और श्रम सुधारों के लिए राज्यों को प्रोत्साहित करना आदि शामिल हैं। सुधारों पर दोबारा ध्यान देने का समय आ गया है।
यह बजट सरकार के दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टिकोण का मजबूत आधार बने, जिसमें निजी क्षेत्र का हौसला बढ़ाने के लिए मध्यम अवधि की व्यापक रणनीति बताई जाई। करों या व्यय में मामूली बदलाव से हालात नहीं बदलेंगे और अर्थव्यवस्था जूझती रहेगी। आज 1991 की तरह बड़े सुधारों वाले बजट की जरूरत है। तभी अर्थव्यवस्था तेज होगी और उत्पादकता का स्तर बढ़ेगा।
(लेखिका आईजीआईडीआर, मुंबई में अर्थशास्त्र की सहायक प्राध्यापक हैं)