वर्ष 2023 अब विदा ले रहा है और वर्ष के अंत में पूरे साल का लेखा-जोखा करने की रवायत को बरकरार रखते हुए हम गुजरे साल से सबक लेने की कोशिश करते हैं ताकि हमें वर्ष 2024 की चुनौतियों से निपटने में मदद मिले। वर्ष 2023 में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कुल मिलाकर अच्छा प्रदर्शन किया है।
देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वर्ष 2023 की पहली तीन तिमाहियों में क्रमशः 6.1 प्रतिशत, 7.8 प्रतिशत और 7.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। अगर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की वर्ष 2023 की चौथी तिमाही के लिए 6.5 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान सही साबित होता है तब पूरे साल में औसत वृद्धि दर 7 प्रतिशत से अधिक रहने की संभावना बनेगी।
इस शानदार सुधार के रुझान को लेकर कुछ वैध सवाल बने रहेंगे। मसलन भले ही सरकार द्वारा जारी किए गए रोजगार के ताजा आंकड़े सभी प्रमुख मापदंडों में सुधार दिखाते हैं लेकिन क्या इस वृद्धि से देश में रोजगार को और बढ़ावा मिलना चाहिए था।
सवाल यह भी है कि क्या यह सुधार मुख्यतौर पर संगठित क्षेत्र के बलबूते दिख रहा है जबकि संभव है कि असंगठित क्षेत्र को इस सुधार से मिलने वाला लाभ नहीं मिला हो और न ही इसने इसमें कोई योगदान दिया हो। उथल-पुथल वाले साल में भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए 7 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर, वाकई काबिले-तारीफ है और इसे कमतर आंकना अनुचित होगा।
सरकार ने अपने खर्चों पर लगाम कसी है। पिछले वित्त वर्ष 2022-23 में केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा वर्ष 2021-22 के 6.7 प्रतिशत से कम होकर 6.4 प्रतिशत पर आ गया। जब वास्तविक आंकड़े आए तब पिछले साल का घाटा असल में 6.36 प्रतिशत ही रहा जिसकी वजह अर्थव्यवस्था के आकार में बढ़ोतरी है। वर्ष 2023-24 के पहले छह महीने में प्रदर्शन बेहतर रहा है। साल भर के लिए 5.9 प्रतिशत के घाटे का अनुमान लगाया गया लेकिन सितंबर 2023 के अंत तक यह घाटा अनुमानित तौर पर सिर्फ 4.9 प्रतिशत ही था।
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खर्चों पर नियंत्रण रखने में राज्यों ने भी कमाल का प्रदर्शन किया है। वर्ष 2022-23 में इनका कुल वित्तीय घाटा जीडीपी के 2.8 प्रतिशत के स्तर पर रहा जो वर्ष 2021-22 के बराबर है।यही नहीं, केंद्र और राज्यों दोनों ने पूंजीगत व्यय बढ़ा कर बेहतर किया है। इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि के इंजन को ऐसे वक्त में रफ्तार देने में मदद मिली है जब निजी क्षेत्र के निवेश में अभी उम्मीद के मुताबिक तेजी नहीं आई है। केंद्र और राज्य दोनों के कर राजस्व में भी अच्छी वृद्धि देखी गई है। इससे भी सरकारी वित्त में सुधार हुआ है।
वर्ष 2023 में महंगाई को नियंत्रित करने का प्रयास मिला-जुला रहा है। साल के पहले तीन महीने में थोक मूल्यों में मामूली बढ़ोतरी हुई लेकिन उसके बाद लगातार सात महीने तक गिरावट जारी रही, हालांकि नवंबर में 1 प्रतिशत से कम बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसके विपरीत खुदरा महंगाई दर पूरे साल 11 महीने तक 4 प्रतिशत के लक्ष्य से ऊपर ही रही, लेकिन इसमें कमी होने के संकेत भी मिले।
हालांकि, चार महीनों (जनवरी, फरवरी, जुलाई, और अगस्त) में खुदरा महंगाई दर, रिजर्व बैंक द्वारा तय की गई 6 प्रतिशत की ऊपरी सीमा से भी ऊपर चली गई थी। इस वजह से रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने 2023 के फरवरी महीने में रीपो दर बढ़ाने के बाद आगे ब्याज दरों में किसी तरह की बढ़ोतरी टाल दी।
कई लिहाज से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये सभी मानक चौंकाने वाले नहीं हैं। वर्ष 2023 में अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के बाजार ने जरूर हैरान किया है। भारत की निर्भरता अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल पर बढ़ती रही है और वर्ष 2023-24 के पहले आठ महीनों में आयातित कच्चे तेल ने देश की कुल खपत के 88 प्रतिशत हिस्से की जरूरत पूरी की है। वर्ष 2022-23 में यह आंकड़ा 87 प्रतिशत था और वर्ष 2021-22 में यह और कम 85 प्रतिशत था।
