साल 2023 शुरुआती अनुमान से बेहतर आर्थिक नतीजे लेकर आया। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में ऊंची महंगाई, खासकर अमेरिका में, इस साल की शुरुआत में सबसे बड़ी चिंताओं में से एक थी। करीब दो अंकों की मुद्रास्फीति को काबू करने के लिए जो मौद्रिक नीति कार्रवाई की जाती, उससे इस बात की आशंका थी कि भौतिक रूप से वित्तीय दशाएं सख्त हो जातीं, वैश्विक वृद्धि परिणाम पर असर डालतीं, विकासशील देशों में विदेशी मुद्रा विनिमय की वित्तीय समस्याएं खड़ी होतीं और कुल मिलाकर वित्तीय बाजारों में जोखिम बढ़ता।
ऐसे कुछ जोखिम सामने भी आए, लेकिन चीजें शायद ज्यादा बदतर हो सकती थीं। उदाहरण के लिए अमेरिका में एक-एक कर कई बैंकों की विफलता ने चेतावनी की घंटी बजाई, लेकिन आला अधिकारियों ने इसे सहजता से संभाल लिया। वैसे तो वैश्विक मुद्रास्फीति दर अब भी लक्ष्य से ऊपर है, लेकिन इसमें काफी हद तक गिरावट आई है, जिसकी वजह से वित्तीय दशाओं में सुधार हुआ है।
मुद्रास्फीति वृद्धि का अनुमान लगाने में विफलता से केंद्रीय बैंकों की साख को चोट पहुंचती, लेकिन हालात का सामना करने और उसे काबू करने के लिए जो लगातार मौद्रिक नीतियां लाई गईं उससे कुछ हद तक भरोसा लौट पाया।
उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में नीतिगत कार्रवाई के नतीजों को भारत ने बखूबी संभाला है। यह गौर करने की बात है कि साल 2023 ‘टैपर टैन्ट्रम’ प्रकरण की 10वीं वर्षगांठ भी है, जब निवेशकों में घबराहट की वजह से अमेरिकी ट्रेजरी प्रतिफल में जबरदस्त उछाल आई थी।
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हालांकि, भारत की 2023 की वृहद आर्थिक कहानी, 2013 से काफी अलग है। चालू खाते का घाटा काफी कम है और भारतीय रिजर्व बैंक ने पर्याप्त मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार तैयार किया है, जिससे साल 2022 और 2023 में मुद्रा बाजार में उतार-चढ़ाव पर काबू पाने में मदद मिली है। लेकिन मुद्रास्फीति दर को घटाकर 4 फीसदी के लक्ष्य के करीब लाने में रिजर्व बैंक को कठिनाई हुई है, जिसकी काफी हद तक वजह खाद्य कीमतों की वजह से बना दबाव है।
यह दबाव अभी कुछ और समय तक रह सकता है। बाह्य मोर्चे पर बनी स्थिरता से नीति-नियंताओं को घरेलू वाहकों पर ध्यान देने में मदद मिली है। सरकार के ऊंचे पूंजीगत व्यय के सहारे मौजूदा वित्त वर्ष की पहली छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था ने 7.7 फीसदी की तेज वास्तविक वृद्धि हासिल की है। अब आरबीआई को लगता है कि मौजूदा पूरे वित्त वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था 7 फीसदी की दर से बढ़ सकती है। तेज आर्थिक वृद्धि से वित्तीय बाजारों में मनोदशा भी मजबूत हुई है।
उदाहरण के लिए बेंचमार्क निफ्टी50 ने साल का अंत 20 फीसदी लाभ के साथ किया है। हालांकि साल 2024 में इस गति को बनाए रखना एक चुनौती होगी, भले ही कई कारक अनुकूल दिख रहे हों। जैसा कि बैंकिंग और वित्तीय स्थिरता पर आरबीआई की नवीनतम रिपोर्ट से दिखता है, भारतीय बैंकिंग प्रणाली फिलहाल पिछले एक दशक की सबसे अनुकूल हालत में है।
कॉरपोरेट के बहीखाते भी अच्छी सेहत में दिख रहे हैं, जिससे सैद्धांतिक रूप से निवेशक चक्र को नए सिरे से शुरू करने में मदद मिलनी चाहिए। वैश्विक ब्याज दरें अपने चरम को देख चुकी हैं और अब वित्तीय दशाओं के नरम होने की उम्मीद है जिससे और मदद मिलेगी। घरेलू स्तर पर देखें तो मुद्रास्फीति दर में और नरमी आने की उम्मीद है, लेकिन नीति-नियंता शायद ढील देने की जल्दबाजी नहीं करेंगे, यह देखते हुए कि पिछले कम से कम तीन साल तक मुद्रास्फीति की दर ऊंचाई पर रही है।
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दूसरा पहलू यह है कि भारत को आगे भी सुस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था से निपटना होगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमानों के मुताबिक साल 2024 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2.9 फीसदी की बढ़त होगी, जबकि साल 2023 में 3 फीसदी की बढ़त हुई थी। हालांकि, विश्व व्यापार में सुधार की उम्मीद है और इससे कुछ मदद मिलनी चाहिए।
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे दो युद्ध, अपने साथ जुड़ी अनिश्चितता के साथ, आगे भी बड़े जोखिम बने रहेंगे। वैश्विक व्यवस्था में जारी बदलाव, जैसे कि भू-राजनीतिक विखंडन और चीनी अर्थव्यवस्था में सुस्ती, आगे भी आर्थिक नतीजों में भूमिका निभाएंगे और उन पर असर डालेंगे। घरेलू स्तर पर, यह साल लोक सभा चुनावों का है। चुनावों के बाद नीतिगत रुख में बड़ा बदलाव आर्थिक नतीजों को प्रभावित कर सकता है।