पिछले दिनों अहमदाबाद में विमान दुर्घटना, ग्रेटर मुंबई में लोकल ट्रेन दुर्घटना और बेंगलूरु के क्रिकेट स्टेडियम में भगदड़ के हादसे हुए। कुछ ही दिनों में तीन दुखद घटनाएं! और इनसे पहले प्रयागराज में महाकुंभ के दौरान भगदड़ हुई। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि एयर इंडिया का ड्रीमलाइनर विमान क्यों दुर्घटनाग्रस्त हुआ। लेकिन महाकुंभ और स्टेडियम में भगदड़ भीड़ के उन्माद का उदाहरण है और भगदड़ की सदियों पुरानी कहानी में नए अध्याय हैं।
ग्रेटर मुंबई के मुंब्रा और दीवा स्टेशनों के बीच हुई दुखद दुर्घटना में सबसे कम जान गईं। उसमें चार यात्रियों की मौत हुई और नौ घायल हुए जबकि अन्य घटनाओं में मृतकों की संख्या बहुत ज्यादा थी। मगर लोकल ट्रेन की दुर्घटना बहुत भारी समस्या की हल्की सी झलकी भर है और हताहतों की संख्या कम होने के बाद भी इस पर सबसे ज्यादा बात होनी चाहिए।
मुंबई उपनगरीय रेल यानी लोकल ट्रेन प्रणाली में हर साल 2,500 से 3,000 असमय मौतें होती हैं। यह औसतन 7 मौत रोजाना है, जिनमें ज्यादातर ट्रेन से गिरने या पटरी पार करते समय ट्रेन से टकराने के कारण होती हैं। इनमें से कुछ खुदकुशी भी हो सकती हैं, जिन्हें हादसों की श्रेणी में रख दिया जाता है। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली में 2022 में आधिकारिक तौर पर खुदकुशी के 76 मामले दर्ज हुए। इसके बरअक्स लंदन की रेल प्रणाली में होने वाली दुर्घटनाओं में हर साल औसतन तीन लोग मरते हैं, और 40 खुदकुशी करते हैं। पेरिस में हर साल खुदकुशी समेत लगभग 60 मौतें होती हैं।
मुंब्रा-दीवा हादसा इसलिए हुआ क्योंकि ट्रेन के दरवाजे से लटके कुछ यात्री बगल की पटरी पर जा रही दूसरी ट्रेन से बाहर लटके यात्रियों से टकरा गए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े 2022 के बाद से उपलब्ध नहीं हैं। 2022 में सभी ट्रेन हादसों में 21,000 से अधिक मौतें दर्ज की गईं और इनमें से 73 फीसदी लोगों के ट्रेन से गिरने या बगल की ट्रेन की चपेट में आने के कारण हुई थीं। इनमें 10 फीसदी से ज्यादा मौतें केवल मुंबई में हुईं।
इस हादसे के बाद लोकल ट्रेन के डिब्बों में खुद बंद होने वाले दरवाजे लगाने का आश्वासन दिया गया। इससे मौतों की संख्या तो कम हो जाएगी मगर लोगों में आक्रोश भी बढ़ेगा। लोग डिब्बों से बाहर इसलिए लटकते हैं क्योंकि उन्हें समय पर अपने काम पर पहुंचना होता है। क्षमता से ज्यादा काम कर रही रेल प्रणाली में अत्यधिक भीड़ और गहमागहमी वाले समय पर अधिक ट्रेन चलाना मुश्किल है।
किंतु मुंबई को यात्रियों के परिवहन के तरीके खोजने होंगे चाहे मेट्रो हो या बस हों या रेल क्षमता बढ़ाई जाए। सुरक्षा के लिए क्षमता बढ़ाने और ऑटो-डोर शुरू करने के अलावा रेलवे के बुनियादी ढांचे को कुशलता के साथ सुधारना होगा, जैसे अधिक फुटब्रिज बनाना और यात्रियों को पटरी पार करने या ट्रेन से कूदने या उतरने का जोखिम नहीं उठाने के लिए जागरूक किया जाए। यह मुश्किल काम है मगर होना तो चाहिए। यह हर महानगर की समस्या है और अन्य शहर इसे बेहतर तरीके से संभालते हैं।
दिल्ली में भी सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों में काफी मौतें होती हैं, लेकिन दिल्ली मेट्रो शुरू होने के बाद इसमें कमी आई है और डीटीसी बसों पर गति काबू में रखने वाले गवर्नर लगाए गए हैं। कोलकाता में ऐसी मौतें मुंबई या दिल्ली की तुलना में बहुत कम होती हैं। शायद इसलिए कि कोलकाता के यात्री समय की पाबंदी को तवज्जो नहीं देते। देश की वित्तीय राजधानी को चलाने वाले अधिकारियों के लिए शर्म की बात है कि उपनगरों के साथ फैलती मुंबई कुशल सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के बिना काम नहीं कर सकती और दिन में सात लोगों की जान लेने वाली प्रणाली कुशल नहीं कही जा सकती।
ये मौतें अलग-अलग और कम संख्या में होती हैं, इसलिए इनसे ज्यादा आक्रोश भी नहीं होता। भारतीय रेलवे को राजनीतिक रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है, न ही नगर निगम के अधिकारियों को, जिन्हें रेलवे के साथ मिलकर परिवहन बुनियादी ढांचा फिर तैयार करना चाहिए और सुरक्षा के लिए क्षमता बढ़ानी चाहिए।
इधर भगदड़ परंपरा से जुड़ी हुई है। भारत में धार्मिक जोश के कारण भगदड़ होना नई बात नहीं है। अंग्रेजों के समय में 1800 के दशक में पुरी रथयात्रा के दौरान बड़ी संख्या में मौत हुई थीं। भीड़ को संभालना निश्चित रूप से किसी भी प्रशासन के कौशल का हिस्सा होना चाहिए। यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि किसी त्योहार या विरोध प्रदर्शन के दौरान भीड़ कहां इकट्ठा होगी।
सरकारें विरोध प्रदर्शनों के पैमाने को कम करने के लिए कई तरीके अपनाती हैं, बसों के मार्ग बदल देती हैं, स्टेशनों को बंद कर देती हैं, ड्रोन के साथ बड़ी संख्या में पुलिस दल तैनात करती हैं और प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए घेराबंदी करती हैं। इसी तरह के तरीके खुश भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं और किए ही जाने चाहिए।