भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने जब 6 दिसंबर को नीतिगत दर घटाई तो कई विश्लेषक हैरान रह गए। यह कटौती ऐसे समय में हुई जब अर्थव्यवस्था 8.2 फीसदी की वृद्धि दर से आगे बढ़ रही है। वृहद अर्थशास्त्र के नियम मोटे तौर पर यह कहते हैं कि जब कोई अर्थव्यवस्था तेज गति से आगे बढ़ती है तो संबंधित केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाता है। इसका आशय यह है कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति नियंत्रित करने और अर्थव्यवस्था को अत्यधिक तेज गति से बढ़ने से रोकने के लिए एहतियात के तौर पर ब्याज दरें बढ़ा देते हैं।
हालांकि, इस बार स्थिति अलग थी क्योंकि मुद्रास्फीति दर एक फीसदी से भी कम थी। इस सहज स्थिति ने आरबीआई को नीतिगत दर में कमी करने की गुंजाइश दे दी मगर केवल यही एक वजह इस कदम को सही नहीं ठहराती है। दुविधा तो यह है कि 8 फीसदी वृद्धि दर से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को अतिरिक्त प्रोत्साहन देने की क्या जरूरत है?
तो क्या इसका मतलब यह है कि आरबीआई का नीतिगत निर्णय गलत था? वास्तव में ऐसा नहीं है। रीपो दर में कटौती की वजह स्पष्ट तौर पर समझी जा सकती है मगर इसके लिए इसे नीति निर्धारकों की मुख्य चिंता एवं दुविधा को टटोलना होगा। सरकार की चिंता यह है कि आंकड़ों की भरमार के बीच से गुजरती हुए अर्थव्यवस्था सही दिशा में बनी रहे।
आइए, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों से शुरुआत करते हैं। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि आर्थिक वृद्धि दर बढ़ रही है जो पिछले साल की अनुमानित दर 6.5 फीसदी से काफी अधिक है। जमीनी स्तर पर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र दोनों ही 9 फीसदी की वृद्धि दर के साथ मजबूत दिखाई देते हैं।
मगर समस्या यह है कि इन आंकड़ों को समझना बेहद मुश्किल है। कुछ टीकाकारों का कहना है कि माल एवं सेवा कर (जीएसटी) दरों में कटौती से उपभोक्ताओं की तरफ से खर्च बढ़ा है जिससे जीडीपी में वृद्धि हुई है। मगर ऐसा लगता नहीं है क्योंकि जीएसटी दरों में कमी 22 सितंबर को प्रभावी हुई यानी जुलाई-सितंबर तिमाही में आंकड़ों पर इससे शायद ही कोई बड़ा असर हुआ होगा। क्या अन्य प्रमुख संकेतक कोई सुराग देने में मदद कर सकते हैं? वास्तव में नहीं। अव्वल तो यह कि कई और सवाल उठ खड़े हुए हैं।
उदाहरण के लिए अप्रैल से सितंबर 2025 के दौरान औद्योगिक उत्पादन में केवल 3 फीसदी की वृद्धि हुई। यह वर्ष 2020-21 में आई कोविड महामारी के बाद से सबसे धीमी वृद्धि है। खनन, विनिर्माण और बिजली जैसे प्रमुख क्षेत्रों में धीमी वृद्धि देखी गई या यहां तक कि इनमें कमी दर्ज की गई।
बैंकों की ऋण वृद्धि दर भी कमजोर अर्थव्यवस्था का संकेत देती है। गैर-खाद्य ऋण वृद्धि दर (कर्ज की मांग का अंदाजा देने वाला संकेतक) पिछले वर्ष 13 फीसदी की तेजी पर रहने के बाद जुलाई-सितंबर अवधि में कम होकर10 फीसदी रह गई।
संभवतः सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि कर संग्रह में भारी गिरावट आई है। अप्रैल से सितंबर अवधि में केंद्र सरकार के सकल कर संग्रह में केवल 2.8 फीसदी की वृद्धि हुई जो पिछले 15 वर्षों में दर्ज सबसे कम है। आय कर, कंपनी कर और जीएसटी सभी में वृद्धि एक अंक में रही।
तेजी से फिसलता रुपया भी आर्थिक वृद्धि की रफ्तार से मेल नहीं खा रहा है। इस साल अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 6 फीसदी से अधिक फिसल चुका है जिससे यह एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा बन गई है। हालांकि, बाहरी कारणों से निर्यात को नुकसान पहुंचा है लेकिन चालू खाता घाटा जीडीपी के 2 फीसदी से भी कम है और इसलिए इसकी भरपाई करना सहज होना चाहिए। मगर ऐसा संभव नहीं हो पाया है जिससे रुपया लगातार दबाव में रहा है। पूंजी प्रवाह कमजोर बना हुआ है और अजीब बात यह है कि जीडीपी आंकड़े आने के बाद यह और कमजोर हो गया है। दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का पूंजी आकर्षित करने में असमर्थ रहना समझ से परे है।
लब्बोलुआब यह है कि यह बता पाना मुश्किल है कि अर्थव्यवस्था वास्तव में कैसा प्रदर्शन कर रही है। नीति निर्धारण के लिहाज से इसका क्या मतलब है?
