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आत्मनिर्भरता और आपूर्ति शृंखला

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 5:33 AM IST

कोविड महामारी के इस दौर में जब भारत अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है, तब आर्थिक संदर्भ में उसने आत्मनिर्भरता का लक्ष्य तय किया है। इसके अंतर्गत स्थानीय आपूर्ति शृंखला विकसित की जानी है, आयात पर निर्भरता कम करते हुए आयात प्रतिस्थापन पर जोर देना है और निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाना है। ये तमाम लक्ष्य दूर की कौड़ी नजर आते हैं। आइए समझते हैं कि ऐसा क्यों है?
आयात प्रतिस्थापन के माध्यम से प्रतिस्पर्धी औद्योगिक आधार तैयार करना एक लंबी प्रक्रिया है, इसमें दशकों का समय लगता है क्योंकि इसके लिए आपूर्ति शृंखला के तमाम घटकों में विशेषज्ञता और बड़ा पैमाना चाहिए। सूचना और संचार तकनीक की क्रांति होने के पहले उत्पादन की निकटता और जरूरी क्षेत्रवार क्षमता औद्योगीकरण की प्रमुख आवश्यकता हुआ करते थे। सूचना तकनीक के आगमन के बाद उत्पादन को विभिन्न स्थानों पर बांट पाना संभव हो सका। विकसित अर्थव्यवस्थाओं की बड़ी कंपनियों को उत्पादन को ऐसे देशों में ले जाना प्रभावी लगा जहां प्रचुर मात्रा में सस्ता श्रम उपलब्ध था और जो बड़े बाजारों के करीब थे। मेजबान अर्थव्यवस्थाएं जो प्राय: विकासशील देश होते हैं, उन्हें इस प्रक्रिया में लाभ मिला क्योंकि उन्होंने बहुत कम समय में विदेशों के लिए उत्पादन विनिर्माण में विशेषज्ञता हासिल कर ली। अब उन्हें दशक भर लंबी सीखने की प्रक्रिया से गुजरने की आवश्यकता नहीं थी। ध्यान रहे दक्षिण कोरिया ने सन 1970 के दशक में ऐसा था लेकिन भारत समेत कई विकासशील देश सन 1980 के मध्य तक ऐसा नहीं कर सके थे।
उत्पादन में विभाजन की इस प्रक्रिया के चलते ही एशिया में जो फैक्टरी बनी उसका केंद्र चीन बना। क्षेत्रीय मूल्य शृंखला प्रक्रिया जिसने सन 2000 के दशक में जोर पकड़ा, उसे भी शुल्क दरों में व्यापक उदारता का लाभ मिला और मेजबान अर्थव्यवस्थाओं में सन 1990 के दशक में कारोबारी माहौल विकसित हुआ।
वैश्वीकरण और विनिर्माण विशेषज्ञता के इस दौर में तकनीकी ज्ञान दूसरे को देना अनिवार्य था। इसे सुरक्षित बनाने के लिए विकसित देशों में बड़ी कंपनियों ने मेजबान देश में निवेश और कारोबारी नियमों का रुख किया। नए जमाने के कहीं गहन मुक्त व्यापार समझौतों में शुल्क दरों को उदार करने के साथ-साथ बौद्धिक संपदा और निवेशक संरक्षण को शामिल किया गया। चूंकि विश्व व्यापार संगठन की बहुपक्षीय व्यवस्था दोहा दौर की वार्ता में अटकी हुई थी इसलिए ऐसे में इन मुक्त व्यापार समझौतों का विकास हुआ। समय बीतने के साथ-साथ जटिलता बढ़ी और मुक्त व्यापार समझौते बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में बदल गए। व्यापक और प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी (सीपीटीपीपी) और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) एशिया की ऐसी ही दो पहल हैं।
वैश्विक मूल्य शृंखला के जरिये विनिर्माण विशेषज्ञता की इस प्रक्रिया में भारत की भागीदारी विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कमजोर रही है। आसियान देशों से तो वह काफी पीछे रहा। टेक्सटाइल्स और ऑटोमोटिव क्षेत्र देश का प्रमुख निर्यात क्षेत्र है लेकिन इसमें निरंतर गिरावट आई है। इलेक्ट्रॉनिक और कंप्यूटिंग क्षेत्र जो वैश्विक मूल्य शृंखला में अव्वल रहा है उसमें 2015 में भारत में निवेश वियतनाम की तुलना में आधा रहा। भारत अपनी स्थिति का लाभ नहीं उठा सका। ऐसे में इस क्षेत्र के साथ हमारा संबंध कमजोर रहा। आयात प्रतिस्थापन के लिए हाल में कच्चे माल पर दरें बढ़ाई गईं जिससे भारत की मूल्य शृंखला से जुडऩे की कोशिश को झटका लगेगा।
