सच कहा जाए तो 2024 के आम चुनाव के नतीजों से जुड़ी सबसे बड़ी सुर्खी हमें उस समय मिली जब दोपहर के बाद नतीजों के रुझान स्पष्ट होने लगे और यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंद्रबाबू नायडू को फोन किया है। उनके बाद शरद पवार ने नायडू और नीतीश कुमार दोनों को फोन किया।
हम इस बारे में आगे बात करेंगे लेकिन पहले निकलने वाले तीन निष्कर्षों के बारे में बताएंगे। उसके पश्चात इससे पहले कि हम गहरा विश्लेषण करके अन्य निष्कर्ष निकालें, चार टिप्पणियों की भी बात करेंगे। परंतु सबसे पहले तीन निष्कर्ष।
पहला, एक दशक तक बहुमत के शासन के बाद भारतीय राजनीति सन 1989 के बाद के गठबंधन के दौर में वापस लौट गई है। दूसरा, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को हराया जा सकता है और तीसरा, कांग्रेस ने 99 सीटों पर जीत हासिल करके वापसी कर ली है। अब मैं अपनी टिप्पणियां प्रस्तुत करूंगा।
टिप्पणियों के बाद हम राजनीति पर लौटते हैं। यह नतीजा संकेत देता है कि सामान्य राजनीति की वापसी हो रही है। अब अगली लड़ाई का मैदान तैयार है: महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधान सभा चुनाव। इसके बाद जम्मू-कश्मीर का नंबर है जहां भाजपा को छह में से दो सीटों पर जीत मिली है। इनमें से सभी राज्यों के चुनाव परिणाम भाजपा के लिए कड़ी चेतावनी हैं।
महाराष्ट्र में उसके आंकड़े 2019 की तुलना में आधे से भी कम हो गए है जबकि उसके पास राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) के रूप में एक और साझेदार है।
अहम यह भी है कि जिन दो साझेदारों को उसने तोड़कर अपने साथ मिलाया उनकी हालत भी अच्छी नहीं। महाराष्ट्र के मतदाताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे मूल दलों को ही वास्तविक शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मानते हैं। भाजपा अब असहज करने वाली स्थिति में है। ऐसा इसलिए क्योंकि शिंदे गुट की शिवसेना और अजित पवार की राकांपा के विधायकों की घर वापसी का भी खतरा है।
अगर महाराष्ट्र विपक्ष के लिए सबसे बड़े तोहफे के रूप में सामने आया है तो हरियाणा भाजपा के लिए सबसे सीधा खतरा है। 2019 में पार्टी को यहां 58.2 फीसदी मतों के साथ सभी 10 लोक सभा सीटों पर जीत मिली थी। अब वह पांच सीटें कांग्रेस के हाथों गंवा चुकी है। आखिरी पलों में मुख्यमंत्री बदलना भी कारगर नहीं रहा। दिल्ली के निकट स्थित राज्य गंवाने का खतरा भाजपा को चिंतित करने वाला है।
झारखंड में भी चुनाव होने हैं और वहां भी समीकरण बदल गए हैं। 2019 में जहां भाजपा ने यहां भारी जीत दर्ज की थी, वहीं इस बार उसे 14 में से चार सीटें कांग्रेस- झामुमो गठबंधन के हाथों गंवानी पड़ी हैं। ये सभी सीटें जनजाति बहुल हैं।
अगर यह माहौल बना रहा तो राज्य का सत्तारूढ़ गठबंधन सत्ता विरोधी लहर से बच सकता है। शायद भाजपा को हेमंत सोरेन को जेल में रखने के फैसले पर भी पुनर्विचार करना होगा। इसके साथ ही अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को भी जेल में बंद रखने के निर्णय पर विचार करना होगा।
एक प्रश्न यह भी है कि नई सरकार जेल में बंद दो कट्टरपंथियों इंजीनियर राशिद और अमृतपाल सिंह को लेकर क्या रुख अपनाएगी जो क्रमश: बारामूला और खडूर साहिब से भारी मतों से चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं।
शासन की बात करें तो सबसे पहले, इस बात में कोई शुबहा नहीं है कि भाजपानीत गठबंधन के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे। परंतु यह भाजपा की नहीं राजग की सरकार और उसी का मंत्रिमंडल होगा।
यह बीते एक दशक से अलग है। मोदी सरकार के कार्यकाल में ज्यादातर समय स्वर्गीय रामविलास पासवान के सिवा राजग के अन्य दलों का कोई कैबिनेट मंत्री भी नहीं रहा। अब भाजपा को साझेदारों के लिए गुंजाइश बनानी ही पड़ेगी, खासकर चंद्रबाबू नायडू के लिए। नायडू और नीतीश कुमार की ओर से राज्यों के लिए विशेष दर्जे की मांग के लिए भी तैयार रहना होगा।
ओडिशा की जीत भाजपा के लिए सांत्वना लेकर आई है। राज्य में पहली बार उसे जीत मिली है और वह भी स्पष्ट बहुमत के साथ। अब तक उसे मुख्यतया हिंदी प्रदेशों की पार्टी माना जाता रहा है। पूर्व में पहली बार किसी तटीय प्रदेश में उसे जीत मिली है। परंतु दक्षिण की ओर उसकी महत्त्वाकांक्षी पहल पर रोक लगी है। उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी मजबूत हुई हैं और मणिपुर, नगालैंड, मेघालय में हार के बाद कांग्रेस के उभार का डर है। इस चुनाव के नतीजों को दो शब्दों में बयां करें तो: खेल अभी जारी है।