इससे आरबीआई के लिए कार्य जटिल हो जाता है। मुद्रास्फीति प्रभावी ढंग से लक्षित करने के लिए आरबीआई को अपने मुद्रास्फीति दृष्टिकोण के आधार पर ब्याज दरें निर्धारित करनी होंगी। मगर वह अर्थव्यवस्था की वास्तविक ताकत का मजबूती से आकलन नहीं कर पाता है तो वह भविष्य की मुद्रास्फीति का सटीक अनुमान कैसे लगा पाएगा?
यह सच है कि सभी केंद्रीय बैंकों के लिए मुद्रास्फीति का पूर्वानुमान लगाना कठिन कार्य होता है क्योंकि खाद्य और ईंधन की कीमतें घटती-बढ़ती रहती हैं। वे आमतौर पर मुख्य मुद्रास्फीति के आधार पर अपने पूर्वानुमान को तय करते हैं, जिनमें खाद्य और ईंधन की कीमतें शामिल नहीं होती हैं। हालांकि, आरबीआई के लिए स्थिति तब और कठिन हो जाती है जब वह मुख्य मुद्रास्फीति का भी पूर्वानुमान नहीं लगा पाता है क्योंकि वह अर्थव्यवस्था की अंतर्निहित ताकत का ठीक से आकलन करने में असमर्थ हो जाता है।
ऐसे हालात में नीति-निर्धारकों को जोखिमों के प्रबंधन पर आधारित दृष्टिकोण अपनाना होता है। आरबीआई को शायद चिंता थी कि कम होती मुद्रास्फीति से वास्तविक ब्याज दरें बढ़ रही हैं। इसके परिणामस्वरूप अगर मांग वास्तव में कमजोर थी तो इससे अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान हो सकता है। दूसरी तरफ नॉमिनल ब्याज दर में कटौती से 4 फीसदी मुद्रास्फीति लक्ष्य को खतरा नहीं होगा भले ही मांग मजबूत हो जाए क्योंकि मुद्रास्फीति अभी बहुत कम है। लिहाजा आरबीआई ने दरों में कटौती की। इसी जोखिम-आधारित कारण से सरकार ने भी जीएसटी दरें कम कम कर दीं।
दोनों नीतिगत निर्णय उचित थे मगर एक बड़ी समस्या यह बनी हुई है कि अगर यह पता चलता है कि मांग वास्तव में काफी मजबूत है तो उनके कदम गलत साबित हो सकते हैं। इस बीच, वृहद आर्थिक हालात संबंधी सटीक पूर्वानुमान नहीं लगा पाने के कारण वित्तीय बाजार भ्रमित हो गए हैं। इस भ्रम ने संभावित रूप से नीति की विश्वसनीयता को कमजोर कर दिया है, जिससे कई समस्याएं सामने आ रही हैं।
इन सभी कारणों से आंकड़ों से जुड़ी समस्याओं को हल करना अनिवार्य है। अच्छी बात यह है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) जल्द ही अद्यतन जीडीपी और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) श्रृंखला जारी करेगा। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि ये नए आंकड़े महत्त्वपूर्ण सुधार को आगे बढ़ाएंगे। ऐसा होने तक मौद्रिक नीति आंकड़ों से जुड़ी अनिश्चितता से प्रभावित रहेगी।
(लेखिका आईजीआईडीआर, मुंबई में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)