हाल के अनुभव बताते हैं कि भारत आपूर्ति शृंखलाओं के लिए आकर्षक केंद्र नहीं रहा है। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद आर्थिक मंदी तथा अमेरिका-चीन कारोबारी जंग शुरू होने के बाद अनिश्चितता बढ़ी है। ऐसे में मूल्य शृंखलाओं का चीन से बाहर दक्षिण एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की ओर प्रवाह शुरू हुआ है। बीते दशक के दौरान चीन ने भी मूल्य शृंखला में अपनी स्थिति सुधारी है। कमतर मूल्य शृंखलाएं आसपास के अन्य देशों में स्थित हो गईं जिनमें वियतनाम और कंबोडिया प्रमुख हैं।
इसके विपरीत भारत मुक्त व्यापार समझौते करने में संघर्ष करता रहा। हाल ही में आरसेप वार्ता से एकदम अंतिम दौर में बाहर होना इसका उदाहरण है। इस संदर्भ में बार-बार दोहराई गई दलील यही है कि चीन के अलावा आरसेप के सभी देशों के साथ हमने मुक्त व्यापार समझौता किया है। यह दलील कमजोर है। वियतनाम में स्थित एक बड़ी कंपनी को कहीं अधिक बड़े समग्र बाजार में प्राथमिकता पर पहुंच मिलेगी जिसमें चीन, ऑस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड और आसियान देश शामिल हैं। यह उस स्थिति के उलट है जो अलग-अलग देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने पर बनेगी, यानी भारत की स्थिति।
हाल के वर्षों में आयात शुल्क में कमी मुक्त व्यापार समझौता वार्ताओं का सबसे अहम तत्त्व रही है क्योंकि अधिकांश प्रतिभागी देशों में यह पहले ही काफी कम है। मुक्त व्यापार वार्ताओं को आगे बढ़ाने में आपूर्ति शृंखला से जुड़ी सुविधाओं और निवेशकों के अनुकूल प्रावधानों की काफी अहम भूमिका होती है। अब आसियान और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा के रूप में जो अवसर है उसे आयात प्रतिस्थापन के नाम पर दी गई रियायतों को पलटकर गंवाना नहीं चाहिए। यह अनुत्पादक कदम होगा। इसके बजाय भारत को मुक्त व्यापार समझौतों से जुड़ी अपनी नीति पर नए सिरे से विचार करना चाहिए और नियामकीय विषयों तथा निवेश बढ़ाने वाले प्रावधानों पर काम करना चाहिए।
आरसेप वार्ता में भारत अभी भी शामिल हो सकता है। यह समझना जरूरी है कि आरसेप आसियान की पहल है चीन की नहीं। महामारी के बाद आर्थिक सुधार सबसे पहले पूर्वी एशिया में आएगा। जॉन हॉपकिंस कोरोनावायरस संसाधन केंद्र की 29 जून, 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 के कुल मामलों को देखें तो चीन समेत आसियान का कोई देश बीमारी से सर्वाधिक प्रभावित 20 देशों में शामिल नहीं है। महामारी के बाद कारोबारों के अपने मूल देश में लौटने की प्रक्रिया और तेज होगी। ऐसे में बड़े पैमाने पर आपूर्ति शृंखला का स्थान बदलेगा। यह चीन की आर्थिक स्थिति में सुधार की प्रकृति और उसमें लगने वाले समय पर निर्भर करेगा।
ऐसे में भारत को अपने यहां आपूर्ति शृंखला तैयार करने के बजाय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कैसे अपने विनिर्माण को प्रतिस्पर्धी बनाने में महामारी से उपजे अवसरों का लाभ लिया जाए। जरूरी घरेलू नियामकीय और निवेश माहौल में सुधार को अपनाकर वैश्विक मूल्य शृंखला में भागीदारी तय की जा सकती है। ऐसा करना भी मौजूदा संदर्भ में कहीं अधिक प्रभावी साबित हो सकता है।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। लेख में विचार व्यक्तिगत हैं)

First Published : July 2, 2020 | 12:07 AM IST