हालांकि कच्चे तेल के आयात पर लगातार बढ़ती निर्भरता के बावजूद, वर्ष 2023 में भारत के विदेशी व्यापार खाते पर कोई ज्यादा दबाव नहीं पड़ा है। असल में वर्ष 2022-23 की समान अवधि के मुकाबले वर्ष 2023-24 के पहले आठ महीने में कच्चे तेल का आयात बिल 23 प्रतिशत घटकर 87 अरब डॉलर के स्तर पर आ गया है। यह राहत एक तरह से अप्रत्याशित ही थी। इस साल यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से और बाद में इजरायल-गाजा युद्ध की वजह से भू-राजनीतिक तनाव बढ़ता दिखा। पहले किसी भी अंतरराष्ट्रीय संकट के चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आसमान छूने लगती थीं और भारत के तेल आयात बिल में भी बेतहाशा वृद्धि होती थी।
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यह सिलसिला वर्ष 2006 से 2008 के बीच साफ देखा गया, जब ब्रेंट क्रूड तेल की औसत कीमत 65 डॉलर प्रति बैरल से वर्ष 2007 में 72 डॉलर प्रति बैरल और फिर वर्ष 2008 में बढ़कर 97 डॉलर प्रति बैरल हो गई। कच्चे तेल की कीमतों में तेजी के कारण भारत के तेल आयात का बिल भी वर्ष 2006-07 के 48 अरब डॉलर से बढ़कर वर्ष 2008-09 में 77 अरब डॉलर तक बढ़ गया।
वर्ष 2010-11 और 2011-12 में भी यही कहानी दोहराई गई, जब कच्चे तेल की कीमतों में फिर से तेजी देखी गई। ये आंकड़े इस बात की तस्दीक करते है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उथल-पुथल का सीधा असर भारत के तेल आयात बिल पर पड़ता है।
वर्ष 2023 में जो कुछ भी हुआ वह बेहद असामान्य था। कच्चे तेल की कीमतें वर्ष 2022 के 101 डॉलर प्रति बैरल से कम होकर वर्ष 2023 में 83 डॉलर प्रति बैरल हो गई। लेकिन रूस से सस्ते तेल का आयात राहत का सबब बन कर आया। इस साल के ज्यादातर महीने के दौरान भारत के कुल कच्चे तेल आयात का एक-तिहाई से ज्यादा हिस्सा रूस के तेल आयात से पूरा हुआ।
रूस के सस्ते तेल की बदौलत हमारे कुल तेल आयात बिल में कमी दिखी। हाल के दिनों में कच्चे तेल की कीमतें ही भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों के लिए बड़ा सिरदर्द हुआ करती थीं। लेकिन वर्ष 2023 में वैश्विक स्तर पर अशांति और तनाव की स्थिति के बावजूद, तेल की कीमतें चिंता का बड़ा कारण नहीं बनीं हैं।
भारत के तेल क्षेत्र में अपेक्षाकृत तरीके से राहत की स्थिति है। सरकार को रूस के तेल के सस्ते आयात की बदौलत तेल सब्सिडी बिल पर ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं पड़ी बल्कि अपवाद के तौर पर सिर्फ खाद सब्सिडी में थोड़ा इजाफा हुआ है। तेल कंपनियों का सकल रिफाइनिंग मार्जिन बेहतर रहा है। वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में यह वर्ष 2022-23 से कम था लेकिन यह वर्ष 2021-22 के मुकाबले अभी भी अधिक है।
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वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में सरकारी तेल विपणन कंपनियों का कर चुकाने के बाद मुनाफा बढ़कर 57,000 करोड़ रुपये हो गया जबकि वर्ष 2022-23 में सिर्फ 1,100 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ था। हालांकि सरकार नियंत्रित तेल एवं गैस खोजने, उत्पादन, परिवहन, भंडारण और वितरण करने वाली कंपनियां और सिर्फ रिफाइनरी कंपनियों का मुनाफा थोड़ा कम हुआ है लेकिन वो भी घाटे में नहीं हैं बल्कि मुनाफा कमा रही हैं।
लेकिन इस तरह के बेहतर माहौल के बावजूद सरकार को सतर्क रहने की जरूरत है। यह याद रखना जरूरी है कि देश का कच्चा तेल उत्पादन लगातार दो सालों से स्थिर है और यह करीब 2.7-2.8 करोड़ टन के स्तर के करीब बना हुआ है। वर्ष 2023 में भी घरेलू कच्चा तेल उत्पादन में तेजी के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं और तेल खोज को बढ़ावा देने की नीतियों का भी अब तक कोई खास असर नहीं हुआ है। यह वक्त इन नीतियों की गंभीर समीक्षा करने का है कि आखिर इनका अब तक कोई असर क्यों नहीं हुआ है।
सरकार के लिए इस क्षेत्र की कीमतों में सुधार लाने का मौका भी अब बन रहा है। सरकारी रिफाइनरियों और वितरण कंपनियों को सिर्फ कागजों पर ही कीमत तय करने की स्वतंत्रता मिली है। अब जब सभी तेल कंपनियां मुनाफे में हैं तब सरकार को इन्हें कीमतें तय करने की आजादी देनी चाहिए। इससे कुछ सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण का विचार भी फिर से जोर पकड़ सकता है।