भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पूर्व चेयरमैन प्रतीप चौधरी की गिरफ्तारी के बाद बैंकिंग जगत के लोग सकते में हैं। जैसलमेर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया है। एसबीआई के ही एक पूर्व चेयरमैन रजनीश कुमार ने इस घटना को पीड़ादायक बताया और इसी बैंक के एक पूर्व उप -महाप्रबंधक ने इस घटना पर घोर निराशा जताई है। हालांकि इस मामले पर निर्णय न्यायालय में होगा मगर चौधरी की गिरफ्तारी के बाद उत्पन्न रोष को समझा जा सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक के चेयरमैन की गिरफ्तारी से बैंकिंग जगत में सभी लोगों के समक्ष जोखिम खड़ा हो गया है और इससे सार्वजनिक बैंक जोखिम लेने से परहेज करना शुरू कर देंगे। इससे अर्थव्यवस्था में ऋण आवंटन की रफ्तार धीमी हो जाएगी। संयोगवश यह घटना ऐसे समय में हुई है जब सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ऋणों के गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) में बदलने के लिए अपने कर्मचारियों की जवाबदेही से जुड़ी नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए कहा है।
चौधरी की गिरफ्तारी जैसलमेर की एक होटल परियोजना से जुड़ी है जिसके लिए एसबीआई ने 2007 में ऋण दिया था। बैंक ने 2010 में इस खाते को एनपीए घोषित कर दिया था। जब एसबीआई ऋण वसूलने में नाकाम रहा तो यह खाता मार्च 2014 में एक परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी अलकेमिस्ट एआरसी को स्थानांतरित कर दिया गया। इस बीच, चौधरी एसबीआई से सेवानिवृत्त हो गए और अलकेमिस्ट एआरसी के साथ जुड़ गए। कर्जधारक ने विभिन्न स्तरों पर ऋण समाधान योजना को चुनौती दी थी। जांच आगे बढऩे पर और अधिक तथ्य सामने आएंगे मगर इस घटना से बैंकिंग प्रणाली पर पडऩे वाले संभावित असर से अवश्य निपटना होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह आश्वासन दिया था कि नियंत्रक एवं लेखा महापरीक्षक, केंद्रीय जांच ब्यूरो और केंद्रीय सतर्कता आयोग उचित एवं नियमानुसार आवंटित ऋणों के लिए बैंकों को अनावश्यक रूप से परेशान नहीं करेंगे।
अब संभवत: राज्य स्तरों पर कानून लागू कराने वाली इकाइयों को भी इस सूची में जोड़ देना चाहिए। बैंकरों द्वारा हुई त्रुटियों में कार्रवाई के लिए एक उचित प्रक्रिया होनी चाहिए ताकि वे भी अपना पक्ष रख सकें। अगर बैंक अधिकारी कर्जधारकों या किसी अन्य व्यक्ति की शिकायतों पर गिरफ्तार किए जाते हैं तो इससे एक विकट समस्या खड़ी हो जाएगी। दिवालिया एवं ऋण शोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) से समाधान योजना की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है मगर हरेक खाता दिवालिया न्यायालय को नहीं भेजा सकता। बैंकरों को फंसे ऋणों के पुनर्गठन एवं वसूली को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना होगा।
बैंकरों को साख मूल्यांकन प्रणाली भी मजबूत करनी होगी। पिछले सात वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक 8 लाख करोड़ रुपये से अधिक ऋण बट्टे खाते में डाल चुके हैं। यह रकम इसी अवधि में सरकार द्वारा दी गई पूंजी की तुलना में दोगुना अधिक है। स्पष्ट है कि बैंकों का परिचालन इस तरह तो नहीं किया जा सकता। पिछले कई वर्षों के दौरान बैंकों में फर्जीवाड़े के मामले भी सामने आए हैं। इस पृष्ठभूमि में वाजिब कारोबारी निर्णयों पर भी प्रश्न उठ सकते हैं। प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण जटिल मुद्दों से निपटने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली में व्यापक सुधार की जरूरत है। उदाहरण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को निजी क्षेत्रों के नियमन की तरह ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियमन का भी नियामकीय अधिकार मिलना चाहिए। इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में एक कारोबारी शिष्टाचार की संस्कृति बढ़ेगी और एनपीए और फर्जीवाड़े भी कम होंगे। परिचालन क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार को सुधार प्रक्रिया तेजी करने में देरी नहीं करनी चाहिए। इन सभी प्रयासों के बावजूद कुछ निर्णय गलत साबित हो सकते हैं। इस संदर्भ में सरकार ने उत्तरदायित्व से जुड़े पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर अच्छा कदम उठाया है। जांच आवश्यक होने की स्थिति में बैंकरों को उनका पक्ष रखने के लिए पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए।
